shri ram laxman tulsidas

जगत में आदिकवि हुए वाल्मीकि और आदिकाव्य हुआ उनके द्वारा रचित श्रीमद् रामायण; परन्तु संस्कृत भाषा मे होने के कारण इसका ज्यादा प्रसार नहीं हुआ । इसलिए भगवत्कृपा से गोस्वामी तुलसीदासजी का प्राकट्य हुआ, जो वाल्मीकिजी के ही अवतार माने जाते हैं । उन्होंने हमारी ही सरल व सरस ठेठ भाषा में श्रीरामचरितमानस की रचना की और यह सिद्ध किया कि भगवान हमसे दूर नहीं हैं, वे सदैव हमारे जीवन में अप्रत्यक्ष रूप से विद्यमान हैं ।

तुलसीदासजी को ज्ञान का बोध उनकी पत्नी के इन वचनों से हुआ—

हाड़ मांस को देह मम, तापर जितनी प्रीति ।
तिसु आधी जो राम प्रति, अवसि मिटहि भव भीति ।।

पत्नी के इन वचनों को सुनकर तुलसीदासजी ने उत्तर दिया—

कटे एक रघुनाथ सँग, बाँधि जटा सिर केस ।
हम तो चाखा प्रेमरस, पत्नी के उपदेस ।।

उन्होंने गृहस्थ-वेष त्यागकर साधु-वेष धारण कर लिया और तीर्थयात्रा करते हुए काशी पहुंचे । काशी में वे प्रतिदिन प्रह्लाद घाट पर वाल्मीकि रामायण की कथा सुनने जाया करते थे । 

तुलसीदासजी प्रतिदिन शौच के लिए जंगल में जाते, लौटते समय लोटे में जो जल शेष रहता, उसे एक पीपल के वृक्ष के नीचे गिरा देते । उस पीपल-वृक्ष पर एक प्रेत रहता था, उस जल से उसकी प्यास मिट जाती थी । एक दिन एक विचित्र घटना घटी । प्रेत को मालूम हुआ कि ये कोई महात्मा हैं, तो उसने प्रत्यक्ष रूप से प्रकट होकर तुलसीदासजी से कहा—‘तुम्हारी जो इच्छा हो कहो, मैं पूरी करुंगा ।’

तुलसीदासजी ने कहा—‘मैं भगवान राम का दर्शन करना चाहता हूँ ।’

प्रेत कुछ सोच कर बोला—‘अमुक मन्दिर में नित्य सायंकाल रामायण की कथा होती है । कथा सुनने के लिए प्रतिदिन कोढ़ी वेश में हनुमानजी आते हैं । वे सबसे पहले आते हैं और सबसे पीछे जाते हैं । अवसर देखकर उनके चरण दृढ़तापूर्वक पकड़ लेना और भगवान श्रीराम के दर्शन कराने के लिए उनसे हठ करना ।’

तुलसीदासजी ने प्रेत के कहे अनुसार हनुमानजी के चरण पकड़ लिए और जोर-जोर से रोने लगे । हनुमानजी उन्हें भगवान श्रीराम का दर्शन कराने के लिए राजी हो गये । 

हनुमानजी ने तुलसीदासजी से कहा—‘तुम्हें चित्रकूट में भगवान श्रीराम के दर्शन होंगे ।’

तुलसीदासजी चित्रकूट पहुंच कर मन्दाकिनी के तट पर रामघाट पर रहने लगे । वे प्रतिदिन मन्दाकिनी में स्नान करते, भगवान का दर्शन कर रामायण का पाठ करते और नाम-जप करते थे । एक दिन वे परिक्रमा करने गये । मार्ग में उन्होंने देखा—दो बड़े ही सुन्दर राजकुमार, एक श्याम और एक गौर, दो घोड़ों पर सवार होकर हाथ में धनुष-बाण लिए एक हरिण के पीछे घोड़ा दौड़ाते जा रहे हैं । परन्तु वे कौन हैं ? ये तुलसीदासजी नहीं जान सके ।

उनके चले जाने पर हनुमानजी ने प्रकट होकर पूछा—‘कुछ देखा ?’ तुलसीदासजी बोले—‘हां, दो सुन्दर राजकुमार इसी मार्ग से घोड़ा दौड़ाते गये हैं ।’

हनुमानजी बोले—‘ये ही राजाओं में शिरोमणि श्रीराम-लक्ष्मण हैं ।’

तुलसीदासजी का हृदय अपने आराध्य को न पहचानने के कारण पश्चात्ताप से भर गया । हनुमानजी ने उन्हें ढांढस बंधाते हुए कहा—‘कल प्रात:काल तुम्हें फिर श्रीराम-लक्ष्मण के दर्शन होंगे ।’ तब कहीं जाकर तुलसीदासजी को संतोष हुआ ।

तुलसीदास चंदन घिसें, तिलक देत रघुबीर

संवत् १६०७, मौनी अमावस्या, बुधवार का दिन था । प्रात:काल तुलसीदासजी घाट पर बैठकर पूजा के लिए चंदन घिस रहे थे । तब भगवान श्रीराम और लक्ष्मण ने आकर उनसे तिलक लगाने को कहा ।

हनुमानजी ने सोचा कि शायद इस बार भी तुलसीदासजी भगवान को न पहचान पाएं, इसलिए उन्होंने तोते का रूप धारण करके चेतावनी देने का दोहा कहा—

चित्रकूट के घाट पर, भइ संतन की भीर ।
तुलसीदास चंदन घिसें, तिलक देत रघुबीर ।।

इस दोहे को सुनकर तुलसीदासजी ने जैसे ही दृष्टि ऊपर की वे भगवान श्रीराम-लक्ष्मण को पहचान गए और अतृप्त नयनों से टकटकी लगाकर श्रीराम की मनमोहिनी छवि का पान करने लगे और चंदन घिसना ही भूल गये । वे भाव-समाधि में पहुंच कर अपनी देह की सुध-बुध भूल गए और उनकी आंखों से आंसुओं की अविरल धारा बह निकली । 

भगवान ने कहा—‘बाबा मुझे चंदन दो ।’ पर सुनता कौन ?

भगवान श्रीराम ने अपने हाथ से चंदन लेकर पहले अपने फिर तुलसीदासजी के ललाट पर तिलक किया और अन्तर्ध्यान हो गये ।

तुलसीदासजी को जब होश आया तो बिन-पानी की मछली की तरह वे भगवान की विरह-वेदना में तड़फड़ाने लगे । सारा दिन बीत गया, पर उन्हें पता ही नहीं चला । रात्रि में आकर हनुमानजी ने उन्हें दर्शन दिए और उनकी दशा सुधारी ।

भगवान के जो सच्चे भक्त हैं उनकी यही चाह रहती है–

यह सत्य है, हैं आप मुझमें और मैं हूँ आपमें,
जल में भरी ज्यों भाप है, वह भी भरा है भाप में ।
हम आप दोनों एक हैं, भिन्नता कहिए कहां,
जिसमें नहीं हैं आप ऐसा तत्त्व त्रिभुवन में कहां ।।
तो भी यही चित्त चाह है, सेवा करुँ नित आपकी,
सच्ची लगन हो हे प्रभो ! तव नाम के शुभ जाप की ।
देखा करुँ सुन्दर तुम्हारी मूर्ति नित मनमोहिनी,
सुनता रहूँ सरस कथा बस आपकी ही सोहनी ।।
हे राम ! सेवक प्रार्थना यह पूर्ण कृपया कीजिए,
दासानुदासों में दया कर नाम मम लिख लीजिए ।
है जीव के कल्याण का यह मार्ग ही उत्तम बड़ा,
अतएव भगवन् ! शरण में मैं आपकी ही हूँ पड़ा ।। (पं नन्दकिशोरजी शुक्ल)

1 COMMENT

  1. Radhey Radhey..ati sunder sant darshan…aisa lag raha tha ki hum sab visulise kar rahe h or samney hi Thakur or sant h…🙏🙏Radhey Radhey…
    Shukrane Shukrane…🙏🙏

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