भगवान श्रीहरि को बहुत ही प्रिय श्रीगिरिराज गोवर्धन समस्त पर्वतों के राजा हैं । यह गोलोक में परमात्मा श्रीकृष्ण के वक्ष:स्थल से प्रकट हुए हैं । जब गोलोक से साक्षात् परमात्मा श्रीकृष्ण पृथ्वी का भार उतारने के लिए स्वयं इस भूलोक में अवतरित होने लगे, तब उन्होंने अपनी प्रियतमा श्रीराधा से कहा—‘प्रिये ! तुम मेरे वियोग से भयभीत रहती हो, अत: तुम भी मेरे साथ भूतल पर चलो ।’
यह सुन कर श्रीराधा ने श्रीकृष्ण से कहा–’प्रभो ! जहां वृन्दावन नहीं है, यमुना नदी नहीं हैं और गोवर्धन पर्वत भी नहीं है, वहां मेरे मन को सुख नहीं मिल सकता है ।’
श्रीराधिकाजी के इस प्रकार कहने पर भगवान श्रीकृष्ण ने अपने गोलोकधाम से चौरासी कोस भूमि, गोवर्धन पर्वत एवं यमुना नदी को भूतल पर भेजा । उस समय चौरासी कोस विस्तार वाली गोलोक की पवित्र भूमि चौबीस वनों के साथ इस भूतल पर आई । श्रीगोवर्धन पर्वत ने पश्चिम दिशा में शाल्मली द्वीप के भीतर द्रोणाचल की पत्नी के गर्भ से जन्म लिया । इस अवसर पर देवताओं, पर्वतराज हिमालय व सुमेरु आदि पर्वतों ने आकर श्रीगोवर्धन की पूजा व स्तुति की । सभी ने गोवर्धन को ‘श्रीगिरि-राज’ कह कर सम्मानित किया । तभी से यह गिरियों (पर्वतों) में श्रेष्ठ गोवर्धन ‘श्रीगिरिराज’ के नाम से लोगों में प्रसिद्ध हो गया ।
श्रीगिरिराज चालीसा
किसी की देवता की चालीस पदों में गाई गई स्तुति को ‘चालीसा’ कहते हैं । चालीसा में देवता के रूप, गुण, लीलाओं व कृपा का वर्णन होता है । अपनी प्रशंसा किसे पसंद नहीं होती है, इसलिए जब चालीसा का पाठ किया जाता है तो उसे सुनकर देवता प्रसन्न होते हैं और साधक पर अपनी कृपा बरसाने लगते हैं । श्रीगिरिराज चालीसा इस प्रकार है—
बंदहु वीणा वादिनी, धर गणपति कौ ध्यान ।
महाशक्ति राधा सहित, कृष्ण करौ कल्याण ।।
सुमिरन कर सब देवगण, गुरु-पितु बारम्बार ।
वरणों श्रीगिरिराज यश, निज मति के अनुसार ।।
जय हो जग बंदित गिरिराजा ।
ब्रज मण्डल के श्री महाराजा ।।
विष्णु रूप तुम हो अवतारी ।
सुन्दरता पर जग बलिहारी ।।
स्वर्ण शिखर अति शोभा पावें ।
सुर-मुनिगण दरशन कुं आवें ।।
शांत कंदरा स्वर्ग समाना ।
जहां तपस्वी धरते ध्याना ।।
द्रोणागिरि के तुम युवराजा ।
भक्तन के साधौ हौ काजा ।।
मुनि पुलस्त्य जी के मन भाये ।
जोर विनय कर तुम कूं लाये ।।
मुनिवर संग जब ब्रज में आये ।
लखि ब्रजभूमि यहां ठहराये ।।
बिष्णु-धाम गौलोक सुहावन ।
यमुना गोवर्धन वृन्दावन ।।
देव देखि मन में ललचाये ।
बास करन बहु रूप बनाये ।।
कोउ वानर कोंउ मृग के रूपा ।
कोउ वृक्ष कोउ लता स्वरूपा ।।
आनंद लें गोलोक धाम के ।
परम उपासक रूप नाम के ।।
द्वापर अंत भये अवतारी ।
कृष्णचन्द्र आनंद मुरारी ।।
महिमा तुम्हरी कृष्ण बखानी ।
पूजा करिबे की मन ठानी ।।
ब्रजवासी सब लिये बुलाई ।
गोवर्धन पूजा करवाई ।।
पूजन कूं व्यंजन बनवाये ।
ब्रज-वासी घर घर तें लाये ।।
ग्वाल-बाल मिलि पूजा कीनी ।
सहस्त्र भुजा तुमने कर लीनी ।।
स्वयं प्रकट हो कृष्ण पुजावें ।
माँग-माँग के भोजन पावें ।।
लखि नर-नारी मन हरषावें ।
जै जै जै गिरवर गुण गावें ।।
देवराज मन में रिसियाए ।
नष्ट करन ब्रज मेघ बुलाए ।।
छाया कर ब्रज लियौ बचाई ।
एकऊ बूँद न नीचे आई ।।
सात दिवस भई बरखा भारी ।
थके मेघ भारी जल-धारी ।।
कृष्णचन्द्र ने नख पै धारे ।
नमो नमो ब्रज के रखवारे ।।
कर अभिमान थके सुरराई ।
क्षमा मांग पुनि अस्तुति गाई ।।
त्राहिमाम मैं शरण तिहारी ।
क्षमा करौ प्रभु चूक हमारी ।।
बार-बार बिनती अति कीनी ।
सात कोस परिकम्मा दीनी ।।
सँग सुरभी ऐरावत लाये ।
हाथ जोड़ कर भेंट गहाये ।।
अभयदान पा इन्द्र सिहाये ।
करि प्रणाम निज लोक सिधाये ।।
जो यह कथा सुनें, चित लावें ।
अन्त समय सुरपति पद पावें ।।
गोवर्धन है नाम तिहारौ ।
करते भक्तन कौ निस्तारौ ।।
जो नर तुम्हरे दर्शन पावें ।
तिनके दु:ख दूर ह्वै जावें ।।
कुण्डन में जो करें आचमन ।
धन्य-धन्य वह मानव जीवन ।।
मानसी गंगा में जो नहावें ।
सीधे स्वर्ग लोक कूं जावें ।।
दूध चढ़ा जो भोग लगावें ।
आधि व्याधि तेहि पास न आवें ।।
जल, फल, तुलसी-पत्र चढ़ावें ।
मनवांछित फल निश्चय पावें ।।
जो नर देत दूध की धारा ।
भरौ रहै ताकौ भंडारा ।।
करें जागरण जो नर कोई ।
दु:ख-दारिद्रय-भय ताहि न होई ।।
श्याम शिलामय निज जन त्राता ।
भुक्ति-मुक्ति सरबस के दाता ।।
पुत्रहीन जो तुमकूं ध्यावै ।
ताकूं पुत्र-प्राप्ति ह्वै जावै ।।
दंडौती परिकम्मा करहीं ।
ते सहजही भवसागर तरहीं ।।
कलि में तुम सम देव न दूजा ।
सुर नर मुनि सब करते पूजा ।।
दोहा—जो यह चालीसा पढ़े, सुनें शुद्ध चित्त लाय ।
सत्य सत्य यह सत्य है, गिरवर करें सहाय ।।
क्षमा करहुँ अपराध मम, त्राहिमाम गिरिराज ।
देवकीनन्दन शरण में, गोवर्धन महाराज ।।
।। श्रीगिरिराज चालीसा सम्पूर्ण ।।