ठाकुर जी (बालकृष्ण) का एक नाम हैं–नित्योसव । घर में ठाकुर जी को प्रतिष्ठित करने के बाद रोज ही उत्सव किए जाते हैं; क्योंकि परमात्मा के साथ-साथ मानव भी उत्सव प्रिय है । उत्सव भगवत-स्मरण में तन्मय होने और जगत को भुलाने के लिए हैं । भगवान के लिए किए जाने वाले उत्सव में धन गौण है, मन मुख्य है । किंतु होता यह है कि उत्सव में मनुष्य परिजनों और मित्रों को खुश करने में इतना व्यस्त हो जाता है कि भगवान को ही भुला दिया जाता है । ऐसा ही कुछ माता यशोदा के साथ हुआ जब वह बालकृष्ण का कटि-परिवर्तन उत्सव मना रही थीं ।
श्रीकृष्ण के लिए माता यशोदा नित्य ही उत्सव मनाती हैं । बालकृष्ण ने जब पहली बार करवट ली तो उस दिन उनका जन्म-नक्षत्र भी था । मैया ने लाला का कटि-परिवर्तन-उत्सव मनाया है । यशोदा माता ने सभी ग्वालवालों व गोपियों का आशीर्वाद पाने के लिए आज समस्त गोप समुदाय को बुलाया है । सारे घर को चंदन के जल से धोया गया है । ब्राह्मण वेद-पाठ कर रहे हैं । हवन-पूजन हो रहा है । गोपियां मंगलगान कर रही हैं । बहुत भीड़-भाड़ है । यशोदा माता ने अपने पुत्र का अभिषेक किया और स्वस्तिवाचन करवाकर ब्राह्मणों को खूब खिलाया-पिलाया । अन्न-वस्त्र और सोने की माला, गाय और मुँहमांगी वस्तुओं का दान किया है ।
अब वहां धीरे से निद्रा देवी आईं । उन्होंने मन में कहा—‘जब भी कोई उत्सव होता है लोग मुझे भगा देते है (अर्थात् उत्सव के समय लोगों की नींद उड़ जाती है) । पर आज इस उत्सव को मैं अपनी आँखों से देखूंगी; इसलिए परमात्मा जो कि बालक के रूप में नंदबाबा के यहां आया है, इसी की आँखों में मैं बैठूँगी ।’
भगवान ने भी उन्हें स्वीकार कर लिया । बालकृष्ण की आँखें नींद से बोझिल होने लगीं । इतनी भीड़ में शिशु निर्विघ्न सो सके, इस विचार से यशोदा माता ने दूध-दही, मक्खन, गोरस आदि से लदे एक शकट (छकड़ा, बैलगाड़ी) के नीचे पलना बिछाकर श्रीकृष्ण को सुला दिया । कुछ बालकों को वहीं खेलने को कह दिया और स्वयं अतिथियों की सेवा में लग गईं ।
भगवान भुलाये जायँ ऐसा उत्सव किस काम का ?
अतिथियों की सेवा धर्म है; परन्तु जहां भगवान हों वहां इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि भगवान की सेवा में कोई कमी न रह जाए । भगवान की उपस्थिति में भगवान को ही देखना चाहिए ।
जब यशोदा माता छकड़े के नीचे श्रीकृष्ण को सुलाकर अतिथि व्रजवासियों के स्वागत-सत्कार में व्यस्त हो गयीं तब श्रीकृष्ण की नींद टूटी और वे माँ का दूध पीने के लिए रोने लगे । उन्होंने देखा कि मेरी माता ने मुझे बैलगाड़ी के नीचे रख दिया है । मेरी माता मेरा ही उत्सव कर रही है और मुझे ही उसने घर से बाहर निकाल दिया है । श्रीकृष्ण को यह अच्छा न लगा। यशोदा माता अपने काम में इतनी तन्मय थीं कि उन्हें श्रीकृष्ण का रोना सुनाई नहीं दिया ।
कंस का भेजा हुआ शकटासुर नाम का राक्षस गोकुल में आया । शकटासुर पूर्वजन्म के शाप के कारण देहरहित है । उसने देखा कि पूतना का काल बैलगाड़ी के नीचे सो रहा है । उसने सोचा कि यदि मैं बैलगाड़ी पर चढ़कर जोर से दबा दूँ तो पूतना का काल (श्रीकृष्ण) मर जाएगा; इसलिए वह बैलगाड़ी में प्रविष्ट हो गया ।
श्रीकृष्ण बालरूप में लीला कर रहे हैं । उन्हें बालक बनना आता है तो प्रतिकूल प्रसंग होने पर पिता बनना भी आता है । श्रीकृष्ण रोते-रोते अपने पाँव उछालने-पटकने लगे । उनके पाँव अभी लाल-लाल कोंपलों के समान बड़े ही कोमल और नन्हे-नन्हे थे । उन्होंने अपने कोमल चरणों से ही शकट-रूप जड़ (देहरहित राक्षस) का स्पर्श किया । उनका चरण-स्पर्श होते ही शकटासुर जड़ नहीं रहा । उसमें चेतना जाग्रत हो गयी । कट्-कट्-कट् शब्द के साथ बड़ी जोर की आवाज हुई और छकड़ा उल्टा होकर गिर पड़ा ।
शकटासुर जड़ और अभिमानी है । शकट जड़ वस्तु है और अभिमानी इसलिए है कि श्रीकृष्ण के ईश्वरत्व से अनभिज्ञ होकर उनको मारने आया है । श्रीकृष्ण हैं नीचे, शकटासुर है ऊपर । भगवान के ऊपर दूसरा कोई नहीं हो सकता । श्रीकृष्ण के चरण-स्पर्श मात्र से ही यह जड़ता नष्ट हो गयी और छकड़ा उलट गया और सारे दूध-दही, छाछ, मक्खन आदि की मटकियां फूट गयीं । छकड़े के पहिए तथा धुरे इधर-उधर गिर गए । मनों गोरस चारों ओर फैल गया, मानो भगवान ने कहा कि मैं आया तुम्हारे घर में और तुम देखती हो दूसरों की ओर तो लो उसका मजा ।
भगवत्सम्बध न होना ही जड़ता है और सम्बन्ध होना ही चेतनता है । भगवान के चरण-स्पर्श होने मात्र से ही वह जड़ शकट चेतन हो गया और मुक्त हो गया ।
जब छकड़ा उलट गया तब सबकी दृष्टि उधर गयी । नन्दबाबा, यशोदा माता, रोहिणी जी और उत्सव में आये हुए व्रजवासीगण इस विचित्र घटना को देखकर व्याकुल हो गए । आस-पास खड़े गोप-बालकों ने कहा कि श्रीकृष्ण ने अपने पाँव से छकड़े को उलट दिया है । लाला ने ही राक्षस को मारा है ।
यशोदा माता को विश्वास नहीं हो रहा है । कन्हैया तो बालक है, वह इतनी बड़ी बैलगाड़ी को कैसे उलटा सकता है ?
गोपबालकों ने कहा–’मां, हमने अपनी आँखों से देखा है। कन्हैया जब रो रहा था तब इसका पैर एकदम लंबा हो गया था । इसी ने राक्षस को मारा है ।’
परंतु बड़े-बूढ़े गोपों ने कहा–’ये ‘बालकों की बात’ है, ऐसा नहीं हो सकता है ।’ वे यह नहीं जानते कि यह बच्चा नहीं, इसका बल अप्रमेय है, अनन्त है, इसकी शक्ति असीम है।
यशोदा माता ने समझा कि यह किसी ग्रह का उत्पात है; अत: ब्राह्मणों से वेदमन्त्रों के द्वारा शान्तिपाठ कराया गया । फिर से छकड़े की स्थापना कर उसकी पूजा की । ब्राह्मणों ने वेदमंत्रों व पवित्र ओषधियों से श्रीकृष्ण का अभिषेक किया । नंदबाबा ने अपने पुत्र की उन्नति की कामना से वस्त्र, पुष्पमाला और सोने के हारों से सजी गायें ब्राह्मणों को दान में दीं ।
शकटासुर कौन था ?
हिरण्याक्ष का पुत्र था उत्कच । वह बहुत बलवान एवं मोटा-तगड़ा था । एक बार यात्रा करते समय उसने लोमश ऋषि के आश्रम के वृक्षों को कुचल डाला । लोमश ऋषि ने क्रोध करके शाप दे दिया–’अरे दुष्ट ! जा, तू देहरहित हो जा ।’
उसी समय साँप के केंचुल के समान उसका शरीर गिरने लगा । वह ऋषि के चरणों मे गिर पड़ा और प्रार्थना की–’मुझ पर कृपा कीजिए । मुझे आपके प्रभाव का ज्ञान नहीं था । मेरा शरीर लौटा दीजिए ।’
लोमश ऋषि प्रसन्न हो गए । उन्होंने कहा–’वैवस्वत मन्वन्तर में श्रीकृष्ण के चरण-स्पर्श से तेरी मुक्ति हो जायेगी ।’ वही असुर छकड़े में आकर बैठ गया था और भगवान श्रीकृष्ण के चरण-स्पर्श से मुक्त हो गया ।
शकट-भंजन कथा का भाव
इस कथा का भाव है कि जीवन में जब भगवान और भक्ति गौण हो जाती है और धन, भोग व कामसुख प्रमुख हो जाते हैं, तभी शकटासुर (विपत्ति) आते हैं । मानव-जीवन एक गाड़ी है । गाड़ी के तले जो श्रीकृष्ण को रखते हैं, उनकी गाड़ी को श्रीकृष्ण ठोकर लगाते हैं । जीवन में भगवान मुख्य हों तो गाड़ी सीधे रास्ते पर चलती है । पर जब परमात्मा गौण हो जाएं तो गाड़ी उलट जाती है, बुद्धि जड़ हो जाती है । जड़वाद का ध्वंस करने के लिए भगवान ने यह लीला की ।
इस कृष्ण लीला में यही रहस्य है कि नंद-यशोदा श्रीकृष्ण के पास रहते हैं तो कोई राक्षस नहीं आता है । नंदबाबा श्रीकृष्ण को छोड़कर मथुरा गये तो पूतना आई । यशोदा माता श्रीकृष्ण को बैलगाड़ी के नीचे सुलाकर गोपियों के स्वागत में लगती हैं और लाला को भूल जाती हैं तो शकटासुर आता है । कहने का अर्थ यही है कि जब-जब नंद-यशोदा श्रीकृष्ण से दूर हुए हैं, तब-तब राक्षस (विपत्ति) आए हैं । अत: मनुष्य का शरीर और इन्द्रियां भले ही संसार-व्यवहार का कार्य करें पर मन व बुद्धि श्रीकृष्ण से दूर नहीं जाने चाहिए ।
भारतीय संस्कृति में मानव जीवन के चार पुरुषार्थ बताए गए हैं–धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । इनमें धर्म पहला है और मोक्ष अंतिम है । अर्थ और काम को मध्य में रखा गया है अर्थात् अर्थ और काम धर्मानुकुल हों तभी मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है ।
भगवान श्रीकृष्ण की ये लीलाएं उनकी दयालुता की सूचक हैं; क्योंकि संकल्पमात्र से सारे जगत की सृष्टि और संहार कर सकने वाले श्रीकृष्ण के लिए किसी दैत्य को मार देना ऐश्वर्य का कार्य नहीं हो सकता । इसके विपरीत उनका कल्याण करने के लिए उन्हें अपने हाथों से मारना भगवान श्रीकृष्ण के दयामय स्वभाव का परिचायक है । जो उन्हें चाहता है, उसे वे मिलते अवश्य हैं–चाहे वह किसी भी रूप में क्यों न चाहता हो । जो शत्रु के रूप में चाहते हैं, उन्हें शत्रु के रूप में मिलते हैं और उनका कल्याण भी करते हैं ।