वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम्।
देवकीपरमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्।।
भगवान श्रीकृष्ण अनन्त ऐश्वर्य, अनन्त बल, अनन्त यश, अनन्त श्री, अनन्त ज्ञान और अनन्त वैराग्य की जीवन्त मूर्ति हैं। वे साक्षात् स्वयं भगवान हैं। उनमें सारे भूत, भविष्य और वर्तमान के अवतारों का समावेश है। वे पूर्ण पुरुषोत्तम हैं। वे गोलोकबिहारी हैं, क्षीरसागरशायी परमात्मा हैं, बदरिकाश्रमसेवी नर नारायण ऋषि हैं। वे सनातन ब्रह्म हैं पर अपने भक्तों के लिये अंधे की लकड़ी हैं, कंगाल के धन हैं, प्यासे के पानी हैं, भूखे की रोटी हैं, निराश्रय के आश्रय हैं, निर्बलों के बल हैं, जीवन के जीवन हैं, देवों के देव हैं। प्रस्तुत हैं श्रीकृष्ण की सर्वगुणसम्पन्नता की कुछ झलकियाँ–
श्रीकृष्ण परम योगी थे। वह वर्णाश्रम धर्म के अनुसार आचरण करने वाले थे। ब्राह्ममुहुर्त में उठकर ध्यान, स्नान, सन्ध्या, सूर्य पूजा, देवर्षि-पितृ-तर्पण तथा गुरूजनों को प्रणाम करते थे।
श्रीकृष्ण महादानी थे। वह प्रतिदिन वस्त्र अलंकारों से सुसज्जित दूध देने वाली 84,000 गायों का दान देते थे।
वह माता पिता की सेवा करने वाले, गुरू सेवक और ब्राह्मणों की पूजा करने वाले थे। युधिष्ठिर के यज्ञ में ब्राह्मणों के भोजन के बाद जूठी पत्तलें उठाने का कार्य श्रीकृष्ण ने ही किया था।
श्रीकृष्ण सर्वज्वरहारी थे। उन्होंने इन्द्र का शक्ति-गर्व-ज्वर, ब्रह्मा का ज्ञान-गर्व-ज्वर व राजाओं का बल-गर्व-ज्वर हरण किया था।
वे सदा निष्काम थे। उन्होंने अत्याचारी राजाओं को मारकर कभी भी उनका राज्य ग्रहण नहीं किया था।
वे ममता-शून्य थे। गांधारी के द्वारा अपने विशाल परिवार के विनाश का शाप सुनकर वह प्रसन्न हुये।
वह दीन दुर्बलों पर दया करने वाले थे। उन्होंने कुब्जा, अजामिल और ग्राह को तार दिया।
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तुलसीदासजी के शब्दों में–
मैं हरि, पतित पावन सुने।
मैं पतित, तुम पतित-पावन, दोउ बानक बने।।
व्याध गनिका गज अजामिल, साखि निगमनि भने।
और अधम अनेक तारे, जात कापै गने।।
जानि नाम अजानि लीन्हें नरक जमपुर मने।
दास तुलसी सरन आयो राखिये आपने।।
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श्रीकृष्ण बड़े अद्भुतकर्मा थे। उन्होंने अपने जीवन में बहुत अद्भुत कर्म किये। सबसे पहले उन्होंने पूतना, शकटासुर, तृणावर्त व अघासुर का वध किया फिर दावानल का पान किया। गोवर्धन पर्वत को सबसे छोटी ऊँगली पर धारण किया, स्वयं गोवर्धन के रूप में पूजा ग्रहण की, इन्द्र का गर्व हरण किया, रासलीला में दो-दो गोपियों के बीच में एक-एक स्वरूप प्रकट कर देना, सुदर्शन व शंखचूड़ का उद्धार, अक्रूर को भगवत दर्शन देना, कुब्जा को सीधी करना, मृत गुरु पुत्र को लाना, नृग का उद्धार, मृत देवकी पुत्रों को लाना, द्रोपदी का चीर बढ़ाना, एक पत्ता खाकर दुर्वासा का पेट भर देना, ब्रज में माता को, कौरव सभा में दुर्योधन को व अर्जुन को विराट रूप में दर्शन देना, जयद्रथवध के समय सूर्य को आकाश में छिपा देना, उत्तरा के गर्भ में परीक्षित की रक्षा करना, नारदजी को द्वारका में प्रत्येक महल में दर्शन देना आदि सभी अद्भुत कर्म हैं।
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श्रीकृष्ण नृत्यकला में भी अत्यन्त निपुण थे। उनका रासमण्डल का नृत्य सर्वदा निराले ढंग का है। कालिय दमन के समय विषधर के फणों पर नृत्य करना तो नृत्यकला की पराकाष्ठा है।
श्रीकृष्ण संगीतकला में भी निपुण थे। उनकी वंशी की मधुर तान न केवल ब्रजवासियों अपितु पशु-पक्षियों को भी विमोहित कर देती थी। नारदजी जैसे संगीत विशारद ने इनकी पटरानियों–श्रीजाम्बवतीजी और श्रीसत्यभामाजी से संगीत शिक्षा ली थी। फिर नारदजी ने श्रीरूक्मिणीजी से संगीत में निपुणता हासिल की। जिसकी रानियों ने नारदजी जैसे संगीतज्ञ को संगीत की शिक्षा दी हो उनका अपना संगीतशास्त्र का ज्ञान कितना अगाध होगा।
बजावत मुरली स्याम सुजान।
बनि संगीत-रूप रसमय प्रिय छेड़त मीठी तान।।
धन्य भईं सब राग-रागिनी, बड़भागिनी महान।
हरि-मुख बसीं, निकसि मुरली-छिद्रन तें सुधा-समान।।
हर्यौ सकल बिष जग-बिषयन कौ, करयौ उदय अनुराग।
मुरली की मोहनी मिटाए भोग-बिराग-बिभाग।। (पद रत्नाकर)
श्रीकृष्ण एक आदर्श मित्र थे। अर्जुन से मित्रता की वजह से ही वह महाभारत के युद्ध में अर्जुन के रथ के सारथी बनें। ब्रज में ग्बालवालों के लिये माखन की चोरी की। सुदामा से तो उनकी मित्रता जगजाहिर है। द्वारकाधीश होकर भी गरीब सुदामा के चरण अपने अश्रुओं से धोए। अपने पीताम्बर से सुदामा के चरण पोंछे और सुदामा के दो मुट्ठी चिड़वे के बदले उसे राज्य सुख दे दिया।
श्रीकृष्ण सच्चे गोसेवक थे। ग्यारह वर्ष की अवस्था तक उन्होंने वन में गायें चरायीं।
भाई हनुमान प्रसादजी पोद्दार के शब्दों में–
नीलमनि धेनु लिये सँग आवत।
गोपद-धूरि गगन महँ छाई, गो-धन इत-उत धावत।।
क्रीड़त ग्वाल-बाल-सँग प्रमुदित हिलि-मिलि, हँसत-हँसावत।
नाचत-कूदत बिबिध ताल दै, बेनु-बिषान बजावत।।
मुरली-धुनि सुनि मधुर कान्ह की, घर-घर मंगल छाए।
ब्रज-जन-मन-रंजन दुख-भंजन मोहन वन तें आए।।
श्रीकृष्ण घोड़ा हाँकने की कला (रथ संचालन) में भी अत्यन्त निपुण थे। इसी कौशल की वजह से उन्होंने महाभारत के युद्ध में भीष्म, द्रोणचार्य और कर्ण से अर्जुन की रक्षा की।
श्रीकृष्ण परम नीतिज्ञ और राजनीतिविशारद थे। युद्ध में समय-समय पर उन्होंने पांडवों को नीति शिक्षा देकर उनका मार्गदर्शन किया।
श्रीकृष्ण बहुत बड़े वाग्मी थे। जब वे पांडवों के दूत बनकर कौरव दरबार में गए तब बड़े-बड़े ज्ञानी मुनि वहाँ उनका भाषण सुनने के लिए दूर-दूर से पधारे थे।
श्रीकृष्ण बड़े विनोदी तथा हँसमुख स्वभाव के थे। भीमसेन के साथ भी इनके बड़े विनोदपूर्ण सम्बन्ध थे। ग्बाल वालों व गोपियों से इनका हँसी मजाक चलता रहता था।
करते कभी छेड़ अति प्यारी,
खारी; भर लेते अँकवार।
पीते कभी, पिलाते रस अति,
मधुर-मनोहर कर मनुहार।।
श्रीकृष्ण जननेता और समाज सुधारक थे। कंस का वध करके उग्रसेन को मथुरा का राजा बनाकर उन्होंने जनराज्य की स्थापनाकी। उन्होने गोवर्धन पूजा की नयी प्रथा चलाई। वे लोकनायक और लोकसेवक थे।
श्रीकृष्ण स्त्री जाति के भी रक्षक थे। उन्होंने भौमासुर का वध करके उसकी कैद से 16,000 कन्याओं को छुड़ाया और उनको अपनाकर अपनी रानी बनाना स्वीकार किया।
श्रीकृष्ण चोरी करने की कला में भी अत्यन्त प्रवीण थे। प्रेमियों के मन को चुराना तो उनका स्वभाव है। गोपियों के मन में इच्छा उत्पन्न करके उनकी इच्छा पूर्ति के लिये उनके घरों से माखन चुराकर खाना भी उनकी विभिन्न लीलाओं में से एक है। श्रीकृष्ण के साथ माखन चुराने वाले बालकों की पूरी टोली होती थी। माखन खाना, माखन और दधि के बर्तन भी फोड़ देना, बंदरों को माखन खिलाना, दूध में पानी मिलाना, बछड़ों को गायों के नीचे दूध पीने के लिये खोल देना–इन सब बातों से गोपियाँ तंग आ जाती थीं। वे यशोदाजी के पास उलाहना लेकर जातीं। कई बार गोपियाँ उन्हें पकड़ कर यशोदाजी के पास ले आतीं। तब श्रीकृष्ण कातर होकर कहते–
मैया मैं नहि माखन खायौ।
ख्याल परैं ये सखा सबै मिलि, मेरे मुख लपटायौ।
देखि तुही सींके पर भाजन, ऊँचें धरि लटकायौ।
हौं जू कहत नान्हे कर अपनें मैं कैसैं करि पायौ।
मुख दधि पोंछि, बुद्धि इक कीन्हीं, दोना पीठि दुरायौ।
डारि साँटि, मुसुकाइ जसोदा, स्यामहिं कंठ लगायौ। (सूर सागर)
इस प्रकार श्रीकृष्ण के अनन्त गुणों का वर्णन करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।
यं ब्रह्मा वरुणेन्द्ररुद्रमरुत: स्तुवन्ति दिव्यै: स्तवै,
वेदै: सांगपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगा:।
ध्यानावस्थिततद् गतेन मनसा पशयन्ति यं योगिनो,
यस्यान्तं न विदु: सुरासुरगणा देवाय तस्मै नम:।।
ब्रहमा, रुद्र, इन्द्र, वरुण और मरुद्गण दिव्य स्त्रोतों के द्वारा जिनकी स्तुति करते रहते हैं, सामसंगीत के मर्मज्ञ ऋषि-मुनि अंग, पद, क्रम और उपनिषदों के सहित वेदों के द्वारा जिनका गायन करते रहते हैं, योगीलोग ध्यान के द्वारा स्थिर किये हुए तल्लीन चित्त से जिनका दर्शन प्राप्त करते रहते हैं और इतना सब करते रहने पर भी देवता, असुर तथा और कोई भी जिनका वास्तविक स्वरूप पूर्णतया नहीं जान सकते–उन स्वयंप्रकाश परमात्मदेव को नमस्कार है।
You can also add effects, trim the video and then afterwards upload them to the
Vimeo website. To deal with the problem of headless servers, IT professionals
in the past would typically turn to KVM switches that were either rack
mounted or standalone, or intricate software. Not
only the international tournament yet also the local events in each continent can easily gather a total prize pool
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