माता सीता की मुंहदिखाई में उनकी सबसे छोटी सास कैकेई ने उन्हें अयोध्या का सबसे सुंदर भवन ‘कनक भवन उपहार में दिया तो उनकी मंझली सास माता सुमित्रा ने अपने जूड़े से चूड़ामणि निकाल कर सीता जी के जूड़े में लगा दी थी । वहां उपस्थित लोगों को आश्चर्य हुआ कि माता कैकेई ने तो मुंहदिखाई में ‘कनक भवन’ की रत्नजटित कुंजी बहू सीता के आंचल से बांध दी है; जबकि माता सुमित्रा ने तो केवल अपने जूड़े से निकाल कर यह छोटी-सी चूड़ामणि जनकनन्दिनी को उपहारस्वरूप दी है । वह तो बड़ी कृपण (कंजूस) है ।
तब कुलगुरु महर्षि वशिष्ठ ने सभी उपस्थितजनों को चूड़ामणि की महिमा और इतिहास बताते हुए कहा—
संसार का दिव्यतम स्त्री-आभूषण है चूड़ामणि
चूड़ामणि जूड़े में लगाए जाने वाला वह आभूषण है जिसकी समानता केवल श्रीमन्नारायण के हृदय पर शोभायमान कौस्तुभमणि ही कर सकती है । संसार के समस्त आभूषण मिल कर भी इस चूड़ामणि की समानता नहीं कर सकते हैं ।
कहां से आई है यह दिव्य चूड़ामणि
देवताओं और दानवों द्वारा अमृत प्राप्ति के लिए किए गए समुद्र-मंथन से एक-एक करके चौदह रत्न —१. लक्ष्मी, २. कौस्तुभमणि, ३. कल्पवृक्ष, ४. वारुणी सुरा, ५. धन्वन्तरि वैद्य, ६. चंद्रमा, ७. कामधेनु, ८. ऐरावत हाथी, ९. अप्सरा रम्भा, १०. कालकूट विष, ११. उच्चै:श्रवा घोड़ा, १२. पांचजन्य शंख, १३. पारिजात वृक्ष, १४. अमृत-कलश निकले ।
महालक्ष्मी के प्राकट्य से पहले उन्हीं के समान रूप-रंग वाली अपूर्व सुंदरी ‘रत्नाकरनंदिनी’ जो कि समुद्रतनया थीं, प्रकट हुईं । भगवान श्रीहरि को देखते ही रत्नाकरनंदिनी अपना हृदय उन्हें समर्पित कर बैठीं । तभी भगवान की नित्य-शक्ति क्षीरोदतनया साक्षात् महामाया लक्ष्मी जी प्रकट हो गईं । उन्हें देख कर ऐसा जान पड़ता था मानो चमकती हुई बिजली प्रकट हो गई हो । उन्होंने अपने हाथों में सुशोभित सफेद, नीले, पीले, लाल और कर्बुरी—इन पांच रंगों की कमलमाला समस्त गुणों के आश्रय व निरपेक्ष भगवान नारायण को पहना दी और चुपचाप उनके अनुग्रह की प्रतीक्षा करती हुई उनके निकट स्थित हो गईं ।
समुद्र की ज्येष्ठ पुत्री रत्नाकरनंदिनी मन मसोस कर वहीं खड़ी रह गईं । उनके मन के भावों को जान कर श्रीहरि स्वयं उनके पास जाकर बोले—
‘मैं तुम्हारे मन के भावों को जानता हूँ । पृथ्वी का भार हरने के लिए मैं जब-जब अवतार धारण करुंगा, तब तुम मेरी संहारिणी शक्ति के रूप में अवतरित होगी । कलियुग के अंत में कल्कि रूप में जब मैं प्रकट होऊंगा, तब तुम्हें पूरी तरह अंगीकार करुंगा । अभी सत्ययुग है । त्रेता और द्वापर युग में तुम त्रिकूट पर्वत शिखर पर वैष्णवी नाम से अपनी मनोकामना पूर्ति के लिए तप करो ।’
तब रत्नाकरनंदिनी ने अपने पिता द्वारा दी गई रत्नजड़ित चूड़ामणि, जिसे विश्वकर्मा ने बनाया था, अपने जूड़े से निकाल कर श्रीहरि को भेंट कर दी और तप करने के लिए चली गईं ।
भगवान श्रीहरि ने वह चूड़ामणि पास खड़े देवराज इंद्र को भेंट कर दी; क्योंकि वह उसे ललचाई दृष्टि से देख रहे थे । इंद्र ने वह चूड़ामणि इंद्राणी के केशों में सजा दी ।
देवराज इंद्र शम्बरासुर से बहुत दु:खी थे, वे उसे पराजित नहीं कर पा रहे थे । उन्होने शम्बरासुर से युद्ध में महाराजा दशरथ से सहायता मांगी । महारानी कैकेई ने अपने पिता के यहां शस्त्र चलाना सीखा था और वे रथ हांकने की विद्या में भी पारंगत थीं । उनकी सहायता से महाराज दशरथ ने शम्बरासुर को परास्त कर दिया । देवराज इंद्र के आमंत्रण पर वे महारानी कैकेई के साथ सदेह देवलोक गए ।
इस अवसर पर इंद्र ने महाराज दशरथ को स्वर्गलोक की मंदाकिनी के राजहंसों के चार पंख भेंट किए और इंद्राणी ने चूड़ामणि महारानी कैकेई को भेंट में देते हुए कहा—
‘जिस स्त्री के केशों में यह दिव्य चूड़ामणि रहेगी, उसका सौभाग्य अखण्ड रहेगा । उसके पति के राज्य में अकाल और अतिवृष्टि जैसी आपदाएं नहीं आयेंगी और कोई शत्रु उन्हें पराजित नहीं कर सकेगा ।’
महारानी कैकेई ने अयोध्या आकर वह चूड़ामणि यह सोच कर सुमित्रा जी को दे दी कि मुझे तो महाराज दशरथ और प्रजा का प्यार वैसे ही सबसे ज्यादा मिल रहा है । मंझली रानी सुमित्रा रात-दिन परिवार की सुख-सुविधा में लगी रहती हैं, हमारा सौभाग्य (सुहाग) भी एक ही है । अत: इसकी असली हकदार तो सुमित्रा ही हैं ।
प्रभु श्रीराम के विवाह के बाद मां जानकी की मुंहदिखाई की रस्म शुरु हुई । कृपा की मूर्ति महारानी सुमित्रा ने जब घूंघट की ओट से जनकदुलारी का मुख देखा तो वे बस उन्हें देखती ही रह गईं और वात्सल्यवश नववधू को सौभाग्य का आशीर्वाद देते हुए उन्होंने अपने केशों से सजी चूडामणि को निकाल कर जानकी जी के जूड़े में सजा दिया ।
वनवास के लिए जाते समय सीता जी ने काषाय (गेरुआ) साड़ी तो धारण कर ली; परंतु कुलगुरु वशिष्ठ और उनकी पत्नी अरुन्धती के कहने पर आभूषणों का त्याग नहीं किया । रावण द्वारा हरण किए जाने पर वह पुष्पक विमान से अपने आभूषण जगह-जगह डालती रहीं । लंका पहुंचने तक केवल चूड़ामणि ही उनके पास शेष रही थी । चूड़ामणि की महिमा जानने के कारण ही उन्होंने उसे अपने शरीर से अलग नहीं किया था ।
सीता जी की खोज में जब हनुमान जी अशोक वाटिका में जाकर श्रीराम की मुद्रिका मां जानकी को देते हैं और कहते हैं—
मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा ।
जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा ॥
चूड़ामनि उतारि तब दयऊ ।
हरष समेत पवनसुत लयऊ ।। (मानस, सुंदरकाण्ड)
तब वही चूड़ामणि सीता जी ने प्रभु श्रीराम को अपनी पहचान बताने के लिए हनुमान जी को दी थी । वह जानती थीं कि जब तक यह चूड़ामणि प्रभु श्रीराम के पास नहीं पहुंचेगी; लंका का विनाश और रावण की पराजय संभव नहीं होगी ।