कोई आज गया कोई कल गया कोई जावनहार तैयार खड़ा ।
नहीं कायम कोई मुकाम यहां चिरकाल से यही रिवाज रहा ।।
आरम्भ से यही रिवाज चला आ रहा है कि संसार एक क्षण भी रुकता नहीं । जो यहां आया है, उसे जाना ही है । जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु निश्चित है ।
मृत्यु की उत्पत्ति कैसे हुई : महाभारत की कथा
मृत्यु की उत्पत्ति कैसे हुई और उसने प्राणियों का संहार करना क्यों शुरु किया—इसके सम्बन्ध में महाभारत में एक कथा इस प्रकार है—
भगवान ब्रह्मा ने जब सृष्टि रचना शुरु की तो सृष्टि बढ़ती गई; क्योंकि सृष्टि के संहार की कोई व्यवस्था उन्होंने नहीं की थी । तब ब्रह्माजी ने एक नारी को उत्पन्न किया और उसका नाम रखा ‘मृत्यु’ । ब्रह्माजी ने मृत्यु से कहा कि उसका काम लोगों को मारना और बढ़ती हुई सृष्टि को रोकना है; परन्तु मृत्यु रूपी नारी सृष्टि के संहार रूपी पाप को करने के लिए तैयार नहीं हुई ।
तब ब्रह्माजी ने इस जटिल समस्या का समाधान निकालते हुए मृत्यु से कहा—
‘तुम्हें प्रत्यक्ष रूप से किसी को मारने का पाप नहीं करना है; क्योंकि लोभ, मोह, भय, चिन्ता, ईर्ष्या, द्वेष, दुर्भावना, निर्लज्जता, मान-अपमान, दूसरों के प्रति कही गई कठोर वाणी ही मनुष्य को मारेंगे । ये सब मन के विकार यदि मनुष्य की दिनचर्या में शामिल हो जाएं तो वे मृत्यु का कारण बनेंगे । साथ ही मनुष्य जब प्रकृति के नियमों से खिलवाड़ करेगा, तब भी वह रोगों द्वारा मृत्यु को आमंत्रित करेगा ।’
फूल सा बनने में ही है जीवन की सार्थकता
इस कथा से मनुष्य को यही शिक्षा मिलती है कि मृत्यु किसी को नहीं मारती; बल्कि प्राणी रोग और मौत को स्वयं आमन्त्रित करता है । यदि बेवजह मौत से बचना है तो मनुष्य को अपना जीवन फूल सा बनाना चाहिए । फूलों की तरह जीवन बेशक क्षणभंगुर हो; परन्तु वह स्नेह, प्रेम, दया, सद्भावना, मित्रता, त्याग की सुगंध से भरा होना चाहिए । फूलों का स्वभाव ही है कि वे हवा, गर्मी, सर्दी, बारिश आदि हर हालात में लहराते, नाचते व सुगंध फैलाते रहते हैं । दूसरों की दुर्गंध या बुराइयों को अपने में नहीं आने देते । तोड़ने वाले के हाथ भी सुगंध से भर देते हैं और उसे खुशी ही देते हैं ।
इसलिए फूलों से शिक्षा लेकर मनुष्य को दूसरों की दुष्टता को क्षमा कर प्रेम और सद्भावनापूर्ण जीवन बिताना चाहिए । तभी हम रोगों और मृत्यु को आमन्त्रित करने से बच सकेंगे ।
यही बात कबीर ने इस तरह कही है—
मरते मरते जग मुआ मरनि न जाना कोय ।
ऐसी मरनी मर चलो बहुरि न मरना होय ।।
संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य है कि हम रोज ही लोगों को मृत्यु के मुख में जाते देखते हैं फिर भी उससे कुछ सीखते नहीं हैं । इस संसार को अपने अच्छे कर्मों से, अच्छे विचारों से, त्याग, प्रेम और सद्भावना से इस कदर भर दो कि ईश्वर भी यही चाहे कि हम सदैव उन्हीं के पास, उन्हीं के चरणों में रहें और इस संसार में वापिस न आएं अर्थात् जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो जाएं ।
उठ रही मेरी वाणी आज, पिता ! पाने को तेरा धाम ।
अरे वह ऊँचा-ऊँचा धाम, जहां है जीवन का विश्राम ।।