भगवान सूर्य प्रत्यक्ष देवता हैं । आदित्य लोक में भगवान सूर्य साकार रूप से विद्यमान हैं । वे रक्त कमल पर विराजमान हैं, उनका वर्ण हिरण्यमय है । उनकी चार भुजाएं हैं, जिनमें दो हाथों में वे पद्म धारण किए हुए हैं और दो हाथ अभय तथा वर मुद्रा से सुशोभित हैं । वे सात घोड़ों के रथ पर सवार हैं और गरुड़ के छोटे भाई अरुण उनके रथ के सारथि हैं ।
भगवान सूर्य का परिवार
देवताओं के शिल्पी (बढ़ई) विश्वकर्मा (त्वष्टा) की पुत्री संज्ञा बड़ी ही रूपवती थी । उसके अन्य नाम हैं—राज्ञी, द्यौ, त्वष्ट्री, प्रभा तथा सुरेणु । संज्ञा का विवाह भगवान सूर्य के साथ हुआ । संज्ञा बड़ी पतिव्रता थी, किन्तु सूर्य देव मानव रूप में उसके समीप नहीं जाते थे । सूर्य के अत्यधिक तेज के कारण संज्ञा की आंखें मूंद जाती थीं जिससे वह सूर्य का सुन्दर स्वरूप नहीं देख पाती थी । अत: संज्ञा को अच्छा नहीं लगता था । वह व्याकुल होकर सोचने लगी—मेरा सुवर्ण सा रंग व कमनीय शरीर इनके तेज से दग्ध होकर श्याम वर्ण का हो गया है । इनके साथ मेरा निर्वाह होना बहुत कठिन है । तपस्या करने से मुझमें वह शक्ति आ सकती है, जिससे मैं उनके सुन्दर रूप को अच्छी तरह से देख सकूं ।
उसी स्थिति में संज्ञा से सूर्य की तीन संतानें—वैवस्वत मनु, यम, व यमी (यमुना) हुईं; किन्तु सूर्य के तेज को न सह सकने के कारण अपने ही रूप-आकृति तथा वर्ण वाली अपनी ‘छाया’ को पति-सेवा में नियुक्त कर वह अपने पिता के घर चली गयी ।
जब पिता ने उसे पति-गृह जाने के लिए कहा तो वह ‘उत्तरकुरु’ (हरियाणा) देश चली गयी । अपने सतीत्व की रक्षा के लिए उसने वडवा (मन के समान गति वाली घोड़ी, अश्विनी) का रूप धारण कर लिया और अपनी शक्ति वृद्धि के लिए कठोर तपस्या करने लगी ।
सूर्य के समीप संज्ञा के रूप में उसकी छाया निवास करती थी । छाया का दूसरा नाम विक्षुभा है । उसके सभी अंग, बोल-चाल, आकृति संज्ञा जैसे ही थे, इसलिए सूर्य देव को यह रहस्य ज्ञात नहीं हो पाया । सूर्य ने भी छाया को ही अपनी पत्नी समझा और उससे उन्हें चार संतानें—सावर्णि मनु, शनि, तपती तथा विष्टि (भद्रा) हुईं ।
परिवार में विषमता ही कलह का बीज है
छाया अपनी संतानों को अधिक प्यार करती थी और वैवस्वत मनु, यम तथा यमी का निरन्तर तिरस्कार करती रहती थी । इस अपमान को संज्ञा के ज्येष्ठ पुत्र वैवस्वत मनु ने तो सहन कर लिया किन्तु उसके छोटे पुत्र यम (धर्मराज) सहन नहीं कर सके । यह विषमता अंत में इतनी बढ़ी कि उसने विवाद का रूप धारण कर लिया ।
संतानों के साथ छाया के विषमतापूर्ण व्यवहार का भंडाफोड़
विधाता का विधान तो देखें, बहुत जल्दी छाया के विषमतापूर्ण व्यवहार का भंडाफोड़ हो गया । एक दिन यमुना और तपती में विवाद हो गया । एक-दूसरे को शाप देकर वे नदी बन गईं । इस पर छाया ने यम को ताडित किया । दु:खी होकर यम (धर्मराज) ने छाया पर पैर उठाया, जिस पर छाया ने उसे शाप देते हुए कहा—
‘तुमने मेरे ऊपर चरण उठाया है, इसलिए यदि तुम मेरे शाप से कलुषित अपने पैर को पृथ्वी पर रखोगे तो कृमि उसे खा जाएंगें । तुम शीघ्र ही प्रेतों के राजा होओगे । तुम्हारा प्राणियों के प्राणों की हिंसा करने का वीभत्स कर्म तब तक रहेगा, जब तक सूर्य और चन्द्र रहेंगे ।’
छाया के शाप से विह्वल होकर यमराज ने अपने पिता सूर्य से कहा—‘यह हम लोगों की माता नहीं हो सकती, क्योंकि एक तो वह निरंतर हमें तिरस्कृत करती है, यमी को मारती भी है, वहीं दूसरी ओर सावर्णि मनु, शनि, तपती व विष्टि को अधिक प्यार करती है । यह हम सभी भाई-बहनों में समान दृष्टि और समान व्यवहार नहीं रखती है । मेरे द्वारा दु:खी होकर पैर उठाने पर उसने उसे गिर जाने का शाप दे दिया, एक माता का अपने बच्चों को ऐसे शाप देना कभी संभव नहीं है । संतान माता का कितना भी अनिष्ट करे, किन्तु वह अपनी संतान को कभी शाप नहीं दे सकती है ।’ ‘पुत्र कुपुत्र हो सकता है, माता कुमाता नहीं होती है ।’
भगवान सूर्य ने क्रुद्ध होकर छाया से कहा कि ‘यह तुम्हारे लिए उचित नहीं है कि अपनी संतानों में कुछ से प्रेम करो और कुछ से द्वेष । माता के लिए तो सभी संतानें समान होनी चाहिए ।’
भगवान सूर्य यम को मिले शाप से दु:खी हुए । उन्होंने अपने तेजोबल से इसका सुधार किया जिसके बल पर आज यम धर्मराज के रूप में पाप-पुण्य का निर्णय करते हैं और स्वर्ग में उनकी प्रतिष्ठा है ।
भगवान सूर्य ने यम से कहा—‘सभी पापों का निदान है, किंतु माता का शाप कभी अन्यथा नहीं जाता । मैं तुम्हें एक उपाय बताता हूँ । तुम दु:खी न होओ, तुम्हारा पैर नहीं गलेगा; केवल इसके लघु कण के बराबर मांस और रुधिर लेकर कृमिगण पृथ्वी पर चले जाएं तो इससे माता का शाप भी सत्य होगा और तुम्हारे पैर की भी रक्षा हो जाएगी । ब्रह्माजी की आज्ञा से तुम लोकपाल पद को प्राप्त होओगे । तुम्हारी बहिन यमुना का जल गंगाजल के समान पवित्र होगा और तपती का जल नर्मदा जल के समान पवित्र माना जाएगा । आज से छाया सब देहों में अवस्थित होगी ।’
कुपित सूर्य छाया के पास पहुंचे और उसके केश पकड़ कर पूछा—‘सच-सच बता, तू कौन है ? कोई भी माता अपने पुत्र के साथ ऐसा निम्न कोटि का व्यवहार नहीं कर सकती ।’ यह सुन कर भयभीत छाया ने सूर्य के सामने सारा रहस्य प्रकट कर दिया ।
छाया के प्रति क्रोध के कारण उसके पुत्र शनि को शाप देते हुए सूर्य देव ने कहा—‘माता के दोष से तुम्हारी दृष्टि में क्रूरता भरी रहेगी ।’ यही कारण है कि शनि के कोपभाजन होने से प्राय: हमारा अहित होता रहता है ।
शीघ्र ही सूर्य संज्ञा को खोजते हुए उसके पिता विश्वकर्मा के घर पहुंचे । वे जानना चाहते थे कि मेरी प्रियतमा उन्हें छोड़ कर तप क्यों कर रही है ?
विश्वकर्मा ने सूर्य को संज्ञा के उनका तेज न सहन करने और उत्तरकुरु नामक स्थान पर तपस्या करने की बात बताई । साथ ही कहा कि यदि आप चाहें तो आपके प्रकाश को तराश कर कम किया जा सकता है । भगवान सूर्य अपनी पत्नी की प्रसन्नता के लिए कष्ट सहने को तैयार हो गए ।
विश्वकर्मा ने सूर्य की इच्छा पर उनके तेज को व्रज की सान पर खराद कर कम कर दिया । सूर्य देव की एक हजार किरणें शेष रह गईं, बाकी सब छांट दी गयीं, जिससे उनका रूप बहुत कुछ सौम्य बन गया ।
भगवान सूर्य ने भी अपना उत्तम रूप प्राप्त कर प्रसन्न मन से अपनी भार्या के दर्शनों की उत्कण्ठा से तत्काल उत्तरकुरु की ओर प्रस्थान किया । वहां उन्होंने देखा कि वह घोड़ी (अश्विनी) का रूप धारण कर विचरण कर रही है । भगवान सूर्य अश्व का रूप धारण कर संज्ञा से मिले । बेचारी अश्विनी घबरा गई कि किसी पर-पुरुष ने मेरा स्पर्श न कर लिया हो !
अश्वा रूपी संज्ञा ने अश्व रूपी सूर्य को पर-पुरुष जान कर उनका तेज दोनों नासापुटों से बाहर फेंक दिया, जिससे दोनों अश्विनीकुमारों की उत्पत्ति हुई, जो देवताओं के वैद्य हुए । सूर्य के तेज के अंतिम अंश से रेवन्त नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जो गुह्यकों और अश्वों के अधिपति रूप में प्रतिष्ठित हुए ।
इसके बाद भगवान सूर्य ने अपना वास्तविक रूप धारण किया । उस रूप को देखकर संज्ञा अत्यंत प्रसन्न हुई । तब कहीं जाकर सूर्य और संज्ञा एक साथ रहने लगे ।
सूर्य देव के परिवार की कथा से शिक्षा
विषमता अच्छी नहीं होती । भगवान छोटे-बड़े सब में समान रूप से विद्यमान हैं । अत: सदा सम व्यवहार करना चाहिए । यही ‘साम्य योग’ है ।
भगवान सूर्य को सप्तमी तिथि अत्यंत प्रिय क्यों है ?
सूर्य देव को अपनी भार्या संज्ञा सप्तमी तिथि के दिन प्राप्त हुई, उन्हें दिव्य रूप सप्तमी तिथि को ही मिला तथा संतानें (अश्विनीकुमार और रेवन्त) भी इसी तिथि को प्राप्त हुईं थीं, इसलिए भगवान सूर्य को सप्तमी तिथि बहुत प्रिय है ।
भगवान सूर्य की संतानें
वैवस्वत मनु—जो इस सृष्टि के सर्वप्रथम शासक माने जाते हैं । इन्हीं के द्वारा एक नियम-विधि ग्रंथ की रचना की गई जिसे ‘मनुस्मृति’ के नाम से जाना जाता है । इन्हीं मनु से इक्ष्वाकु वंश की उत्पत्ति हुई ।
यम—धर्मराज कहलाते हैं ।
यमी—यमुना नदी बन कर प्रवाहित हुईं ।
सावर्णि मनु—ये आठवें मनु होंगे । ये मेरु पर्वत पर तपस्या कर रहे हैं ।
शनि—एक ग्रह बन गए ।
तपती—नदी बन गईं जिसमें स्नान करने पर बहुत पुण्य प्राप्त होता है ।
विष्टि—जो भद्रा के नाम से जानी जाती है ।
दोनों अश्विनीकुमार—ये देवताओं के वैद्य हैं, जिनकी विद्या से वैद्यगण पृथ्वी पर अपना जीवन-निर्वाह करते हैं ।
रेवन्त—ये अश्वों के स्वामी हैं । यात्रा पर जाने से पहले रेवन्त की पूजा करने से यात्रा में कोई क्लेश नहीं होता है ।