shri krishna bhagwan gaulok dham bhakti

‘भगवान श्रीकृष्ण द्वारा लीला संवरण’ का अभिप्राय है—श्रीकृष्णावतार की लीला को समेटना या समाप्त करना । लोग भगवान के प्रकट और अन्तर्ध्यान होने को मनुष्यों के जन्म और मरण के समान समझते हैं । भगवान का मनुष्य के समान जन्म लेना, लीला करना और फिर उसे संवरण कर लेना उनकी माया का खेल मात्र है । 

भगवान का स्वधाम गमन (गोलोक गमन) उनका अन्तर्धान होना है, न कि मनुष्य शरीर की भांति मृत्यु को प्राप्त होना । भगवान ने गीता में कहा है कि जब मैं अपने सगुण रूप (अवतार) से अंतर्ध्यान होता हूँ तो मूर्खलोग जो मेरे अविनाशी तत्त्व को नहीं जानते, उन्हें लगता है कि मैं मृत्यु (विनाश) को प्राप्त हुआ हूँ; जबकि मैं अन्तर्ध्यान होकर अपने परमधाम को चला जाता हूँ । 

भगवान श्रीकृष्ण ने जिस देह से भारतवर्ष में १२५ वर्ष तक लीलाएं कीं, वह देह भी अंत में नहीं मिली । वे उसी लीला-शरीर से स्वधाम पधार गए । इसके बाद जब-जब भक्तों ने इच्छा की, तब-तब उसी श्यामसुन्दर शरीर से उन्होंने प्रकट होकर उन्हें दर्शन देकर कृतार्थ किया । यदि उनकी देह का विनाश हो गया होता तो परम धाम पधारने के बाद इस प्रकार पुन: प्रकट कैसे हो सकते थे ? मनुष्य की आयु तो कर्मों के अनुसार सीमित होती है, पर भगवान की आयु सीमित नहीं होती; वे अपनी इच्छानुसार जितने दिन पृथ्वी पर प्रकट रहना चाहें, रह सकते हैं । 

भगवान श्रीकृष्ण का लीला संवरण

भगवान श्रीकृष्ण इस पृथ्वी पर जब अपनी लीला का संवरण करते हैं, तब वे सबको विदा कर अंत में स्वधाम गमन करते हैं । सबसे पहले भगवान श्रीकृष्ण उद्धवजी को भागवत-धर्म समझाते हैं और उन्हें अपनी चरण-पादुका देकर कहते हैं—‘जाओ उद्धव ! बदरिकाश्रम जाकर नर-नारायण के साहचर्य में भागवत-भाव जगाओ ।’

भगवान श्रीकृष्ण द्वारा श्रीराधा और व्रजवासियों को गोलोक भेजना

जिस स्थान पर ब्राह्मण-पत्नियों ने श्रीकृष्ण को अन्नदान देकर तृप्त किया था, उसी स्थान पर भाण्डीरवन में वटवृक्ष के नीचे भगवान श्रीकृष्ण द्वारकापुरी से आकर विराजमान हुए । उनके वामभाग में श्रीराधा विराजित हुईं  । दायीं ओर नन्द-यशोदा हैं और उनकी दायीं ओर वृषभानु और कीर्तिकुमारी (श्रीराधा के माता-पिता) ने आसन ग्रहण किया । इन सब को घेर कर असंख्य गोप-गोपियां, भाई-बन्धु व मित्र खड़े हैं । भगवान सबको उपदेश करते हैं कि संसार में सभी दिखाई देने वाली वस्तुएं पानी के बुलबुले की तरह भ्रम रूप हैं । केवल मुझ परमब्रह्म का ध्यान करके तुम परम पद को प्राप्त करो । अब आगे सबको दु:ख देने वाला घोर कलियुग आएगा; इसलिए जरा (बुढ़ापा) और मृत्यु को हर लेने वाले मेरे उत्तम लोक गोलोक को तुम लोग चले जाओ ।

इसी समय आकाश से एक अत्यंत दिव्य रथ नीचे उतरता है; जो कि इन्द्रसार रत्न से बना स्फटिक के रंग वाला है । यह रथ चार योजन विस्तृत और पांच योजन ऊंचा है; जिसमें दो सहस्त्र पहिए व दो सहस्त्र अश्व जुते हुए हैं । इस रथ के शिखर पर रत्नकलश लगा है । रथ हीरे की मालाओं व कभी न मुरझाने वाले पारिजात पुष्पों से सजा है और उनमें अनगिनत कौस्तुभ मणियां पिरोई हुईं हैं । रथ में अनेक मंदिर (कक्ष) बने हैं जो दिव्य वस्त्र से आच्छादित हैं और उनमें मणिमय दीप जल रहे हैं । 

रथ के आने पर भगवान श्रीकृष्ण संकेत करते हैं तो श्रीराधा उठकर रथ पर चढ़ जाती हैं । फिर असंख्य व्रजवासी भी रथ पर बैठ जाते हैं । देखते-ही-देखते वह रथ गोलोकधाम की यात्रा पर चल पड़ता है और कुछ ही देर में अंतर्ध्यान हो जाता है ।

इस प्रकार कृष्णावतार में गोलोकधाम से लीला के लिए अवतरित हुए सभी गोलोकवासियों के साथ श्रीराधा वापिस गोलोकधाम पधार जाती हैं ।

भगवान श्रीकृष्ण का स्वधाम गमन

अब प्रभासक्षेत्र की महायात्रा शुरु हुई । ‘यादवकुल पृथ्वी पर रहेगा तो वह बलोन्मत्त होकर अधर्म करेगा’—भगवान श्रीकृष्ण को यह बात मंजूर नहीं थी; ऋषियों का शाप तो निमित्त बना । भगवान श्रीकृष्ण ने सुधर्मा सभा में सभी यदुवंशियों से कहा—‘द्वारका में बड़े अनिष्ट की सूचना देने वाले उत्पात हो रहे हैं, अत: स्त्रियां, बच्चे और बूढ़े शंखोद्धारक्षेत्र चले जाएं और हम सभी प्रभासक्षेत्र में चलें ।’ 

सभी यदुवंशी प्रभासक्षेत्र में चले गए । वहां दैव ने उनकी बुद्धि हर ली और वे ‘मैरेयक’ नामक मदिरा का पान करने लगे । भगवान श्रीकृष्ण की माया और नशे में उन्मत्त होकर वे एक-दूसरे से झगड़ने लगे । अंत में उन्होंने समुद्र तट पर लगी हुई ‘एरका’ नामक घास उखाड़ ली जो ऋषियों के शाप के कारण उत्पन्न हुए लोहे के मूसल के चूरे से पैदा हुई थी । यह घास ही मुद्गर के समान चोट करने लगी । ब्रह्मशाप के कारण यदुवंशियों का इस प्रकार संहार हो गया ।

द्वारकालीला में सोलह हजार एक सौ आठ रानियां, उनके एक-एक के दस-दस बेटे, असंख्य पुत्र-पौत्र और यदुवंशियों का लीला में एक ही दिन में संहार करवा दिया, समस्त यादव कलह से कट मरे और भगवान देखते रहे, हंसते रहे और यह सोचकर संतोष की सांस ली कि पृथ्वी का बचा-खुचा भार भी उतर गया । क्या किसी ने ऐसा आज तक किया है ?

यदुवंश के संहार के बाद वहां समुद्र तट पर बलरामजी ने योगक्रिया से अपना शरीर त्याग कर दिया । उनका अद्भुत तेज शेषनाग में, प्रद्युम्न का तेज कामदेव में, साम्ब का तेज स्कन्द में और अनिरुद्ध का तेज ब्रह्मा में विलीन हो गया । रुक्मिणीजी जो साक्षात् महालक्ष्मी थीं, अपने उसी शरीर से वैकुण्ठ चली गयीं,  सत्यभामा पृथ्वी में तथा जाम्बवती जगज्जननी पार्वती में प्रवेश कर गईं । पृथ्वी पर जो-जो देवी-देवता जिन-जिन के अंश से प्रकट हुए थे; वे सभी अपने-अपने अंशी में विलीन हो गए ।

श्रीकृष्ण निपट अकेले नदी तट पर एक पीपल की जड़ पर सिर टेके लेट जाते हैं और अपना दायां चरण मोड़ कर छाती पर रख लेते हैं । ‘जरा’ व्याध ने दूर से छाती पर मुड़े पैर को देखा और मृग समझ कर तीर चला दिया । जब वह पास आया तो उसे भगवान का चतुर्भुज रूप दिखा । चरणों में गिर कर वह भगवान से मार डालने की विनती करने लगा । 

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—‘तुम डरो मत, यह तो तूने मेरे मन का काम किया है । मैंने यदुवंश में जन्म लिया, ऋषि के शाप का एक टुकड़ा मुझे भी लगना था, उससे पहले यह देह नहीं छूटती । तुम दिव्य शरीर धारण कर स्वर्ग जाओ ।’

इसके बाद श्रीकृष्ण के वक्ष:स्थल पर सदैव विराजमान तुलसीमाला की गंध सूंघते हुए श्रीकृष्ण के रथ का सारथि दारुक वहां रथ लेकर आया । दारुक ने कहा—‘प्रभु ! आप मुझे छोड़कर क्यों आ गए, अब मैं कहां जाऊँ ?’ 

अभी दारुक इस प्रकार कह ही रहा था कि उसके सामने ही भगवान का ‘गरुड़ध्वज रथ’ घोड़ों और पताका समेत गोलोक चला गया । उसी के साथ भगवान के आयुध पांचजन्य शंख, सुदर्शन चक्र, कौमोदकी गदा, शांर्ग धनुष भी चले गए । यह सब देखकर दारुक के आश्चर्य की सीमा न रही । भगवान ने दारुक को द्वारका में जाकर यदुकुल के विनाश, भैया बलरामजी की परम गति और अपने स्वधाम गमन का तथा ‘समुद्र द्वारका को डुबो देगा’—इन बातों का समाचार देने को कहा । साथ ही आदेश दिया कि सब लोग अपनी धन-सम्पत्ति व माता-पिता को लेकर अर्जुन के पास इन्द्रप्रस्थ चले जाएं ।

दारुक के जाने के बाद ब्रह्मा सहित सभी देवता, लोकपाल, प्रजापति, यक्ष, गंधर्व, विद्याधर, अप्सराएं, गरुड़लोक के पक्षी आदि भगवान के स्वधाम गमन की लीला देखने आकाश में आए । उनके विमानों से पूरा आकाश भर गया ।

भगवान श्रीकृष्ण पूर्णावतार हैं । उनके अवतार धारण करते समय क्षीरसागर के ‘श्रीविष्णु’, वैकुण्ठाधिपति भगवान नारायण और नर-नारायण आदि उनके विग्रह में विलीन हो गए थे । अब लीला संवरण के समय जो देव जहां से आया था, श्रीकृष्ण के विग्रह से निकल कर अपने धाम चला गया । जैसे—श्रीकृष्ण के शरीर से चतुर्भुज ‘श्रीविष्णु’ प्रकट हुए, वे लक्ष्मीजी को साथ लेकर क्षीरसागर चले गए । इसी प्रकार भगवान नारायण श्रीकृष्ण के शरीर से प्रकट हुए और वे महालक्ष्मी को लेकर वैकुण्ठ चले गए । इसके बाद श्रीकृष्ण ‘नर’ और ‘नारायण’ दो ऋषियों के रूप में अभिव्यक्त होकर मानवों के कल्याण के लिए बदरिकाश्रम चले गए । 

श्रीकृष्ण निपट मनुष्य होकर रह गए । दारुक भी चला गया । श्रीकृष्ण के पास कोई नर नहीं रहा, न ही नारायण का कोई साज रहा । जिस धरती पर वे बचपन में नंगे पैर चले, उसी की धूलि में सने श्रीकृष्ण जाने कब चले गए, किसी मनुष्य ने नहीं देखा । केवल विधाता, देवता और पितर ही उस उजड़ती धरती को देख सके । इस रोती हुई पृथ्वी को अनाथ करके भगवान गोलोक पधार गए । भगवान श्रीकृष्ण के पीछे-पीछे इस लोक से सत्य, धर्म, धैर्य, कीर्ति और श्रीदेवी भी चली गयीं ।

‘भगवान श्रीकृष्ण अपने लोक को चले गए’—दारुक ने यह समाचार द्वारका में वसुदेव-देवकीजी और रोहिणीजी को सुनाया । वे दौड़े-दौड़े प्रभासक्षेत्र में आए । वहां आनन्दकंद कृष्ण और बलराम को न देखकर उनके विरह में वसुदेव-देवकीजी व रोहिणीजी ने इस पांचभौतिक शरीर को उसी क्षण त्याग दिया और श्रीकृष्ण के नित्य निवास को चले गए । द्वारका की सभी स्त्रियां चिता पर बैठ कर अग्नि में प्रवेश कर गईं । समुद्र ने श्रीकृष्ण-रुक्मिणी के महल को छोड़कर शेष सारी द्वारकापुरी को अपने अंदर समेट लिया । भगवान श्रीकृष्ण अब भी वहां परोक्ष रूप से निवास करते हैं ।

गीता के उपदेशों का स्मरण कर अर्जुन ने अपने-आप को श्रीकृष्ण विरह की पीड़ा से संभाला । जिन यदुवंशियों को कोई पिण्ड देने वाला नहीं था, उनका श्राद्ध अर्जुन ने विधिपूर्वक किया ।

श्रीमद्भागवत में भगवान श्रीकृष्ण के स्वधाम गमन की लीला का प्रात:काल भक्तिपूर्वक पाठ करने का बहुत महत्व बताया गया है । इसके एकाग्र मन से पाठ करने पर मनुष्य को भगवान का वही परमपद प्राप्त होता है ।

भगवान की लीला अमोघ है । जैसे मनुष्य जादूगर और नट के संकल्प और वचनों से की हुई करामात को नहीं समझ पाता, वैसे ही भगवान के संकल्प के द्वारा प्रकट हुई उनकी लीलाओं को कुबुद्धि जीव अपने कुतर्कों से नहीं पहचान सकता । उनके स्वरूप व लीलाओं के रहस्य को वही जान सकता है जिसने निष्कपट भाव से निरन्तर उनके चरणकमलों का आश्रय लिया हो ।

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