shri krishna

कृष्ण उठत, कृष्ण चलत, कृष्ण शाम भोर है।
कृष्ण बुद्धि, कृष्ण चित्त, कृष्ण मन-विभोर है।।

कृष्ण रात्रि, कृष्ण दिवस, कृष्ण स्वप्न-शयन है।
कृष्ण काल, कृष्ण कला, कृष्ण मास-अयन है।।

कृष्ण शब्द, कृष्ण अर्थ, कृष्ण ही परमार्थ है।
कृष्ण कर्म, कृष्ण भाग्य, कृष्ण ही पुरुषार्थ है।।

कृष्ण स्नेह, कृष्ण राग, कृष्ण ही अनुराग है।
कृष्ण कली, कृष्ण कुसुम, कृष्ण ही पराग है।।

कृष्ण भोग्य, कृष्ण त्याग, कृष्ण तत्व-ज्ञान है।
कृष्ण भक्ति, कृष्ण प्रेम, कृष्ण ही विज्ञान है।।

कृष्ण स्वर्ग, कृष्ण मोक्ष, कृष्ण परम साध्य है।
कृष्ण जीव, कृष्ण ब्रह्म, कृष्ण ही आराध्य है।।

कृष्ण ! इस ढाई अक्षर के नाम में कितना जादू है। कितना सुन्दर ! कितना प्यारा है यह शब्द ! घोर अंधकार को चीरकर जैसे शरद्चन्द्र सारे आकाश में महान प्रकाश व चांदनी रूपी अमृत को बिखेर देता है, उसी तरह श्रीकृष्ण के आविर्भाव ने सारे संसार के सद्पुरुषों के हृदयों को दिव्य आनन्द रूपी अमृत से भर दिया।

उदय हो गये जैसे घर में कोटि-कोटि नीले शरदिन्दु।
देख नंदरानी के उर में उमड़ा दिव्य सुखामृत-सिन्धु।।

कैसी अतुलनीय सुन्दरता ! कैसा सुर-मुनि-मोहन रूप।
कैसी निकल रही सुषमा-आभा नख-सिख से परम अनूप।।

श्रीकृष्ण के एक-एक अंग पर यशोदामाता नाना प्रकार की उपमाओं को याद करने लगीं, पर उस रूप की तुलना में सारी उपमाएँ पराजित हो गयीं।
यथा

नवजलधरवर्णं चम्पकोद्भासिकर्णं,
विकसितनलिनास्यं विस्फुरन्मन्दहास्यम्।
कनकरुचिदुकूलं चारुबर्हावचूलं,
कमपि निखिलसारं नौमि गोपीकुमारम्।।

अर्थात् नवीन मेघ के समान रंग, खिले हुए चम्पा के पुष्प से कान, उठी हुयी नाक, सोने सा पीताम्बर, और ना जाने क्या-क्या, उपमाओं का भी अंत नहीं। ऐसा अपूर्व बालक, जिसकी दिव्य देह से संलग्न होकर आभूषण भी सुन्दर लगने लगते हैं।

नम: पंकजनाभाय नम: पंकजमालिने।
नम: पंकजनेत्राय नमस्ते पंकजाड़्घ्रये।।

आइये सच्चिदानन्दरूपी श्रीकृष्ण का स्वागत निम्न पंक्तियों से करते हैं–

यस्य दर्शनमिच्छन्ति देवा: सर्वार्थसिद्धये।
तस्य ते परमेशान सुस्वागतमिदं वपु:।।

भो भगवन् श्रीकृष्ण स्वागतं सुस्वागतम्।
हे श्रीकृष्ण प्रभो स्वागतं करोमि।।

ध्यान कीजिए आपके सामने श्रीकृष्ण एक छोटे से बालक के रूप में हैं, कमल के समान सुकोमल और विशाल नेत्र, वक्ष:स्थल पर श्रीवत्स और भृगुलता के चिह्न, कानों में झलमलाते हुए कुण्डल जिनकी प्रभा अरूणाभ कपोलों पर पड़ रही है, मुष्टिमेय कटि है–अर्थात् मुट्ठी में आ जाय इतनी कमर है उनकी, करधनी बँधी हुयी है, पाँवों में नूपुर हैं, हाथों में कंगन हैं, गले में बघनखा है, माथे पर तिलक है, सिर पर सुन्दर काले घुँघराले बाल हैं और अपनी मुस्कान से, चितवन से, हमारे मन को अपनी ओर खींच रहे हैं। उनके अंग-अंग से सौन्दर्य की रसधारा बह रही है। क्या इस ध्यान से आपको आनन्द नहीं आ रहा है? भगवान श्रीकृष्ण का अवतार आनन्द-प्रधान अवतार है इसलिए श्रीकृष्ण में आनन्द अधिक प्रकट हुआ है; यही कारण है कि वे लोगों की प्रीति को, आसक्ति को अपनी ओर अधिक खींचते हैं।

इसका सबसे बड़ा उदाहरण है–वृंदावन में लगातार बढ़ती भक्तों की भीड़ और हरे कृष्ण हरे राम आन्दोलन का सारे विश्व में प्रसार।
जिन लोगों को भगवत्प्रेम प्राप्ति की इच्छा हो, उन्हें भगवान के इस मधुर स्वरूप की उपासना श्रीकृष्ण के इन आठ नामों से करनी चाहिए–

श्रीकृष्णाय नम:।
श्रीवासुदेवाय नम:।
श्रीनारायणाय नम:।
श्रीदेवकीनन्दनाय नम:।
श्रीयदुश्रेष्ठाय नम:।
श्रीमाधवाय नम:।
श्रीअसुरक्रान्तभूभारहारिणे नम:।
श्रीधर्मसंस्थापिने नम:।

श्रीकृष्ण के इन आठ नामों का उच्चारण करते हुए नमस्कार करें क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण को एक बार भी किया हुआ प्रणाम दस अश्वमेध यज्ञों के पुण्य के बराबर होता है। इतने पर भी अश्वमेध यज्ञ करने वाले और प्रणाम करने वाले में यह अन्तर है कि यज्ञ करने वाला तो पुण्य भोगकर फिर संसार में जन्म लेता है, किन्तु भगवान श्रीकृष्ण को प्रणाम करने वाला फिर जन्म नहीं लेता; वह जन्म-मरण के बन्धन से छूट जाता है।
श्रीकृष्ण कृपाकटाक्ष स्त्रोत भगवान श्रीकृष्ण की महत्वपूर्ण स्तुतियों में से एक है। इसमें श्रीकृष्ण को नमस्कार का वर्णन इस प्रकार है–
ब्रजमण्डल के भूषण, समस्त पापों का नाश करने वाले तथा सच्चे भक्त के चित्त में विहार कर आनन्द देने वाले नन्दनंदन का मैं भजन करता हूँ। जिनके मस्तक पर मनोहर मोरपंखों के गुच्छे हैं, जिनके हाथों में सुरीली मुरली है तथा जो प्रेमतरंगों के समुद्र हैं, उन नटनागर श्रीकृष्ण भगवान को मेरा नमस्कार है।

shri krishna

कामदेव का गर्वनाश करने वाले, बड़े-बड़े चंचल लोचनों वाले, ग्वाल-बालों का शोक नष्ट करने वाले कमललोचन को मेरा नमस्कार है। करकमल पर गोवर्धन पर्वत धारण करने वाले, मुस्कानयुक्त सुन्दर चितवन वाले, इन्द्र का मान-मर्दन करने वाले, गजराज के सदृश्य मत्त श्रीकृष्ण भगवान को मेरा नमस्कार है।

कदम्ब पुष्पों के कुण्डल धारण करने वाले, अत्यन्त सुन्दर गोल कपोलों वाले, ब्रजांगनाओं के लिए ऐसे परम दुर्लभ श्रीकृष्ण भगवान को मेरा नमस्कार है। ग्बाल-बाल और श्रीनंदबाबा के सहित मोदमयी यशोदा को आनंद देने वाले श्रीगोपनायक को मेरा नमस्कार है।
मेरे हृदय में सदा अपने चरणकमलों को स्थापन करने वाले, सुन्दर घुंघराली अलकों वाले नंदलाल को मैं नमस्कार करता हूँ। समस्त दोषों को भस्म कर देने वाले, समस्त लोकों का पालन करने वाले, समस्त गोपकुमारों के हृदय तथा श्रीनंदबाबा की वात्सल्य लालसा के आधार श्रीकृष्ण को मेरा नमस्कार है।

भूमि का भार उतारने वाले, भवसागर से तारने वाले कर्णधार, श्रीयशोदाकिशोर चित्तचोर को मेरा नमस्कार है। कमनीय कटाक्ष चलाने की कला में प्रवीण, सर्वदा दिव्य सखियों से सेवित, नित्य नये-नये प्रतीत होने वाले नन्दलाल को मेरा नमस्कार है।
गुणों की खान और आनन्द के निधान, कृपा करने वाले तथा कृपा पर भी कृपा करने वाले, देवताओं के शत्रु दैत्यों का नाश करने वाले गोपनंदन को मेरा नमस्कार है। गोप सखाओं के संग नवीन खेल खेलने के लिए लालायित, घनश्याम अंग वाले, बिजली के समान सुन्दर पीताम्बरधारी श्रीकृष्ण भगवान को मेरा नमस्कार है।

समस्त गोपों को आनन्दित करने वाले, हृदयकमल को प्रफुल्लित करने वाले, निकुँज वन के बीच विराजमान प्रसन्नमन, सूर्य के समान प्रकाशमान श्रीकृष्ण भगवान को मेरा नमस्कार है। सम्पूर्ण अभिलाषित कामनाओं को पूर्ण करने वाले, वाणों के समान चोट करने वाली चितवन वाले, मधुर मुरली की तान छेड़ने वाले, निकुँजनायक श्रीकृष्ण को मेरा नमस्कार है।
गोपियों के मन-मस्तिष्क में बसने वाले, निकुँजवन में गोपियों के विरह को दूर करने वाले, श्रीराधिकाजी की अंगकान्ति से जिनके अंग शोभायमान हैं, श्रीराधाजी के साथ विहार करने वाले, गजेन्द्र को मोक्ष देने वाले श्रीकृष्ण भगवान को मेरा नमस्कार है।

नमस्ते कमलाकान्त नमस्ते सुखदायिने।
श्रितार्तिनाशिने तुभ्यं भूयो भूयो नमो नम:।। (स्कन्दपुराण)

कमलाकान्त ! आपको नमस्कार है। सबको सुख देने वाले आपको नमस्कार है। भगवन् ! आप शरणागतों की पीड़ा का नाश करने वाले हैं। आपको बारम्बार नमस्कार है।

अब मन कृष्ण कृष्ण कहि लीजे।
कृष्ण कृष्ण कहि कहिके जग में साधु समागम कीजे।।

कृष्ण नाम की माला लैके कृष्ण नाम चित्त दीजे।
कृष्ण नाम अमृत रस रसना तृषावंत हो पीजे।।

कृष्ण नाम है सार जगत में, कृष्ण हेतु तन छीजे।
रूपकुँवरि धरि ध्यान कृष्ण को कृष्ण कृष्ण कहि लीजे।।

मनुष्य जीवन की सार्थकता है शीघ्रातिशीघ्र श्रीकृष्ण प्रेम की प्राप्ति कर उनमें एकाकार हो जाना। वे बाँहें फैलाये हैं; बस उनकी ओर दौड़ पड़ना है; हमें उनकी गोद में सिमट जाना है। इसलिए उपनिषद् कहते हैं–उठो, जागो और अपना अभीष्ट प्राप्त करो। भगवत्प्रेम ही तुम्हारा अभीष्ट है। इसके लिए अवसर चूको मत। कल की प्रतीक्षा मत करो। इसी क्षण से श्रीकृष्ण प्राप्ति की साधना में लग जाओ।

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