राधाकुण्डे श्यामकुण्डे गिरि गोवर्धन,
माधुर माधुर वंशि बाजै, ऐही तो बिन्दावन ।
गोवर्धन की छोटी परिक्रमा मार्ग पर स्थित श्रीराधाकुण्ड एक छोटा-सा कस्बा है । यह भगवान श्रीराधा-कृष्ण की अलौकिक लीला का साक्षी है । यहां श्रीयुगलसरकार सदैव सखियों सहित रासविलास में रत रहते हैं । यही कारण है कि इस पवित्र स्थल के दर्शन व परिक्रमा के लिए देश-विदेश से लाखों भक्त यहां विशेषत: कार्तिक मास में आते हैं । सभी सम्प्रदायों के आचार्यों की यह साधना स्थली रही है । विशेष रूप से मध्व-गौड़ीय सम्प्रदाय के अनुयायी भक्तों का यह प्रधान केन्द्र है ।
श्रीराधाकुण्ड व श्रीकृष्णकुण्ड (श्यामकुण्ड) का सम्बन्ध द्वापरयुग की श्रीकृष्ण की अरिष्टासुर-वध लीला से है ।
श्रीकृष्णकुण्ड का प्राकट्य
श्रीमद्भागवत के अनुसार कंस ने भगवान श्रीकृष्ण को मारने के लिए अरिष्टासुर को व्रज में भेजा । भगवान श्रीकृष्ण ने जिस दिन अरिष्टासुर का वध करके समस्त व्रजवासियों को अपार आनन्द दिया, उसी दिन रात्रि में उन्होंने व्रजांगनाओं से निकुंज में चलकर रासलीला करने की विनती की । तब श्रीराधा सहित सभी गोपियां हंसते हुए कहने लगीं—
‘हे अरिष्टमर्दन ! आज आप हम लोगों को मत छुओ, क्योंकि आज आपने गोवंश (बैल) की हत्या की है (अरिष्टासुर वृषरूप धारी असुर था) । आज आपने गोवध करके अपने गोविन्द नाम को कलंकित कर दिया है । जब तक इस पाप से आपकी शुद्धि नहीं होगी, तब तक हमारी-आपकी रासक्रीड़ा संभव नहीं है ।’
यह सुनकर श्रीकृष्ण बोले—‘सुन्दरियों ! वह तो भयंकर असुर था । उसे मारकर मैंने जगत का कल्याण किया है, फिर पाप कैसे लगा ?’
इस पर गोपियों ने जवाब दिया—‘जैसे वृत्रासुर असुर होने पर भी ब्राह्मणरूप धारी था इसलिए उसका वध करने पर इन्द्र को ब्रह्महत्या का पाप लगा था, वैसे ही अरिष्टासुर गोरूप धारी असुर था । अत: उसके वध से आपको भी गोवध का पाप अवश्य लगेगा ।’
गोपियों की तर्क युक्त बात सुनकर श्रीकृष्ण कहने लगे—‘व्रजसुन्दरियों ! बताओ तो, इस पाप से मेरा उद्धार कैसे होगा ?’
तब गोपियों ने कहा—‘’इस पाप से मुक्ति के लिए तो आपको त्रिलोकी के समस्त तीर्थों में स्नान करना पड़ेगा, तब कहीं जाकर आप शुद्ध हो पाओगे ।’
गोपियों का तो यह एक केवल परिहास (मजाक) था परन्तु विश्व रंगमंच के सूत्रधार श्रीकृष्ण ने इसमें भी एक नयी लीला रच दी ।
गोपियों की बात सुनकर श्रीकृष्ण ने कहा—‘हम व्रज को छोड़कर त्रिभुवन में कहां घूमते फिरेंगे और यदि हम त्रिलोकी के सभी तीर्थों में स्नान कर भी आएं तो तुमको फिर भी विश्वास नहीं होगा इसलिए हम तो तुम्हारे सामने यहीं सभी तीर्थों को बुला कर उसमें स्नान कर लेंगे ।’
भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी वंशी से पृथ्वी पर आघात किया तो तुरन्त ही पाताल से भोगवती गंगा वहां प्रकट हो गई और श्रीकृष्ण के संकल्प करने मात्र से सभी तीर्थ वहां उपस्थित हो गए ।
श्रीकृष्ण ने उन तीर्थों से कहा—‘तुम लोग मेरे इस कुण्ड में आ जाओ ।’ फिर वे मुस्कराते हुए गोपियों से बोले—‘देखो व्रजसुन्दरियों ! सभी तीर्थ इस कुण्ड में आ गए हैं ।’
यह सुनकर गोपियां कहने लगीं—‘केवल आपके यह कह देने से कि सभी तीर्थ कुण्ड में आ गए है, हमें विश्वास नहीं होता है ।’
तब श्रीकृष्ण की प्रेरणा से सभी तीर्थ मूर्तिमान होकर गोपियों को अपना परिचय देकर उस कुण्ड में लीन हो गए । अब गोपियों को तीर्थों की कुण्ड में उपस्थिति का विश्वास हो गया । इसके बाद श्रीकृष्ण उस कुण्ड में स्नान किया और गोवध का प्रायश्चित कर के पाप मुक्त हो गए । श्रीकृष्णकुण्ड को श्यामकुण्ड भी कहते हैं और इसके मध्य भाग में वंशीकुण्ड है जिसे श्रीकृष्ण ने अपनी वंशी से खोदा था ।
श्रीराधाकुण्ड का प्राकट्य
अब श्रीकृष्ण गर्वीले स्वर में श्रीराधा से बोले—‘प्रियाजू ! आपकी आज्ञा मानकर मैं स्वयं तो गोवध के पाप से मुक्त हो गया और मनुष्यों के कल्याण के लिए मैंने सब तीर्थों को भी इस श्यामकुण्ड में अवस्थित कर दिया है । आपने संसार के हित के लिए कौन सा कार्य किया है, जरा बताओ ? आप व्रज की स्वामिनी हैं । प्रजा द्वारा किये गये पाप के लिए राजा भी उत्तरदायी होता है । आप भी गोपियों सहित मेरे इस कुण्ड में स्नान कर पुण्य लाभ करो ।’
अपनी प्रिय सखी श्रीराधा पर लगाये गए लांछन को गोपियां सह न सकीं । श्रीकृष्ण के अहंकार को पहचान कर गोपियों ने श्रीराधा से कहा—‘प्रियाजू ! आप देख रही हो न श्रीकृष्ण के अहंकार को । आज हमसे इस कुण्ड में स्नान करने को कह रहे हैं और कल जब हम अपनी इच्छा से इसमें स्नान करने आएंगी तो मार्ग रोक कर खड़े होकर हमसे स्नान करने का भी दान मांगेंगे । जैसे दूध-दही का दान मांगते हैं, गैल (रास्ते) का दान मांगते हैं। ऐसों का क्या विश्वास करें ? अत: अब तो राधाजू आपका भी एक कुण्ड होना चाहिए और वह भी श्रीकृष्ण के कुण्ड से बड़ा होना चाहिए ।’
सखियों के तर्क को सुनकर श्रीराधा ने अपने कंकण से पृथ्वी पर जरा-सी ठोकर मार दी, उससे पश्चिम दिशा में श्रीकृष्णकुण्ड से बड़ा एक कुण्ड प्रकट हो गया । उस दिव्य कुण्ड को देखकर श्रीकृष्ण ने श्रीराधा से कहा—‘प्रियाजू ! कुण्ड तो आपने तैयार कर लिया, अब मेरे कुण्ड से जल लेकर इसमें भर लो ।’
परन्तु राधा की सखियां अपनी नाक नीची करने को तैयार न थीं । श्रीराधा ने कहा—‘नहीं ! कदापि नहीं । आपके कुण्ड से एक बूंद भी जल नहीं लूंगी । आपने अपने कुण्ड में गोवध रूपी पाप धोया है, अत: उस जल को मैं छुऊंगी भी नहीं । मैं अपनी कोटि-कोटि सखियों को साथ लेकर मानसी गंगा से कलशों में जल लाकर अभी अपने कुण्ड को भरती हूँ और इसकी कीर्ति को अद्वितीय बना देती हूँ ।’
श्रीकृष्ण ने सोचा यदि आज श्रीराधा हमारे कुण्ड और उसके जल का निरादर कर देंगी तो भविष्य में कोई इसका आदर नहीं करेगा; फिर तो हमारा सारा परिश्रम ही बेकार हो जाएगा ।’
श्रीकृष्ण ने अपने कुण्ड में स्थित सभी तीर्थों से कहा कि तुम लोग भी श्रीराधा से अनुनय-विनय करो । सभी तीर्थ भी श्रीराधा के चरणकमलों को स्पर्श कर उनके कुण्ड में स्थान पाना चाहते थे ।
श्रीकृष्ण की बात सुनकर सभी तीर्थ दिव्य मूर्ति धारण करके कुण्ड से बाहर आये और श्रीराधा के चरणारविन्दों में साष्टांग प्रणाम करके कहने लगे—‘हे महाशक्ति ! पुरुष शिरोमणि श्रीकृष्ण की आज्ञा से हम सब यहां पर आए हैं, आप हम लोगों के ऊपर प्रसन्न होकर हमें स्वीकार कीजिए । हम इस कुण्ड में स्थायी रूप से रहना चाहते हैं ।’
तीर्थों की सामूहिक प्रार्थना से सारा वातावरण गुंजायमान हो उठा—
कृपा कटाक्ष जासु की अनंत लोक-पावनी ।
कथा-प्रवाह-केलि की समस्त ताप-नाशनी ।।
सुनाम सिद्ध राधिका, अशेष सिद्धि दायिनी ।
शुभेक्षणे कृपामयी प्रसन्न ह्वै कृपा करो ।।
अर्थात्—जिनकी कृपा कटाक्ष अनन्त लोकों को पवित्र करने वाली है, जिनके केलि-प्रवाह की कथा समस्त तापों को नष्ट करने वाली है, अपने ‘राधा’ नाम से जो स्वत: ही सिद्ध हैं व समस्त सिद्धियों की दात्री हैं, ब्रह्म को भी रस सिद्धि देने वाली हैं, वे शुभ दृष्टि वाली कृपामयी श्रीराधा प्रसन्न होकर हम पर कृपा करें ।
करुणामयी श्रीराधा का हृदय तीर्थों की प्रार्थना से द्रवित हो गया । श्रीराधा कुछ कहतीं उससे पहले ही सभी सखियां बोल पड़ी—‘स्वामिनीजू ! आप यह प्रस्ताव तभी स्वीकार करना जब श्रीकृष्ण हमारी यह शर्त स्वीकार कर लें कि आगे चलकर दोनों कुण्ड आपके नाम से ही अर्थात् श्रीराधाकुण्ड के नाम से प्रसिद्ध होंगे ।’
यह सुनकर श्रीकृष्ण ने तुरन्त गोपियों का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया । श्रीराधा ने सभी तीर्थों को अपने कुण्ड में आ जाने का आदेश दिया । आनन-फानन में सभी तीर्थ श्रीकृष्णकुण्ड की सीमा तोड़कर उमड़ते हुए श्रीराधाकुण्ड में प्रवेश कर गये । इस प्रकार श्रीकृष्णकुण्ड के जल से श्रीराधाकुण्ड भी भर गया और दोनों कुण्ड मिल गए ।
श्रीकृष्ण ने कहा—‘हे प्रियतमे ! तुम्हारा यह कुण्ड इस संसार में मेरे कुण्ड से भी अधिक महिमामय हो । जैसे तुम मुझे अत्यन्त प्रिय हो, वैसे ही यह सरोवर भी मुझे सदा प्रिय रहेगा । मेरे लिए तुममें और तुम्हारे इस सरोवर में कोई भेद नहीं है । मैं यहां रोज जल केलि व स्नान के लिए आया करुंगा ।’
श्रीराधा ने कहा—‘मैं भी सदैव अपनी सखियों के साथ आपके सरोवर में स्नान करने आऊंगी ।’
राधायै सततं तुभ्यं ललितायै नमो नम: ।
कृष्णेन सह क्रीडायै राधाकुण्डाय ते नम: ।।
तभी सभी ब्रजांगनाएं एक स्वर से कहने लगीं—‘आहा वोही’ । यही ‘आहा बोही’ शब्द अपभ्रंश होकर व्रज में ‘अहोई’ बोला जाने लगा ।
कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मध्य रात्रि में समस्त तीर्थों ने श्रीराधाकुण्ड में प्रवेश किया था, इस तिथि को अहोई अष्टमी या बहुलाष्टमी भी कहते हैं । यह दिन एक बड़े पर्व के रूप में श्रीराधाकुण्ड में आज तक मनाया जाता है ।
संतों का कहना है कि श्रीराधा सीधी-सादी हैं इसलिए श्रीराधाकुण्ड सीधा है और श्रीकृष्ण हैं टेढ़े इसलिए श्रीकृष्णकुण्ड टेड़ा-मेढ़ा, त्रिभंगी है ।
श्रीराधाकुण्ड के बीचोंबीच कंकणकुण्ड है जिसे श्रीराधा ने अपने कंकण से खोदा था । वंशीकुण्ड और कंकणकुण्ड के चारों ओर विशाल कुण्ड का निर्माण राजा मानसिंह के मंत्री टोडरमल द्वारा कराया गया । असली कुण्डों के दर्शन केवल तब होते हैं जब इनकी सफाई होती है ।
श्रीचैतन्यमहाप्रभु द्वारा लुप्त कुण्डों का प्राकट्य
समय बीतने के साथ यह दोनों कुण्ड लुप्त होकर ‘कारी-गौरी’ नामक धान के खेत हो गये । बीच में थोड़ा-सा जल रहता था । श्रीचैतन्यमहाप्रभु जब यहां आए तो उन्होंने इन कुण्डों को धान के खेतों से पुन: प्रकट किया ।
इसके बाद श्रीपाद श्रीरघुनाथदास गोस्वामी कुण्ड के किनारे एक वृक्ष के नीचे भजन करते थे । वे उसी कुण्ड के जल से स्नान व पीने के लिए जल लिया करते थे । एक दिन उनके मन में ऐसा विचार आया कि दोनों कुण्ड जल से भर जाएं तो अच्छा हो लेकिन इसके लिए कुछ पैसों की जरुरत होगी ।
भक्तवत्सल भगवान ने अपने भक्त का मनोरथ पूर्ण करने का नाटक रच दिया । भगवान ने अपने एक भक्त सेठ को स्वप्न में श्रीरघुनाथदास गोस्वामी को कुछ मुद्राएं भेंट देने का आदेश दिया । उस रकम से गोस्वामीजी ने दोनों कुण्डों का पंकोद्धार कराया । इस प्रकार श्रीराधाकुण्ड व श्रीकृष्णकुण्ड भक्तजनों की आराधना का विषय बन गये ।
श्रीराधाकुण्ड की महिमा
▪️सभी गोपियों में श्रीकृष्ण को जिस प्रकार श्रीराधा प्रिय हैं उसी प्रकार श्रीराधा का प्रिय कुण्ड श्रीराधाकुण्ड है ।
यथा राधा प्रिया विष्णो: तस्या कुण्डं प्रियं तथा ।
सर्वगोपीषु सेवैका विष्णोरत्यन्तवल्लभा ।। (पद्मपुराण)
श्रीराधाकुण्ड के जल में जंघाओं तक या नाभिपर्यन्त या छाती तक या कण्ठ तक जल में खड़े होकर श्रीराधाकृपा कटाक्ष स्तोत्र का १०० बार पाठ करने पर कुछ दिनों में सम्पूर्ण मनोवांछित पदार्थ प्राप्त हो जाते हैं, ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है तथा भक्तों को साक्षात् श्रीराधाजी का दर्शन होता है । किसी-किसी को राधाकुण्ड के जल में १०० पाठ करने पर एक ही दिन में दर्शन हो जाता है । किसी-को कुछ समय लग जाता है । श्रीराधा प्रकट होकर प्रसन्नतापूर्वक वरदान देती हैं अथवा अपने चरणों का महावर (जावक) भक्त के मस्तक पर लगा देती हैं ।
▪️राधाकुण्ड का दर्शन, स्नान व सेवन ब्रह्महत्या जैसे पापों को नष्ट कर देने वाला है ।
▪️ऐसी मान्यता है कि अहोई अष्टमी के दिन यदि कोई नि:स्तान महिला मध्यरात्रि में श्रीराधाकुण्ड में स्नान करती है तो श्रीराधा की कृपा से उसके घर में एक वर्ष के अंदर संतान की किलकारी गूंजने लगती है । इसी कारण इस दिन दूर-दूर से श्रीराधाकृष्ण के भक्त आकर मध्य रात्रि में इस कुण्ड में स्नान करते हैं ।
▪️वाराहपुराण में इन दोनों कुण्डों की महिमा का गान इस प्रकार किया गया है—हे राधाकुण्ड और कृष्णकुण्ड नामक कुण्डद्वय ! आप समस्त पापों को हरने वाले और श्रीहरि की प्राप्ति स्वरूप कैवल्य (मोक्ष) के दाता हैं । आपको नमस्कार है ।
▪️इन दोनों कुण्डों के जल को श्वेत कुष्ठ व गलित कुष्ठ को ठीक करने के लिए भक्तजन प्रयोग करते हैं । परन्तु इसके लिए मन की पवित्रता और निर्मल हृदय होना आवश्यक है ।
▪️श्रीरूपगोस्वामी ने कहा है—‘ठाकुर के सभी धाम पवित्र हैं पर उनमें भी वैकुण्ठ से मथुरा श्रेष्ठ है, मथुरा से रासस्थली वृन्दावन श्रेष्ठ है, उससे भी श्रेष्ठ गोवर्धन है लेकिन उसमें भी श्रीराधाकुण्ड अपने माधुर्य के कारण सर्वश्रेष्ठ है ।’
जय हो श्रीराधे गोविंद जी की।। राधे राधे।। हे युगल सरकार आप कृपा बनाए रखना