Bhagwan Jagannath

भगवान जगन्नाथ साक्षात् श्रीकृष्ण हैं

युग बीते संसार में पांचों तत्त्व समान।
कभी न बदले प्रकृति और न श्रीभगवान।।

सबकुछ बदलने के बाद भी ईश्वर जो सतयुग, त्रेता और द्वापर में था, वही ईश्वर आज कलियुग में भी विद्यमान है। वह तीनों कालों में सत्य है तथा उसकी प्रकृति भी। भक्तों के लिए कई बार अनेक रूप धारणकर उन्हें इस संसार में आना पड़ता है।

त्रेतायुग में रामावतार में भगवान श्रीराम ने बालि का वध किया। पिता के निधन से बालिपुत्र अंगद को दु:खी देकर भगवान श्रीराम ने कहा–’मैं तेरा अपराधी हूँ। तुम द्वापरयुग में कृष्णावतार में मुझे दण्ड देना। कृष्णावतार में तुम शवर वंश में जन्म लोगे और शापग्रस्त बाण से मेरे चरण में प्रहार करोगे।’ यह अंगद ही कृष्णावतार में जरा व्याध बना जिसने प्रभास क्षेत्र में मृग के संदेह में जो बाण मारा वह भगवान श्रीकृष्ण के चरण में लगा और भगवान नित्यलीला में प्रविष्ट हो गए। जरा व्याध ने इन्द्रप्रस्थ जाकर पांडवों को भगवान के परलोकगमन की सूचना दी।

अर्जुन सहित पांडवों ने वहां आकर भगवान के दर्शन किए। उसके बाद द्वारकापुरी समुद्र में डूब गयी। विलाप करता हुआ अर्जुन समुद्र के जल में घुसा तो उसे भगवान की पवित्र इन्द्रनीलमणि प्राप्त हुई, जिसे लेकर पांडवों ने श्राद्ध किया। बाद में समुद्रजल से प्राप्त वस्तु को समुद्र के जल में ही विसर्जित कर दिया। भगवान की लीला से वह इन्द्रनीलमणि पश्चिम समुद्र से बहकर पूर्वी समुद्र के किनारे पुरुषोत्तम क्षेत्र (जगन्नाथपुरी) में पहुंच गई। वहां जरा व्याध के वंशज विश्वावसु वैष्णव ने श्रीकृष्णदेह से निकली उस इन्द्रनीलमणि को प्राप्त कर गुप्त रूप से कन्दरा में स्थापित कर दिया और अपने परिवार के साथ उसकी पूजा करने लगा। इस विग्रह का नाम उसने नीलमाधव रखा।

श्रीजगन्नाथ विग्रह यही श्रीकृष्णतेज से उत्पन्न इन्द्रनीलमणि विग्रह है। अत: साक्षात् वासुदेव कृष्ण हैं। हरेक 12 वर्ष के बाद भगवान जगन्नाथ नवकलेवर धारण करते हैं, तब भगवान जगन्नाथ की दारुमूर्ति के अंदर कृष्णसत्ता पूजन के रूप इन्द्रनीलमणि मूर्ति प्रतिष्ठित की जाती है।

श्रीगोपालसहस्त्रनाम में भगवान श्रीकृष्ण का एक नाम ‘जगन्नाथ’ दिया गया है।

जगन्नाथ स्वयं कृष्ण: सच्चिदानन्द विग्रह:।
भक्तानां पावनं साक्षात् कलि कल्मष हारक:।। (इन्द्रनीलमणि पुराण, २।३४)

अर्थात्–भगवान जगन्नाथ साक्षात् सच्चिदानन्द कृष्णरूप हैं। भक्तों को पावन करने वाले व कलियुग के कल्मष दूर करने वाले हैं।

भगवान जगन्नाथ का व्रज से अटूट सम्बन्ध

भगवान जगन्नाथ का व्रज से अटूट सम्बन्ध है। एक बार द्वारका में भगवान श्रीकृष्ण रात्रि में सोते समय ‘हा राधे! हा राधे!’ कहकर क्रन्दन करने लगे। रुक्मिणी आदि रानियों ने सुबह जब उनसे रात्रि में सोते समय इस प्रकार क्रंदन करने का कारण पूछा तो भगवान ने ‘मुझे तो कुछ याद नहीं’–ऐसा कहकर बात टाल दी। सभी रानियां आपस में कहने लगीं–’हम सब सोलह हजार रानियां कुल, शील, रूप, गुण में किसी से कम नहीं हैं फिर भी हमारे प्राणबल्लभ श्रीकृष्ण राधा नाम की गोपकन्या में इतने आसक्त क्यों हैं? माता रोहिणी चूंकि व्रज में उनके साथ रही हैं अत: उनसे पूछने पर इसका सही कारण पता चल जाएगा।’

दूसरे दिन रुक्मिणी आदि पटरानियों व अन्य रानियों ने माता रोहिणी से प्रार्थना की कि वे द्वारकानाथ की व्रजलीला और गोपी-प्रेम की कथा सुनाएं। माता रोहिणीजी ने सुभद्राजी को द्वार पर नियुक्त कर दिया और आज्ञा दी कि किसी भी पुरुष का प्रवेश आज अन्त:पुर में निषिद्ध है, चाहें वह स्वयं श्रीकृष्ण ही क्यों न हों?

द्वार बन्द करके वे रानियों को भगवान श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों के अलौकिक प्रेम की कथा सुनाने लगीं।

जैसे ही रोहिणीजी ने व्रज की माधुर्यलीला का वर्णन शुरु किया, राजसभा में बैठे श्रीकृष्ण-बलराम दोनों भाई चंचल हो उठे और वहां से चलकर भगवान श्रीकृष्ण बलरामजी के साथ अंत:पुर में आ गए। उस समय श्रीकृष्ण-बलराम को अंत:पुर में देखकर सुभद्राजी ने उनसे इस समय आने का कारण पूछा तो भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा–

‘व्रजलीला कथा का ऐसा प्रभाव है कि हम जहां कभी भी और जिस किसी भी अवस्था में हों, वह हमें वहीं से आकर्षित करके कथास्थल पर खींच लाता है।’

सुभद्राजी ने उन्हें द्वार पर ही रोक दिया, लेकिन द्वार पर खड़े-ही-खड़े उन्होंने रोहिणीजी द्वारा सुनाई जा रही अपनी व्रज की मंगलमयी रासविहार की कथाओं को सुना तो उससे दोनों भाई प्रेमानन्द में विह्वल हो गए और आंखों से प्रेमाश्रु बहकर गले व वक्षस्थल तक को भिगौने लगे। उन्हें देखकर सुभद्राजी को भी महाभावास्था  (प्रेम की चरम अवस्था) प्राप्त हो गयी और उन तीनों भाई-बहिनों के शरीर ऐसे द्रवित होने लगे जैसे मोम की प्रतिमाएं पिघल जाती हैं। उनके नेत्रों के स्थान पर सिर्फ नेत्रगोलक ही रह गए। हाथ-पैरों के पंजे लुप्त हो गए। मुंह, नासिका के छिद्र आदि अदृश्य हो गए–

स्व चरितम् स्मर स्मर दारुभूतो मुरारि

अर्थात् अपनी व्रज-प्रेम की रसमयी लीलाओं को सुनकर प्रेम के वशीभूत वे काष्ठ की तरह जड़वत् हो गए–निश्चल, स्पन्दनरहित। भगवान श्रीकृष्ण के आयुध श्रीसुदर्शनजी भी पिघलकर लम्बे आकार के हो गए।

उसी समय देवर्षि नारद भगवान के दर्शन के लिए द्वारकाधाम में पधारे। देवर्षि नारद की तो सब जगह अबाधगति है। अत: जब वे अंत:पुर में पहुंचे और वहां उन्होंने भगवान के अद्भुत स्वरूप के दर्शन किए तो कुछ क्षण के लिए वे भी स्तभित रह गए। नारदजी ने श्रीकृष्ण-बलराम-सुभद्रा के प्रेम से द्रवित अंगों को देखा तो संसार के कल्याण के लिए भगवान से प्रेमरूप स्वरूप में ही रहने की प्रार्थना की। भगवान ने वरदान देते हुए कहा–’कलियुग में हम इसी रूप में रहेंगे।’

यही स्वरूप है भगवान जगन्नाथ का जो पुरी में विराजमान हैं।

कलियुग और भगवान जगन्नाथ

सतयुग में उपासना का क्षेत्र बद्रीनाथधाम, त्रेता में रामेश्वरम्, द्वापर में द्वारकापुरी और कलियुग में जगन्नाथपुरी है। यहां पुरुषोत्तम भगवान निवास करते हैं इसलिए इसे ‘पुरुषोत्तम क्षेत्र’ भी कहते हैं। कलियुग में भगवान जगन्नाथ और उनकी पुरी की उपासना का बड़ा माहात्म्य है।

भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा के पावन अवसर पर दो पंक्तियां

जय श्रीजगन्नाथ हरि देवा।
रथ बैठे प्रभु अधिक विराजत, करै जगत सब सेवा।।

रथ के ऊपर जगन्नाथजी के दर्शन कर चैतन्य महाप्रभु के मन में गोपीभाव जाग्रत हो जाता था। वे स्वयं को गोपी मानकर रथ पर बैठे जगन्नाथजी को श्रीकृष्ण समझकर नृत्य करते हुए भावविभोर हो जाते और रथ की रस्सी खींचते हुए बाह्य चेतना खोकर बेसुध हो जाते थे। चारों ओर वातावरण में एक ही स्वरलहरी सुनाई पड़ती है–

देखौ री सखि! आजु नैन भरि,
हरि के रथ की सोभा।

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