bhagwan shri krishna dharti ko haath mein uthate hue
bhagwan shri krishna is the lord of universe

साक्षात् परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण गीता (७।७) में अर्जुन से कहते हैं–’हे अर्जुन ! समस्त सृष्टि का आदिकारण मैं ही हूँ; संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो मुझसे रहित हो । यह सम्पूर्ण जगत सूत्र में सूत्र की मणियों के सदृश्य मुझमें गुंथा हुआ है । (गीता ७।७)

’इस सम्पूर्ण जगत को मैंने एक अंश में धारण कर रखा है ।’ गीता (१०।४२)

त्रिलोकी में श्रीकृष्ण के समान नहीं है कोई देव

▪️‘भगवान’ शब्द में छह गुण–ज्ञान, शक्ति, बल, ऐश्वर्य, वीर्य और तेज निहित होते हैं । श्रीकृष्ण अवतार में ये छ: गुण उनमें एक साथ प्रकट हुए अर्थात् भगवान श्रीकृष्ण पूर्णावतार हैं । भगवान श्रीकृष्ण को भूत-भविष्य की सभी बातों का ज्ञान था । गुरु-पुत्र को ला देना, मरे हुए ब्राह्मण पुत्रों को जिला देना आदि उनकी शक्ति को दर्शाते हैं । गोवर्धन धारण उनके बल का परिचायक है । अनगिनत यादवों को अपनी आज्ञा में रखना उनके ऐश्वर्य को दिखाता है । ब्रह्मा-लीला में स्वयं अनेक गो-गोप-बालक बनने पर भी निर्विकार बने रहना उनके वीर्य का परिचायक है । इन्द्र आदि बड़े-बड़े तपस्वियों का उनके सामने निस्तेज हो जाना उनके तेज को दर्शाता है ।

▪️पूर्णब्रह्म श्रीकृष्ण गोलोकबिहारी हैं । वृन्दावन में वे नित्य स्थित हैं । मथुरापति और द्वारकापति इनके अंश हैं । जब अक्रूरजी वृन्दावन से श्रीकृष्ण को ले जाने लगे, तब श्रीकृष्ण ने अपने पूर्णविग्रह को वृन्दावन में ही छिपा रखा और वैसा ही दूसरा विग्रह बनाकर वे अंश रूप से मथुरा चले गए । यही अंश आगे चलकर द्वारका गए ।

▪️गर्गाचार्यजी ने परब्रह्म परमात्मा का नाम ‘कृष्ण’ रखा । सबके मन को अपनी ओर आकर्षित करने के कारण वे ‘श्रीकृष्ण’ व चन्द्रवंश के भूषण होने से श्रीकृष्णचन्द्र कहलाते हैं । परन्तु व्रजवासियों ने इनके अनन्त अटपटे नाम रख दिए—

प्रभु तेरे नाम हैं हजार कौन नाम लिखूं पत्रिका ।
दिन-दिन बदले है ठांव, कौन ग्राम लिखूं मैं पत्रिका ।।
पूर्व में जगन्नाथ, पश्चिम में द्वारकानाथ ।
दक्षिण में रंगनाथ, उत्तर में बद्रीनाथ ।
मध्य में विराजें श्रीनाथ, कौन गांव लिखूं मैं पत्रिका ।।
कोई श्रीनाथ कहै, कोई नवनीतलाल ।
कोई कहै गोवर्धननाथ, कौन नाम लिखूं पत्रिका ।।
कोई मथुरानाथ कहै, कोई विट्ठलनाथ कहै ।
कोई कहै द्वारकानाथ, कौन नाम लिखूं मैं पत्रिका ।।
कोई गोकुलनाथ कहै, कोई गोकुलचन्द कहै ।
कोई कहै बालकृष्ण, कौन नाम लिखूं मैं पत्रिका ।।
कोई मदनमोहन कहै, कोई नटवरलाल कहै ।
कोई कहै मुकुन्दलाल, कौन नाम लिखूं मैं पत्रिका ।।
कोई अद्भुतराय कहै, कोई कल्याणराय ।
कोई कहै रणछोड़राय, कौन नाम लिखूं मैं पत्रिका ।।
श्रीबल्लभ दुलारे हो, श्रीविट्ठल के प्यारे हो ।
मुखिया प्राण अधार, कौन नाम लिखूं मैं पत्रिका ।। (नानालाल मुखिया)

▪️श्रीकृष्ण का त्रिभंगी होकर खड़े होना उनके सत्त्व, रज और तम इन तीनों गुणों के अधिपति होने को दिखाता है ।

▪️भगवान श्रीकृष्ण का बीजाक्षर मन्त्र ‘क्लीं’ है। इस मन्त्र में बड़ी शक्ति है। इससे मस्तिष्क पर जोर का स्पन्दन होता है जिससे मन की वृत्ति बदल जाती है। विषय वासनाओं से हटकर मन शुद्ध, एकाग्र और अन्तर्मुखी हो जाता है ।

▪️भगवान श्रीकृष्ण ‘मुरलीमनोहर’ कहलाते हैं । भगवान श्रीकृष्ण के अधरामृत का पान करने के लिए मुरली ने बड़े तप किए हैं । जीवन भर सिर पर सर्दी, वर्षा और ग्रीष्म की ज्वाला सही । काटी गयी, शरीर को सात स्वरों में छिदवाया, हृदय को पोला कर दिया । कहीं कोई गांठ नहीं रहने दी । इतना सब सहने पर ही भगवान ने उसे धारण किया है । 

▪️इस मुरली ध्वनि से भगवान अपने काम-बीज ‘क्लीं’ का वितरण संसार को करते है । इस काम-बीज से श्रीकृष्ण भक्तों के मन को अपनी ओर खींच लेते हैं और संसार के कामजाल से छुड़ाकर अपने पवित्र रस का आस्वादन मुरली ध्वनि से कराते है; यही ‘नादब्रह्म’ है । भगवान श्रीकृष्ण के मधुर आलिंगन चाहने वाले प्रत्येक भक्त को वंशी की साधना का अनुकरण करना चाहिए । जब तक सांसारिक सुख-दु:ख में समता नहीं आती, भगवान के लिए अपना तन-मन अर्पित नहीं किया जाता, अपने हृदय को विषय-वासनाओं से शून्य नहीं किया जाता, तब तक मनुष्य श्रीकृष्ण की मुरली-ध्वनि को सुनने का अधिकारी नहीं बन सकता है ।

▪️भगवान श्रीकृष्ण को हठ-योग की बज्रोली-मुद्रा सिद्ध थी, इसलिए वे गोपियों में रहते हुए भी ‘नित्य ब्रह्मचारी’ कहलाते हैं ।

▪️भगवान श्रीकृष्ण का द्वादशाक्षर मन्त्र ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ है । ध्रुव ने इसी मन्त्र का जप करके भगवान का दर्शन प्राप्त किया था ।

▪️उज्जयिनी में सान्दीपनि मुनि के यहां श्रीकृष्ण ने चौंसठ दिन में चारों वेद और उसके छहों अंग–शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष और छन्द सीख लिए । इसके साथ ही आलेख्य, गणित, गानविद्या, और वैद्यक भी सीख लिया । बारह दिन में हाथी, घोड़े की शिक्षा प्राप्त की । पचास दिनों में धनुर्वेद के दसों अंगों की शिक्षा पूरी कर ली ।

▪️केवल चौंसठ दिन की शिक्षा के बाद श्रीकृष्ण ने जो भगवद्गीता का ज्ञान संसार को दिया, पांच हजार साल बीत जाने पर भी उसके जोड़ की दूसरी पुस्तक न बन सकी ।

▪️क्रोधित भीषण भुजंग कालिय के फनों पर नाचकर श्रीकृष्ण ने जिस नृत्यकला की सृष्टि की वह बहुत ही विलक्षण है; उनके नागनृत्य की किसी से तुलना नहीं की जा सकती है ।

▪️भगवान श्रीकृष्ण की दिव्य शक्तियों में ऐश्वर्य शक्ति और माधुर्य शक्ति हैं । ऐश्वर्य शक्ति से भगवान ऐसे विचित्र और महान कार्य करते हैं, जिन्हें दूसरा कोई कर ही नहीं सकता । भगवान को भी मोहित करने वाली माधुर्य शक्ति में एक मधुरता, मिठास होती हैं, जिसके कारण भगवान बड़े ही मधुर और प्रिय लगते हैं–’मधुरातिपतेरखिलं मधुरम् ।

▪️भगवान श्रीकृष्ण के जीवन में सेवा-धर्म मुख्य रहा है । उनकी गोसेवा, मातृ-पितृ सेवा, मित्र-सेवा, पाण्डवकुल-सेवा बहुत प्रसिद्ध है; किन्तु पाण्डवों का दूत बनना और अर्जुन का सारथी बनना उनकी ये दो सेवाएं अलौकिक थीं । युधिष्ठिर के राजसूय-यज्ञ में उन्होंने अतिथियों के पाद-प्रक्षालन (पैर धोने) और जूठी पत्तलें उठाने की सेवा की ।

▪️भगवान श्रीकृष्ण ने संसार को उपदेश दिया कि कलियुग में मुख्यरूप से ब्रह्मचर्य और गृहस्थ दो ही आश्रम रहेंगे; इसलिए उन्होंने अर्जुन, उद्धव, अक्रूर और गोपियां आदि गृहस्थों को ही अपना दिव्य ज्ञान दिया । भगवान ने यह बताया कि गृहस्थाश्रम में रहकर संसार के समस्त व्यवहारों को करते हुए किस प्रकार भगवान की प्राप्ति हो सकती है । गोपियां अपने घरों में रहकर घर-गृहस्थी के सभी कार्यों को करती थीं पर भगवान को एक क्षण के लिए भी नहीं भूलती थीं।

▪️मुक्ति-दाता होने के कारण ‘राम’ नाम को ‘तारक’ और प्रेम-दाता होने के कारण ‘कृष्ण’ नाम को ‘पारक’ कहते हैं।

▪️पूर्ण ब्रह्म श्रीकृष्ण व्रज में बालकृष्ण रूप में विद्यमान हैं और चौरासी कोस व्रज में व्याप्त होकर ‘परमानन्द’ लुटाते हैं ।

धनि गोपी, औ ग्वाल धनि, धनि जसुदा, धनि नंद ।
जिनके आगे फिरत है धायो परमानन्द ।। (नागरिदास) 

यही है श्रीकृष्णचरित्र की विलक्षणता जो उन्हें त्रिलोकी में सबसे प्यारा, सबसे न्यारा बनाती है ।

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