रोम रोम से श्रीकृष्ण नाम
भगवान के नाम में विलक्षण शक्ति है । जिस प्रकार किसी व्यक्ति का नाम लेने पर वही आता है; ठीक उसी तरह ‘श्रीकृष्ण’ नाम का उच्चारण करने पर वह तीर की तरह लक्ष्यभेद करता हुआ सीधे भगवान के हृदय पर प्रभाव करता है; जिसके फलस्वरूप मनुष्य श्रीकृष्ण कृपा का भाजन बनता है । जहाँ कहीं और कभी भी शुद्ध हृदय से ‘कृष्ण’ नाम का उच्चारण होता है; वहाँ-वहाँ स्वयं कृष्ण अपने को व्यक्त करते हैं ।
तिरुपति बालाजी का प्रमुख उत्सव : ब्रह्मोत्सव
जब भगवान वेंकटेश ने अपनी शक्तियों—श्रीदेवी और पद्मावतीजी के साथ वेंकटाचल पर अपना निवास बनाया, उस समय सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने भगवान वेंकटेश्वर बालाजी की महिमा का प्रचार करने के लिए तिरुमाला पर्वत पर एक दिव्य उत्सव का आयोजन किया । दस दिन तक रात-दिन महावैभव के साथ ब्रह्मोत्सव मनाया गया, जो अब भी उसी वैभव के साथ मनाया जाता है ।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश युद्धभूमि में क्यों दिया ?
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश किसी ऋषि-मुनियों और विद्वानों की सभा या गुरुकुल में नहीं दिया, बल्कि उस युग के सबसे बड़े युद्ध ‘महाभारत’ की रणभूमि में दिया । युद्ध अनिश्चितता का प्रतीक है, जिसमें दोनों पक्षों के प्राण और प्रतिष्ठा दाँव पर लगते हैं । युद्ध के ऐसे अनिश्चित वातावरण में मनुष्य को शोक, मोह व भय रूपी मानसिक दुर्बलता व अवसाद से बाहर निकालने के लिए एक उच्चकोटि के ज्ञान-दर्शन की आवश्यकता होती है; इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का ज्ञान वहीं दिया, जहां उसकी सबसे अधिक आवश्यकता थी ।
देवर्षि नारद द्वारा भगवान श्रीकृष्ण के गृहस्थ जीवन का दर्शन
भगवान की लीलाओं को पढ़ने-सुनने का अभिप्राय यह है कि उनकी भक्ति हमारे हृदय में आये । जैसे सुगंधित चीज को नाक से सूंघने पर, स्वादिष्ट चीज को जीभ से चखने पर और सुंदर चीज को आंखों से देखने पर उससे अपने-आप ही प्रेम हो जाता है; वैसे ही बार-बार भगवान की लीला कथाओं को पढ़ने-सुनने से भगवान से अपने-आप प्रेम हो जाता है । भगवान श्रीकृष्ण की प्रत्येक दिव्य लीला के पीछे मानव के कल्याण की ही भावना निहित थी ।
भगवान श्रीकृष्ण द्वारा युधिष्ठिर को आत्म-तत्त्व का उपदेश
प्रलयकाल में समस्त जगत का संहार करके उसे अपने उदर में स्थापित कर दिव्य योग का आश्रय ले मैं एकार्णव के जल में शयन करता हूँ । एक हजार युगों तक रहने वाली ब्रह्मा की रात पूर्ण होने तक महार्णव में शयन करके उसके बाद जड़-चेतन प्राणियों की सृष्टि करता हूँ । किंतु मेरी माया से मोहित होने के कारण जीव मुझे नहीं जान पाते हैं । कहीं भी कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है, जिसमें मेरा निवास न हो । भूत, भविष्य जो कुछ है, वह सब मैं ही हूँ । सभी मुझसे ही उत्पन्न होते हैं; फिर भी मेरी माया से मोहित होने के कारण मुझे नहीं जान पाते हैं ।
युगलस्वरूप श्रीराधाकृष्ण की कृपा की प्राप्ति कैसे हो ?
गोपी-प्रेम बड़ा ही पवित्र है, इसमें अपना सर्वस्व प्रियतम श्रीकृष्ण के चरणों में न्यौछावर करना पड़ता है । गोपी भाव के साधक को न तो मोक्ष की इच्छा होती है और न ही नरक का भय । उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य प्रियतम श्रीकृष्ण को प्रिय लगने वाले कार्य करना हो जाता है ।
भगवान श्रीराधाकृष्ण की बिछुआ लीला
श्रीकृष्ण ने अपनी प्रिया श्रीराधा का चरण-स्पर्श किया । यह देख कर श्रीराधा की सभी सखियां ‘बलिहारी है बलिहार की’—इस तरह का उद् घोष करने लगीं । सारा वातावरण सखियों के परिहास से रसमय हो गया । श्रीकृष्ण ने भी लजाते हुए श्रीराधा के पैर की अंगुली में बिछुआ धारण करा दिया ।
श्रीराधा-कृष्ण का अनुपम प्रेम
राधारानी ने ललिता सखी से कहा—‘सखी ! यदि श्रीकृष्ण के हृदय में करुणा नहीं है तो इसमें तुम्हारा तो कोई दोष नहीं है । अब जो मैं कहती हूँ सो तुम करो । थोड़ी देर में जब मेरे शरीर से प्राण निकल जायें, तब तुम मेरी अन्त्येष्टि-क्रिया इस प्रकार करना । मेरे इस शरीर को तमाल वृक्ष से सटाकर बांध देना और उसकी डाल में मेरे दोनों हाथ लटका देना जिससे जीवित अवस्था में न सही, मरने के बाद इस शरीर को श्रीकृष्ण का आलिंगन मिलता रहे ।’
भगवान को पुत्र बनाने के लिए मनुष्य में कैसी योग्यता होनी...
नंद और यशोदा को भगवान श्रीकृष्ण के माता-पिता बनने का सौभाग्य क्यों प्राप्त हुआ ? इसके पीछे उनके पूर्व जन्म के एक पुण्यकर्म की कथा ।
आली री मोहे लागे वृंदावन नीको
वृंदावन, मथुरा और द्वारका भगवान के नित्य लीला धाम हैं; परन्तु पद्म पुराण के अनुसार वृंदावन ही भगवान का सबसे प्रिय धाम है । भगवान श्रीकृष्ण ही वृंदावन के अधीश्वर हैं । वे ब्रज के राजा हैं और ब्रजवासियों के प्राणवल्लभ हैं । उनकी चरण-रज का स्पर्श होने के कारण वृंदावन पृथ्वी पर नित्य धाम के नाम से प्रसिद्ध है ।