krishna arjun bhagvad gita

जैसे कठपुतली के नाच में कठपुतली और उसका नाच तो दर्शकों को दिखायी देता है परन्तु कठपुतलियों को नचाने वाला सूत्रधार पर्दे के पीछे रहता है, जिसे दर्शक देख नहीं पाते; उसी प्रकार यह संसार तो दिखता है किन्तु इस संसार का सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता और संहारकर्ता भगवान दिखायी नहीं देता है; इसीलिए मनुष्य स्वयं को ही कर्ता मानकर अहंकार में रहता है । परन्तु यह विराट् विश्व परमात्मा की लीला का रंगमंच है । विश्व रंगमंच पर हम सब कठपुतली की तरह अपना पात्र अदा कर रहे हैं ।

करी गोपाल की सब होय ।
जो अपनों पुरुसारथ मानत अति झूठों है सोय ।
साधन मंत्र यंत्र उद्यम बल, यह सब डारहु धोय ।
जो लिख राखि नंदनन्दन नें मेट सकैं नहिं कोय ।
दु:ख सुख लाभ अलाभ समुझि तुम कतहिं मरत हौं रोय ।
सूरदास स्वामी करुणामय श्याम चरन मन मोय ।।

भगवान की इस लीला में कुछ भी अनहोनी बात नहीं होती । जो कुछ होता है, वही होता है जो होना है और वह सब भगवान की शक्ति ही करती है । और जो होता है मनुष्य के लिए वही मंगलकारी है ।

जो कुछ होता है भगवान की इच्छा से होता है : कथा

महाभारत में एक कथा है—

गौतमी नाम की एक ब्राह्मणी था । उसके लड़के को काले साँप ने डस लिया । वह साँप इतना विषैला था कि डसते ही लड़के की मृत्यु हो गई । वहां अर्जुन नाम का एक व्याध (बहेलिया) था । उसने साँप को पकड़ लिया और ब्राह्मणी से बोला—‘यदि तुम हुक्म दो तो मैं इसे मार डालूँ, इसने बिना किसी अपराध के लड़के को मार डाला है, यह मैं बर्दाश्त नहीं करुंगा ।’ 

ब्राह्मणी ने कहा—‘इसको मारने से मुझे क्या लाभ होगा, इसे मत मारो ।’

पर व्याध साँप को मारने लगा तो साँप ने व्याध से कहा—‘भाई ! तू मुझको क्यों मारता है, मृत्यु ने मुझको प्रेरणा दी; इसलिए मैंने लड़के को मार डाला । दोष तो मृत्यु का है, मेरा कोई दोष नहीं है ।’

उसी समय मृत्यु देवता वहां प्रकट हो गए और कहने लगे—‘इसमें न तो इस साँप का दोष है और न मेरा ही दोष है, इस लड़के का काल आ गया । इसकी आयु समाप्त हो गई तो काल ने मुझे प्रेरणा दी; इसलिए मैंने इसे मार डाला ।’

तभी वहां काल देवता प्रकट हो गये । काल ने कहा—‘न तो इस साँप का दोष है, न मृत्यु का और न मेरा ही दोष है । हम तीनों ही निर्दोष हैं । इसके पूर्व के कर्म ही ऐसे थे । इसके पूर्व के कर्मों के अनुसार ही इसका प्रारब्ध बना । उस प्रारब्ध ने मुझको प्रेरणा की और मैंने मृत्यु को प्रेरणा की । मृत्यु ने साँप को प्रेरणा की; इसलिए साँप, मृत्यु और मैं—तीनों ही निर्दोष हैं, इसके कर्म ही ऐसे थे, हम तीनों तो निमित्त बन गए ।’

ऐसा कहकर काल और मृत्यु देवता अंतर्ध्यान हो गए । ब्राह्मणी के कहने पर व्याध ने साँप को छोड़ दिया ।

कथा का सार

इस कथा का सार है कि—वास्तव में हमारे साथ जो बुरा होता है, उसका कारण हमारे पहले के किए हुए पाप ही होते हैं । हमारे कर्मों से प्रारब्ध बनता है और जो कुछ होता है, प्रारब्ध से होता है । प्रारब्ध के बनाने वाले हैं भगवान अर्थात् प्रारब्ध का नाम है भगवान का विधान । ज्ञानी लोग उसे प्रारब्ध कहते हैं और भक्त उसे भगवान का विधान या भगवान की इच्छा या उनका आदेश मानते हैं । जो कुछ होता है भगवान के विधान से ही होता है; इसलिए हमारे मन के विपरीत कोई कार्य हो तो उसमें मनुष्य को आनंद मानकर प्रसन्नचित्त रहना चाहिए ।

भगवान राम जब वन को चले गए तो माता कौसल्या ने न तो कैकेयी को दोष दिया और न ही मंथरा को । उन्होंने कहा कि यह तो मेरे दुर्भाग्य की बात है, मेरी तकदीर की बात है । तकदीर तो भगवान ने ही बनाई है । इसीलिए कहा गया है—

प्रारब्ध पहले रचा पीछे रचा शरीर ।
तुलसी चिंता क्यों करे भज ले श्रीरघुवीर ।।

भगवान जिसकी रक्षा करें, उसको कोई मार नहीं सकता, चाहे सारी दुनिया के लोग दुश्मन हो जाएं—

जाको राखै साइयाँ मार सकै न कोय ।
बाल न बाँका कर सके जो जग बैरी होय ।।

इसलिए जो कुछ हमारा अनिष्ट होता है, वह तो हमारे प्रारब्ध से ही होता है और हम दोष दूसरों पर मढ़ते हैं । जो कुछ भी अनिच्छा से मिले, उसमें यही मानना चाहिए कि भगवान कर रहे हैं या किसी को निमित्त बना कर करवा रहे हैं । जैसे अर्जुन को निमित्त बना करके भगवान श्रीकृष्ण ने कौरवों की सेना का नाश कर दिया किंतु वास्तव में भगवान के द्वारा वह सेना पहले से ही मारी गई थी, अर्जुन तो केवल निमित्त बन गए ।

भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से गीता में कहा–’तुम कौन करने वाले हो, उस पर भी अभिमान करते हो कि युद्ध नहीं करुंगा, लड़ूंगा नहीं । मैंने इन सबको पहले से ही मार रखा है । देखना हो तो देख ले मेरी दाढ़ों में ।’ 

भगवान ने अर्जुन को अपना परम ऐश्वर्ययुक्त विराट-स्वरूप दिखाया, जिसमें भगवान के भयानक मुखों में धृतराष्ट्र के सभी पुत्र, विभिन्न देशों के राजा, भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य तथा कर्ण आदि सब-के-सब शूरवीर योद्धा दौड़ते हुए प्रवेश कर रहे हैं और उनके चूर्ण-विचूर्ण हुए अंग भगवान के दांतों के बीच में लगे हुए हैं (गीता ११।२६-२७)।

भगवान श्रीकृष्ण ने यहां अर्जुन को यह भाव दिखलाया है कि तुम्हारे युद्ध न करने पर भी ये सब बचेंगे नहीं, मरेंगे तो सही ही । तुम्हारा तो केवल नाम भर होगा, सब-के-सब मेरे द्वारा पहले ही से मारे हुए हैं। तुम कौन मारने वाले और तुम कौन न मारने वाले? 

भगवान जो कुछ करते हैं हमारे भले के लिए ही करते हैं । इसमें भगवान को भी दोष नहीं देना चाहिए; क्योंकि वे हमारे ऊपर दया करके हमारे पाप का फल भुगताते हैं और हमें पापमुक्त करते हैं ।

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