भगवान को पुत्र बनाने के लिए मनुष्य में कैसी योग्यता होनी चाहिए—इस संबन्ध में भगवान श्रीकृष्ण संसार की स्त्रियों को शिक्षा देते हुए कहते हैं—
‘जगत की स्त्रियों, देखो ! यदि तुममें से कोई मुझ परब्रह्म पुरुषोत्तम को अपना पुत्र बनाना चाहे तो मैं पुत्र भी बन सकता हूँ; परन्तु पुत्र बनाकर कैसे प्यार किया जाता है, कैसे वात्सल्य भाव से मुझे भजा जाता है, इसकी शिक्षा तुम्हें माता यशोदा से लेनी होगी ।’
एक दिन की बात है–यशोदा माता घर के आवश्यक काम में लगी हुईं थीं और बालकृष्ण माँ की गोद में चढ़ने के लिए मचल रहे थे । माता ने कुछ ध्यान नहीं दिया । इस पर खीझ कर बालकृष्ण रोने लगे और आँगन में लोटने लगे । उसी समय देवर्षि नारद भगवान श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं को देखने के लिए वहां आए । उन्होंने देखा, समस्त जगत के स्वामी, सच्चिदानन्द भगवान श्रीकृष्ण माता की गोद में चढ़ने के लिए जमीन पर पड़े रो रहे हैं । इस दृश्य को देखकर देवर्षि नारद गद्गद् हो गये और यशोदा माता को पुकार कर कहने लगे–
‘यशोदे ! तेरा सौभाग्य महान है । क्या कहें, न जाने तूने पिछले जन्मों में तीर्थों में जा-जाकर कितने महान पुण्य किये हैं ? अरी ! जिस विश्वपति, विश्वस्त्रष्टा, विश्वरूप, विश्वाधार भगवान की कृपा को इन्द्र, ब्रह्मा और शिव भी नहीं प्राप्त कर सकते, वही परिपूर्ण ब्रह्म आज तेरी गोद में चढ़ने के लिए जमीन पर पड़ा लोट रहा है ।’
नंद और यशोदा को भगवान श्रीकृष्ण के माता-पिता बनने का सौभाग्य क्यों प्राप्त हुआ—इसके पीछे उनके पूर्व जन्म के एक पुण्यकर्म की कथा इस प्रकार है—
भगवान को पुत्र बनाने के लिए मनुष्य में कैसी योग्यता चाहिए ? भक्ति कथा
प्राचीन काल में एक ब्राह्मण दम्पत्ति जंगल में कुटिया बनाकर रहते थे । उनकी कुटिया किसी देव-मंदिर के समान बिल्व, चम्पा, जवाकुसुम, तुलसी आदि वृक्षों से ढकी रहती थी । पति का नाम था द्रोण और पत्नी का नाम था धरा देवी । दोनों भगवान के परम भक्त थे और सदैव ठाकुरजी की सेवा-पूजा में मग्न रहते थे । द्रोण भिक्षा मांग कर लाते तो धरा देवी भोजन तैयार करतीं । पति को भोजन कराने के बाद कुछ शेष रहता तो खा लेतीं अन्यथा पानी पीकर ही संतोष कर लेती थीं ।
एक बार द्रोण भिक्षा मांगने के लिए गए । धरा देवी झोंपड़ी में अकेली थीं । उसी समय एक युवक अपने वृद्ध माता-पिता को लेकर वहां आया और धरा देवी से बोला—‘मेरे माता-पिता भूखे हैं, इन्हें खाने के लिए कुछ दीजिए ।’
धरा देवी ने कहा—‘मेरे पति भिक्षा लेने गए हैं, अभी आते होंगे । उनके आने पर मैं आप सबको भोजन कराऊंगी । अभी यह कुशासन और जल ग्रहण कीजिए ।’
दैववश उस दिन द्रोण को भिक्षा लेकर आने में देर हो गई । युवक ने क्रोध में धरा देवी से कहा—‘इसका क्या विश्वास कि तुम्हारे पति भिक्षा में कुछ लाएंगे ही । तुम्हारे घर में तो एक मिट्टी की हँडिया ही है । मेरे माता-पिता भूखे हैं । इन्हें जल्दी से भोजन कराना जरुरी है । मैं इन्हें किसी दूसरी जगह ले जाता हूँ ।’
अतिथि घर से भूखा चला जाए, यह कैसे हो सकता है ? भारतीय संस्कृति में अतिथि को भगवान का रूप माना गया है—‘अतिथि देवो भव’ । यदि घर से अतिथि भूखा चला जाए तो वह गृहस्वामी के समस्त पुण्य लेकर और पाप देकर जाता है ।
धरा देवी ने युवक से कहा—‘आप सत्य कहते हैं; किंतु हममें श्रद्धा का अभाव नहीं है । हमारे गृहस्वामी अवश्य हमारी असहाय स्थिति पर दया करेंगे ।’’
युवक ने कहा—‘तुम्हारे गृहस्वामी कौन हैं ?’
धरा देवी बोली—‘यह घर, संसार, यह शरीर—सभी तो उन गृहस्वामी विष्णु का है । हमारे सभी कार्य उन्हीं की सेवा के लिए हैं ।’
युवक ने निष्ठुरता से कहा—‘श्रद्धा से देवताओं की तृप्ति होती है । मनुष्य के पेट की ज्वाला तो श्रद्धा से शान्त होने से रही; उसे तो भोजन चाहिए । मेरे वृद्ध माता पिता भूख से पीड़ित होकर मूर्च्छित हो रहे हैं । अब हमें आज्ञा दो ।’
‘जरा रुको, मैं पास के गांव से भोजन लेकर आती हूँ ।’ धरा देवी ने युवक को रोकते हुए कहा ।
धरा देवी ने पास के एक गांव में जाकर बनिए की दुकान से भोजन-सामग्री बंधवा ली । उन्होंने कभी वन से बाहर चरण न रखा था; न ही किसी दुकान से कोई वस्तु खरीदी ही थी; इसलिए उनको यह पता नहीं था कि दुकान से वस्तु लेने पर पैसे देने पड़ते हैं । बनिए ने पैसे मांगे ।
धरा देवी ने कहा—‘मेरे पास तो पैसे नहीं हैं ।’
धरा देवी अत्यंत रूपवती थीं । उनके रूप को देखकर दुकानदार के मन में विकार आ गया । कामविमोहित होकर दुकानदार ने कहा—‘तुम्हारे पास जो है, वही दे दो ।’ ऐसा कह कर बनिए ने धरा देवी के स्तनों की तरफ इशारा किया ।
सरल हृदया धरा देवी समझ न सकीं कि विश्व में इतने अधम जीव भी होते हैं ! जिस हृदय में साक्षात् नारायण निवास करते हैं, उसमें ऐसा कुत्सित विचार भी आ सकता है । माता के पास ईश्वर के उपहार स्वरूप दुग्ध रूपी अमृत-कलश हैं, जिनकी पवित्रतम अमृत रूपी दुग्धधारा से अबोध शिशुओं का पोषण होता है । अतिथि नारायण रूप होता है । अत: मैं अपने नारायण और अतिथि दोनों की सेवा के लिए कुछ भी करुंगी ।
ऐसा विचार कर धरा देवी ने दुकान पर गुड़ आदि काटने की तीखी छुरी रखी थी, उससे अपने दोनों स्तन काट कर बनिए को दे दिए और भोजन-सामग्री लेकर कुटिया की ओर चल दी । यह दृश्य देख कर दुकानदार मूर्च्छित हो गया ।
कुटिया तक पहुंचते हुए धरा देवी का शरीर रक्त से लथपथ हो चुका था । भोजन सामग्री कुटिया में पृथ्वी पर रखते हुए उन्होंने कहा—‘अतिथि रूपी साक्षात् नारायण आप मेरी इस सामग्री को स्वीकार करें, अब मेरे प्राण साथ नहीं दे रहे है ।’ ऐसा कह कर वे पृथ्वी पर गिर पड़ीं ।
यह क्या ! ऐसा लगा कुटिया में सहस्त्रों सूर्य एक साथ उदय हो गए हों । उनकी परीक्षा पूर्ण हुई । युवक के रूप में चतुर्भुज, पीताम्बरधारी, श्रीवत्स चिह्न धारी, वनमाली, शंख-चक्र-गदा-पद्म लिए भगवान विष्णु प्रकट हो गए । भगवान शंकर व पार्वती जी माता-पिता के रूप में धरा देवी की परीक्षा करने आए थे । वे धरा देवी के त्याग, साहस व अतिथि सेवा को देख कर अत्यंत प्रसन्न हुए ।
भगवान विष्णु ने कहा—‘धरा ! तुमने हमारे भोजन के लिए अपने स्तनों का त्याग किया है । मैंने स्वीकार किया उनको । अत: द्वापर युग में व्रज में अगले जन्म में तुम यशोदा के रूप में अवतीर्ण होगी । मैं तुम्हारे स्तनों के पान के लिए तुम्हारा पुत्र बन कर आऊंगा ।’
धरादेवी ही दूसरे जन्म में यशोदा जी बनीं और द्रोण नंद बाबा हुए ।
भक्ति में भगवान को बांधने की और उन्हें पुत्र तक बनाने की शक्ति होती है ।श्रीमद्भागवत (१०।९।२०) के अनुसार—‘मुक्तिदाता भगवान से जो कृपाप्रसाद यशोदा मैया को मिला, वैसा न ब्रह्माजी को, न शंकरजी को, न अर्धांगिनी लक्ष्मीजी को भी कभी प्राप्त हुआ ।’