वेद में कहा गया है—‘मैं पुत्र हूँ और पृथ्वी मेरी माता है ।’ पृथ्वी माता के जीवन और अस्तित्व के लिए आज सबसे बड़ा खतरा पर्यावरण-प्रदूषण रूपी दानव से है । पृथ्वी का तापमान (Global Warming) बराबर बढ़ रहा है । अत: पृथ्वी की रक्षा के लिए हमें पर्यावरण-प्रदूषण रूपी दानव से लड़ना होगा । आकाश, वायु, अग्नि, जल, और पृथ्वी—इन पंचमहाभूतों का प्रदूषणरहित होना ही मानव के स्वास्थ्य, सुख, समृद्धि, शान्ति व आनन्द के लिए परम आवश्यक है ।
भगवान श्रीकृष्ण प्रकृति-प्रेमी के रूप में जाने जाते हैं । व्रज में उनकी अधिकतर लीलाएं वनों, कदम्ब के वृक्षों, करील की कुंजों, सरोवरों, गोवर्धन पर्वत और यमुना पुलिन पर ही देखने को मिलती हैं ।
ब्रज के एक कृष्ण-प्रेमी संत श्रीललितकिसोरीजी ने अपनी अभिलाषा व्यक्त करते हुए कहा है–‘कब मैं श्रीवृंदावन में कदम्बकुँज बनूंगा जिसकी छांह में लाड़िलेलाल श्रीकृष्ण विहार करते हैं । कब मैं श्रीयमुनातट पर किसी वृक्ष की डाल होऊंगा जिस पर लाड़िलेलाल श्रीकृष्ण झूला झूलते हैं । कब मैं कालीदह की ठंडी समीर बनूंगा जहां लाड़िलेलाल श्रीकृष्ण के खेलते समय मैं उनके श्रीअंग का स्पर्श कर सकूंगा जिससे उनके नूतन वस्त्र उड़ें । कब मैं गहवरवन की गलियों में चकोर बन कर श्रीयुगल जोड़ी के सुन्दर मुख का दर्शन कर सकूंगा ।’
भगवान श्रीकृष्ण पर्यावरण संरक्षण के सबसे बड़े रोल मॉडल हैं । जानते हैं कैसे ?
भगवान श्रीकृष्ण ने परोपकारता के गुण के कारण सदैव वृक्षों की प्रशंसा की
पर्यावरण की रक्षा की दृष्टि से वृक्षों का विशेष महत्व है । वृक्ष प्रदूषण के शत्रु हैं । कार्बन-डाईऑक्साइड के भक्षक है, निरन्तर ऑक्सीजन प्रदान करके हमारे जीवन के रक्षक हैं । इसीलिए भारतीय संस्कृति में जितना महत्व वृक्ष लगाने का है, उससे अधिक पाप हरे-भरे वृक्षों को काटने का माना गया है । हरे-भरे वृक्षों का स्वार्थपूर्वक नाश करना अपने कुल के नाश करने के समान माना गया है ।
भगवान श्रीकृष्ण वृक्षों के कितने बड़े प्रशंसक थे, इसके कई उदाहरण हमें देखने को मिलते हैं ।
गीता के विभूतियोग में भगवान श्रीकृष्ण ने पीपल को अपनी विभूति बतलाते हुए कहा है—‘अश्वत्थ: सर्ववृक्षाणाम्’ अर्थात्—हे अर्जुन ! वृक्षों में मैं पीपल का वृक्ष हूँ ।
एक बार भगवान श्रीकृष्ण गोप-बालकों के साथ वन में गए । वहां उन्होंने अपने मित्रों को शिक्षा देने के लिए वृक्षों की प्रशंसा करते हुए कहा—
’मेरे प्यारे मित्रो ! देखो ये वृक्ष कितने भाग्यवान हैं । इनका सारा जीवन केवल दूसरों की भलाई करने के लिए ही है । ये स्वयं तो हवा, धूप, वर्षा, पाला–सब कुछ सहते हैं परन्तु हम लोगों की उनसे रक्षा करते हैं । इनके द्वारा सब प्राणियों का जीवन-निर्वाह होता है । इन्हीं का जीवन श्रेष्ठ है । ये अपने पुष्पों से देवताओं को और फलों से पितरों को तृप्त करते हैं । ये वृक्ष अपने पत्तों से, फूलों से, फलों से, छाया से, मूल से, छाल से, लकड़ी से, गन्ध से, गोंद से, भस्म से और फिर अंकुर से लोगों की सेवा करते हैं । कभी किसी को अपने पास से व्यर्थ नहीं जाने देते हैं । ये महावृक्ष दूसरों के लिए ही फलते हैं ।’
‘मेरे प्रिय मित्रो ! संसार में प्राणी तो बहुत हैं; परन्तु उनके जीवन की यथार्थ सफलता इतने में ही है कि जहां तक हो सके अपने धन से, विवेक-विचार से, वाणी से और प्राणों से भी ऐसे ही आचरण सदा किए जायँ जिनसे दूसरों का कल्याण हो ।’
इस प्रकार श्रीकृष्ण ग्वाल-बालों को परोपकार और जनसेवा का पाठ पढ़ाते हुए प्रकृति (वृक्षों) से प्रेम और सेवा का आदर्श सिखलाते हैं ।
महाभारत में वे युधिष्ठिर को वृक्षों की महिमा बतलाते हुए कहते हैं—‘जो वृक्षों को रोपता है, वह सदा तीर्थों में ही निवास करता है, सदा दान देता है और सदा ही यज्ञ करता है । एक पीपल, एक नीम, एक बड़, दस चिड़चिड़ा, तीन कैथ, तीन बेल, तीन आंवले और पांच आम के वृक्ष लगाने वाला कभी नरक का मुंह नहीं देखता है ।’
गोवर्धन पर्वत की महत्ता बतलाना
भगवान श्रीकृष्ण ने स्वर्ग के देवता इन्द्र की अपेक्षा पृथ्वीलोक के वन को, पर्वत को तथा वनवासियों को अधिक महत्व दिया । वह इन्द्र से अधिक आदर गायों का, गाय चराने वालों का व गायों को घास, चारा, पानी देने वाले गोवर्धन पर्वत का करते हैं । समस्त ऐश्वर्य के स्वामी श्रीकृष्ण अपने को ‘वनवासी’, ‘गिरिवासी’ ‘गोवर्धनधारी’ बतलाकर साधारणजनों में स्वयं को मिला देते हैं । परोक्ष देवता के स्थान पर प्रत्यक्ष देवता गोवर्धन पर्वत की पूजा कराते हैं और स्वयं भी प्रत्यक्ष होकर पूजा को ग्रहण करते हैं । आज विकासवाद की अंधी दौड़ ने सबसे ज्यादा नुकसान वृक्षों, नदियों और पर्वतों को पहुंचाया है, उसी का परिणाम सारा संसार भोग रहा है ।
पर्यावरण प्रदूषण दूर करने वाले यज्ञ-हवन आदि की महत्ता बतलाना
भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में यज्ञों का विधान किया है । यज्ञ अनुष्ठान से पर्यावरण-प्रदूषण दूर होता है और मेघ जल बरसाते हैं । जब तक भारतवर्ष में यज्ञ-हवनादि द्वारा देवताओं की आराधना होती थी, तब तक देश सुखी था । समय पर अच्छी मात्रा में वर्षा होती थी और बाढ़, भूकम्प, अकाल व महामारी का इतना प्रकोप नहीं था । यज्ञ-हवन के लिए गाय का घी, गोबर के कण्डे आदि अत्यन्त आवश्यक है, और गाय तो श्रीकृष्ण का जीवनप्राण है । श्रीकृष्णावतार का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य गायों की रक्षा व सेवा था लेकिन आज गोमाता श्रीकृष्ण के देश में ही नितान्त उपेक्षित है ।
श्रीकृष्ण की प्रिय गायों का गोबर प्रदूषण व आणविक विकिरण से बचाव करने में रक्षा-कवच का काम करता है । भारत में गोबर से यज्ञ भूमि व घर को लीपने की प्रथा रही है जिससे सभी हानिकारक कीटाणु नष्ट हो जाते थे । हिरोशिमा व नागासाकी पर अणु बम के विस्फोट के बाद जापान ने गोबर के महत्व को समझा और उसका प्रयोग विकिरण से बचने के लिए किया ।
श्रीकृष्ण को अत्यन्त प्रिय तुलसी
श्रीकृष्ण का श्रृंगार और भोग बिना तुलसी के पूरा नहीं माना जाता है, इसीलिए वैष्णवों के लिए नित्य तुलसी पूजा को अनिवार्य माना गया है । तुलसी के पौधे में पर्यावरण को शुद्ध करने व मच्छरों को भगाने का गुण होता है । इसकी पत्तियों के सेवन से मलेरिया के दूषित तत्त्वों का नाश होता है ।
यमुना नदी को विष मुक्त करना
भगवान हैं ‘कृष्ण’ और उनकी पत्नी यमुनाजी हैं ‘कृष्णा’, इन दोनों के बीच आ गया ‘कालिय नाग’ । कालिय नाग ने यमुनाजी के जल को प्रदूषित कर दिया । भगवान ने कालिय नाग-दमन लीला करके यमुनाजी को विषमुक्त किया और संसार को नदियों को प्रदूषण से मुक्त करने की प्रेरणा दी क्योंकि जल ही जीवन है ।
श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिए इस तरह चुकायें पृथ्वी माता का ऋण
श्रीकृष्ण ने अपने आदर्श जीवन में जो कुछ किया है, उसकी कहीं तुलना नहीं है । इसलिए सच्चे कृष्ण-भक्त कहलाने का हक हमें तभी है जब हम उनकी तरह अपने पर्यावरण की रक्षा के लिए नदियों को कचरा-मुक्त रखें, पोलीथिन व प्लास्टिक का प्रयोग ना करने की शपथ लें । ज्यादा-से ज्यादा पेड़ लगाएं, पृथ्वी को हरा-भरा बनायें, हरी-भरी धरती शस्य-श्यामला होती है जो काली घटाओं और मेघमालाओं को अपनी ओर आकर्षित करके पर्याप्त वर्षा कराती है और धरती को समृद्ध कर हमें सुख-शान्ति प्रदान करती है ।