bhagwan vishnu srishti chayan

‘पुरुष सूक्त’ वेद में परब्रह्म परमात्मा (विराट् पुरुष) की स्तुति है, जिसमें उस ब्रह्माण्ड नायक परमात्मा की महिमा का वर्णन है । ‘पुरुष’ का अर्थ है विराट् पुरुष (परम पुरुष, ब्रह्म, परमात्मा श्रीविष्णु) और ‘सूक्त’ का अर्थ है किसी भी देवता की स्तुति में ‘अच्छी रीति से कहा गया वैदिक मन्त्रों का समूह ।’ 

वेदों में मनुष्य के कल्याण के लिए ‘सूक्त’ रूपी अनेक मणियां हैं । सूक्त में देवी या देवता विशेष के ध्यान, पूजन तथा स्तुति का वर्णन होता है । इन सूक्तों के जप और पाठ से सभी प्रकार के क्लेशों से मुक्ति मिल जाती है, व्यक्ति पवित्र हो जाता है और उसे  मनोऽभिलाषित की प्राप्ति होती है । 

विराट् पुरुष कौन हैं ?

वेद में भगवान नारायण का ही विराट् और परम पुरुष के रूप में वर्णन किया गया है । उसी विराट् पुरुष को कभी ब्रह्म, कभी नारायण, कभी परम पुरुष, कभी प्रजापति तो कभी धाता-विधाता कहा गया है । इस विश्व के असंख्य प्राणियों के असंख्य सिर, आँख और पैर उस विराट् पुरुष के ही सिर, आँख और पैर हैं ।  सभी प्राणियों के हृदय में वही विराजमान हैं और वह विराट् पुरुष ही समस्त ब्रह्माण्ड को सब ओर से घेर कर, दृश्य-अदृश्य सभी में व्याप्त है । प्राणियों में जो कुछ भी बल, बुद्धि, तेज एवं विभूति है, सब परमेश्वर से ही है । उसी में सब देवों, सब लोकों और सब यज्ञों का पर्यवसान (अंत)  है । उसके समान न कोई है और न कोई उससे बढ़ कर है । जो-जो भी ऐश्वर्य-युक्त, कान्ति-युक्त और शक्ति-युक्त वस्तुएं है, वह सब उसके तेज के अंश की अभिव्यक्ति हैं; इसलिए मनुष्य के लिए जितने भी आवश्यक पदार्थ हैं, सबकी याचना परमात्मा से ही करनी चाहिए, किसी अन्य से नहीं । उस हृदय में स्थित परम पुरुष का जो मनुष्य निरन्तर अनुभव-स्मरण करता है, उन्हीं को सदा के लिए परमानन्द की प्राप्ति होती है ।

पुरुष सूक्त (हिन्दी अनुवाद सहित)

पुरुष सूक्त ऋग्वेद के दसवें मण्डल का एक प्रमुख सूक्त है । यजुर्वेद (३१।१-१६) में भी पुरुष सूक्त का वर्णन किया गया है । वेद-मंत्र ही नहीं, कोई भी मंत्र या प्रार्थना बिना अर्थ समझे यदि पढ़े जाएं तो वे फलदायी नहीं होते हैं; इसलिए इस ब्लॉग में ‘पुरुष सूक्त’ हिन्दी अनुवाद सहित दिया जा रहा है । इस वैदिक प्रार्थना के महत्व और अर्थ को समझ कर ही उसका पूरा लाभ उठाया जा सकता है ।

ॐ सहस्त्रशीर्षा पुरुष: सहस्त्राक्ष: सहस्त्रपात् ।
स भूमिँ सर्वत स्पृत्वाऽत्यतिष्ठद्दशांगुलम् ।। १ ।।

 अर्थ—परमात्मा अनन्त सिरों, अनन्त चक्षुओं (नेत्रों) और अनन्त चरणों वाले हैं । वे इस सम्पूर्ण विश्व की समस्त भूमि को सब ओर से व्याप्त करके दस अंगुल (अनन्त योजन) ऊपर स्थित हैं अर्थात् वे ब्रह्माण्ड में व्यापक होते हुए उसके बाहर भी व्याप्त हैं । 

पुरुष एवेदम् सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ।। २ ।।

अर्थ—यह जो इस समय वर्तमान (जगत) है, जो बीत गया और जो आगे होने वाला है, यह सब वे परम पुरुष ही हैं । इसके अतिरिक्त वे देवताओं के तथा जो अन्न से (भोजन द्वारा) जीवित रहते हैं, उन सबके भी ईश्वर हैं । अर्थात् जो कुछ हुआ है, या जो कुछ होने वाला है, सो सब परम पुरुष अर्थात् परमात्मा ही है ।

एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुष: ।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ।। ३ ।।

अर्थ—यह भूत, भविष्य, वर्तमान से सम्बद्ध समस्त जगत् इन परम पुरुष का वैभव है । वे अपने इस विभूति-विस्तार से भी महान् हैं । उन परमेश्वर के चतुर्थांश (एकपाद्विभूति) में ही यह पंचभूतात्मक विश्व है । उनकी शेष त्रिपाद्विभूति में वैकुण्ठ, गोलोक, साकेत, शिवलोक आदि शाश्वत दिव्यलोक हैं । अर्थात् यह सारा ब्रह्माण्ड उनकी महिमा है । वे तो स्वयं अपनी महिमा से भी बड़े हैं । उनका एक अंश ही यह ब्रह्माण्ड है । उनके तीन अविनाशी अंश तो दिव्यलोक में हैं ।

त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुष: पादोऽस्येहाभवत् पुन: ।
ततो विष्वं व्यक्रामत्साशनानशने अभि ।। ४ ।।

अर्थ—त्रिपाद्विभूति में उन परम पुरुष का स्वरूप नित्य प्रकाशमान है क्योंकि वहां माया का प्रवेश नहीं है । इस विश्व के रूप में उनका एक पाद ही प्रकट हुआ है । और इस एक पाद से ही वे समस्त जड़ और चेतन रूप समस्त जगत् को व्याप्त किए हुए हैं । अर्थात् चार भागों वाले विराट् पुरुष के एक भाग में यह सारा संसार समाहित है व इसके तीन भाग अनंत अंतरिक्ष में समाये हुए हैं ।

ततो विराडजायत विराजो अधि पूरुष: ।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुर: ।। ५ ।।

अर्थ—उन्हीं आदि पुरुष से ब्रह्माण्ड उत्पन्न हुआ । वे परम पुरुष ही ब्रह्माण्ड के अधिदेवता (हिरण्यगर्भ) के रूप में प्रकाशित हुए । ब्रह्माण्ड-देह से जीव उत्पन्न हुए । बाद में उन्होंने भूमि (लोक) और शरीर (देव, मानव, तिर्यक शरीर) उत्पन्न किए । उनसे ही ऋतु, यज्ञ, पशु, छन्द, अन्न, मेघ, जाति, सूर्य, चन्द्र, इन्द्र, अग्नि, वायु, स्वर्ग, अंतरिक्ष आदि की उत्पत्ति हुई ।

तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत: सम्भृतं पृषदाज्यम् ।
पशूँस्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये ।। ६ ।।

अर्थ—जिसमें सब कुछ हवन किया गया है, उस यज्ञ से उस विराट् पुरुष ने दही, घी आदि उत्पन्न किये और वायु में, वन में एवं ग्राम में रहने योग्य पशु उत्पन्न किये । इस मन्त्र में यज्ञ का यज्ञपति भी वही ब्रह्म बताया गया है ।

तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत: ऋच: सामानि जज्ञिरे ।
छन्दाँसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ।। ७ ।।

अर्थ—उसी विराट् यज्ञपुरुष से ऋग्वेद और सामवेद के मन्त्र उत्पन्न हुए, उसी से यजुर्वेद एवं अथर्ववेद के मन्त्र उत्पन्न हुए और उसी से सभी छन्द भी उत्पन्न हुए ।

तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादत: ।
गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावय: ।। ८ ।।

अर्थ—उस विराट् पुरुष से दोनों ओर दांत वाले घोड़े उत्पन्न हुए, उसी से गायें उत्पन्न हुईं और उसी से भेड़-बकरियां आदि पशु उत्पन्न हुए ।

तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पुरुषं जातमग्रत: ।
तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये ।। ९ ।।

अर्थ—देवताओं, मंत्रद्रष्टा ऋषियों और योगाभ्यासियों ने सर्वप्रथम प्रकट हुए उस विराट् पुरुष को सृष्टि यज्ञ में अभिषिक्त करके उसी यज्ञरूप परम पुरुष से ही यज्ञ का प्रादुर्भाव किया ।

यत्पुरुषं व्यदधु: कतिधा व्यकल्पयन् ।
मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरू पादा उच्येते ।। १० ।।

अर्थ—उस परम पुरुष का ज्ञानीजन विविध प्रकार से वर्णन करते हैं, उसकी कितनी प्रकार से कल्पनाएं की गयीं ? उसका मुख क्या था ? उसके बाहु क्या थे ? उसके जंघे क्या थे ? और उसके पैर क्या कहे जाते हैं ? शारीरिक संरचना में वह पुरुष किस प्रकार पूर्ण बना ?

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्वाहू राजन्य: कृत: ।
उरू तदस्य यद्वैश्य: पद्भयां शूद्रो अजायत ।। ११ ।।

अर्थ—विराट् पुरुष के मुख से ब्राह्मण (ज्ञानी, विवेकवान) उत्पन्न हुए । दोनों भुजाओं से क्षत्रिय (पराक्रमी) उत्पन्न हुए । इस पुरुष की दोनों जंघाओं से वैश्य (पोषण करने वाले) प्रकट हुए और पैरों से शूद्र (सेवक) प्रकट हुए ।

चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षो: सूर्यो अजायत ।
श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत ।। १२ ।।

अर्थ—विराट् पुरुष परमात्मा के मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुए, नेत्रों से सूर्य, कानों से वायु एवं प्राण तथा मुख से अग्नि की उत्पत्ति हुई ।

नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौ: समवर्तत ।
पद्भयां भूमिर्दिश: श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन् ।। १३ ।।

अर्थ—उन्हीं विराट् पुरुष की नाभि से अन्तरिक्षलोक, मस्तक से स्वर्ग, पैरों से पृथ्वी, कानों से दिशाएं प्रकट हुईं । इस प्रकार समस्त लोक उस पुरुष में ही कल्पित (रचित) हुए ।

यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत ।
वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्म: शरद्धवि: ।। १४ ।।

अर्थ—जब देवों ने विराट् पुरुष को ही हविष्य मानकर यज्ञ का शुभारम्भ किया, तब वसन्त ऋतु उसका घी था, ग्रीष्म ऋतु उसका काष्ठ (समिधा) एवं शरद् ऋतु हविष्य हुई  ।

सप्तास्यासन् परिधयस्त्रि: सप्त समिध: कृता: ।
देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्रन् पुरुषं पशुम् ।। १५ ।।

अर्थ—देवताओं ने जिस यज्ञ का विस्तार किया, उसमें विराट् पुरुष को ही पशु (हव्य) रूप की भावना से बांधा (नियुक्त किया), उसमें यज्ञ की सात परिधियां एवं इक्कीस प्रकार के छन्दों की (गायत्री, अतिजगती और कृति में से प्रत्येक के सात-सात प्रकार से) समिधाएं बनीं ।

यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।
ते ह नाकं महिमान: सचन्त यत्र पूर्वे साध्या: सन्ति देवा: ।। १६ ।।

अर्थ—देवताओं ने यज्ञ के द्वारा यज्ञस्वरूप विराट् पुरुष का आराधन-यजन किया । इस यज्ञ से सर्वप्रथम धर्म उत्पन्न हुए । उन धर्मों के आचरण से वे देवता महान महिमा वाले होकर उस स्वर्ग लोक का सेवन करते हैं, जहां प्राचीन साध्य देवता निवास करते हैं । अत: हम सभी सर्वव्यापी जड़-चेतन रूप उस विराट् पुरुष की करबद्ध स्तुति करते हैं ।

विराट् पुरुष के वैदिक स्तवन—पुरुष सूक्त की बड़ी महिमा है । स्नानादि करके शुद्ध वस्त्र पहन कर इसके नित्य पाठ करने से मनुष्य परम तत्त्व को जानने में सक्षम होता है और उसकी मेधा, प्रज्ञा, बुद्धि और भक्ति की वृद्धि होती है ।

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