पक्षीराज गरुड़ जिन्हें ‘सुपर्ण-गरुड़’ कहते हैं, भगवान विष्णु के नित्य परिकर (परिवार का अंग), दास, सखा, वाहन, आसन, ध्वजा, वितान (छतरी, canopy) एवं व्यजन (पंखा) के रूप में जाने जाते हैं । ये भगवान के नित्य (सदा) संगी हैं और उनकी सेवा में सदा रहते हैं । यह सौभाग्य केवल गरुड़जी को ही प्राप्त है कि इनकी पीठ पर भगवान के चरण सदा स्थापित रहते हैं, जिससे उनकी पीठ पर भगवान के चरणों का गड्डा सा बन गया है । भगवान के उच्छिष्ट (बचा हुआ जूठा) प्रसाद को ग्रहण करने का अधिकार भी गरुड़जी को मिला हुआ है । दैत्यों के साथ युद्ध में भगवान इन्हें अपना सेनापति बनाकर अपना सारा भार गरुड़जी पर ही छोड़ देते हैं ।
महर्षि कश्यप और विनता के पुत्र होने से गरुड़जी को वैनतेय कहते हैं । श्रीमद्भगवद्गीता (१०।३०) में भगवान श्रीकृष्ण ने गरुड़जी को अपनी विभूति बतलाते हुए अपने-आप को ‘वैनतेय’ कहा है ।
गरुड़जी अनन्त ज्ञानवान माने जाते हैं । श्रीमद्भागवत के अनुसार सामवेद के दो भेद—बृहत् और रथन्तर—गरुड़जी के दो पंख हैं । जब वे उड़ते हैं तो उनके पंखों की ध्वनि से स्वत: ही सामवेद की ऋचाओं का गान होने लगता है । तीनों वेदों का नाम भी ‘गरुड़’ है इसलिए गरुड़ को ‘सर्ववेदमयीविग्रह’ भी कहते हैं ।
अठारह पुराणों में से एक गरुड़ पुराण इन्हीं के नाम पर हैं । भगवान की प्रेरणा से गरुड़जी ने ही इस पुराण को महर्षि कश्यप को सुनाया और व्यासजी ने उसका संकलन किया ।
भगवान विष्णु ने गरुड़ को क्यों बनाया अपना वाहन ?
एक बार प्रजापति कश्यप की दो पत्नियों—विनता (गरुड़ की माता) और कद्रू (नागमाता) के बीच इस बात पर विवाद हो गया कि सूर्य के रथ के घोड़े की पूंछ काली है या सफेद । शर्त यह हुई कि जो हार जाएगी वह दासी बनेगी । वास्तव में सूर्य के घोड़े की पूंछ तो सफेद ही थी किन्तु कद्रू का पुत्र कालिया नाग जो अत्यन्त क्रूर स्वभाव का था, वह जाकर सूर्य के रथ के घोड़े की पूंछ से लिपट गया । दूर से देखने पर घोड़े की पूंछ काली मान ली गयी । गरुड़ की माता विनता अपनी सौत कद्रू की दासी बनकर उसकी सेवा करने लगी । इस पर गरुड़ क्रोध में आकर कद्रू के पुत्र नागों को खाने लगे । इससे भयभीत होकर कद्रू ने प्रस्ताव रखा कि यदि गरुड़ अमृत का छिड़काव कर सभी सर्पों को अमर कर दें तो विनता को दासीत्व से मुक्त कर दिया जाएगा ।
गरुड़जी अमृत की खोज के लिए स्वर्ग गए । जब गरुड़ अमृत कुम्भ लेकर स्वर्ग से पृथ्वी की ओर बढ़े तो उनकी मुलाकात भगवान विष्णु से हुई ।
गरुड़जी की निर्लोभता देख भगवान विष्णु ने बनाया उन्हें अपना वाहन
भगवान विष्णु को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि इतना बड़ा अमृत कुम्भ गरुड़ के पास होने पर भी उन्होंने अमृत चखा तक नहीं । वे गरुड़जी की सहजता और निर्लोभता पर प्रसन्न हो गए और उनको वर देने की इच्छा प्रकट की ।
गरुड़जी ने वर मांगा कि ‘मैं आपकी ध्वजा में स्थित रहूं तथा अमृत पिये बिना ही अजर-अमर हो जाऊं ।’
भगवान ने उन्हें अमर रहने का वरदान दिया साथ ही गरुड़जी को अपने ध्वज पर स्थान देते हुए कहा—‘इस प्रकार तुम मेरे ऊपर रहोगे’ और भगवान विष्णु ‘गरुड़ध्वज’ कहलाए ।
अब गरुड़जी ने भगवान विष्णु से कहा कि मैं भी आपको वर देना चाहता हूँ । भगवान विष्णु ने गरुड़ की निर्लोभता देख कर उनसे अपना वाहन होने का वर मांगा । इस प्रकार गरुड़जी भगवान के वाहन हो गए जिसके कारण भगवान का एक नाम ‘श्रीगरुड़गोविन्द’ हो गया ।
गरुड़जी को सुपर्ण क्यों कहा जाता है ?
गरुड़जी जब अमृत कुम्भ लेकर उड़ते हुए जा रहे थे तो मार्ग में इन्द्र ने उन पर अपने वज्र से आक्रमण कर दिया । गरुड़जी ने विनम्रतापूर्वक कहा—‘जिनकी (दधीचि की) हड्डियों से यह वज्र बना है, उनका मैं सम्मान करता हूँ; इसलिए अपना एक पंख जिसका आप कहीं अन्त न पा सकेंगे, त्याग देता हूँ । उस सुन्दर पंख को देखकर लोगों ने कहा—‘जिसका यह सुन्दर पंख (पर्ण) है वह पक्षी सुपर्ण नाम से जाना जाए ।’ इसलिए गरुड़जी ‘सुपर्ण’ नाम से जाने जाते हैं ।
इन्द्र ने भी गरुड़ से मित्रता कर ली । गरुड़ ने इन्द्र से कहा—‘मैं दुष्ट सर्पों को अमृत पिलाकर अमर बनाना नहीं चाहता परन्तु मुझे अपनी मां को दासीत्व से मुक्त कराना है । अत: जब मैं अमृत कुम्भ को वहां रखूं तो आप छिपकर उसे उठा लें । इससे मेरा और आपका दोनों का ही काम बन जाएगा ।’
गरुड़ ने अमृत कुम्भ सर्पों को सौंपते हुए कुशा पर रखा । अमृतपान से पूर्व सर्प जैसे ही स्नान आदि के लिए दूर गए, इन्द्र ने अमृत कुम्भ का हरण कर लिया और वैसा ही विष का पात्र रख दिया । नागमाता कद्रू ने अपने पुत्रों को बुलाकर उनके मुख में अमृत की तरह दिखाई देने वाला विष रख दिया और आशीर्वाद देते हुए कहा—‘तुम्हारे कुल में उत्पन्न होने वाले सभी सर्पों के मुख में ये अमृत की बूंदें निरन्तर उत्पन्न होती रहें तथा तुम लोग सदा इससे संतुष्ट रहो ।’
इस तरह अमृत के धोखे में सभी सर्पों ने विषपान कर लिया और विषैले हो गये । नुकीली कुशा चाटने से सर्पों की जीभ के दो टुकड़े हो गए और वे द्वि-जिह्वा वाले हो गए । स्वर्ग से अमृत कुम्भ लाते समय गरुड़जी ने जहां-जहां विश्राम किया और कलश रखा, उन स्थानों पर कुम्भ का पर्व मनाया जाने लगा ।
‘ॐ तत्पुरुषाय विद्महे स्वर्णपक्षाय धीमहि तन्नो गरुड़ प्रचोदयात्’ ।। (गरुड़ गायत्री)