वनवास काल में भगवान श्रीराम, सीता और लक्ष्मण ने श्रृंगबेरपुर में गंगाजी के किनारे एक शीशम वृक्ष के नीचे विश्राम किया । श्रृंगबेरपुर के राजा निषादराज गुह ने श्रीराम से कहा—‘मैं आपका सेवक यह राज्य आपके चरणों में अर्पण करता हूँ ।’
श्रीराम ने गुह से कहा—‘ठीक है, मैंने स्वीकार किया; परंतु मैंने यह राज्य तुमको दे दिया । मुझे चौदह वर्ष तक किसी गांव या घर में नहीं जाना है ।’
श्रीराम, सीता और लक्ष्मण ने उस दिन निराहार व्रत किया । रात्रि में दर्भ (कुश) की शय्या पर श्रीसीताराम जी ने शयन किया । लक्ष्मण जी धनुष-बाण लेकर रात्रि में पहरेदारी करते रहे । श्रीसीताराम जी को कुशा की शय्या पर सोते देख कर निषादराज गुह को बहुत दु:ख हुआ । गुह ने कैकेयी की निंदा करते हुए कहा—
कैकयनंदिनि मंदमति कठिन कुटिलपनु कीन्ह ।
जेहिं रघुनंदन जानकिहि सुख अवसर दुखु दीन्ह ।। (राचमा अयोध्या काण्ड, दोहा ९१)
उस समय लक्ष्मण जी ने गुह को जो उपदेश किया, वह ‘लक्ष्मण-गीता’ या ‘लक्ष्मण-निषादराज गुह संवाद’
कहलाता है । लक्ष्मण जी ने ज्ञान, वैराग्य और भक्ति से पगी मीठी वाणी में कहा—
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता ।
निज कृत करम भोग सबु भ्राता ।।
जोग बियोग भोग भल मंदा ।
हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा ।।
जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू ।
संपति बिपति करमु अरु कालू ।।
धरनि धाम धनु पुर परिवारु ।
सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारु ।।
देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं ।
मोह मूल परमारथु नाहीं ।। (राचमा २/९२/२-४)
दोहा—सपनें होइ भिखारी नृपु रंकु नाकपति होइ ।
जागें लाभु न हानि कछु तिमि प्रपंच जिय जोइ ।।
अर्थात्—कोई किसी को न सुख देता है और न ही दु:ख; मनुष्य अपने कर्मों से ही सुख-दु:ख प्राप्त करता है । मिलना, बिछुड़ना, भले-बुरे भोग, शत्रु, मित्र, उदासीन—ये सभी भ्रम के फंदे हैं । जन्म-मृत्यु, संपत्ति-विपत्ति, कर्म और काल—ये सब जगत के जंजाल हैं । धरती, घर, धन, नगर, परिवार, स्वर्ग और नरक आदि जो देखने, सुनने और मन में विचार करने पर आते हैं, इन सबका मूल मोह (अज्ञान) ही है । वास्तव में ये नहीं हैं । जैसे स्वप्न में राजा भिखारी हो जाए या कंगाल स्वर्ग का स्वामी इन्द्र हो जाए, तो जागने पर लाभ या हानि कुछ भी नहीं है; वैसे ही इस दृश्य-प्रपंच को हृदय से देखना चाहिए ।
‘अध्यात्म रामायण’ में भी लक्ष्मण जी ने निषादराज गुह को वही उपदेश दिया है जो ‘रामचरितमानस’ में गोस्वामी तुलसीदासजी ने कहा है कि—
सुखस्य दु:खस्य न कोऽपि दाता
परो ददातीति कुबुद्धिरेषा: ।
अहं करोमीति वृथाभिमान:
स्वकर्मसूत्रग्रथितो हि लोक: ।। (अध्यात्म रामायण, २/६/६)
सुख-दुःख को देने वाला दूसरा कोई नहीं है । दूसरा सुख-दुःख देता है—यह समझना कुबुद्धि है । मैं करता हूँ—यह वृथा अभिमान है । सब लोग अपने अपने कर्मों की डोरी से बँधे हुए हैं ।
मनुष्य को सुख-दु:ख देने वाला इस जगत में कोई नहीं है
मनुष्य को सुख-दु:ख देने वाले उसी के कर्म हैं । ज्ञानी लोग इसलिए किसी को दोष देते नहीं । कोई किसी को सुख देता नहीं, कोई किसी को दु:ख देता नहीं । सुख के पीछे दु:ख और दु:ख के पीछे सुख खड़ा है । पानी और कीचड़ की तरह सुख और दु:ख एक-दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं । ज्ञानी लोग इन्हें माया समझ कर न तो सुख में प्रसन्न होते हैं और न ही दु:ख में शोक करते हैं । संत लोग सुख-दु:ख का कारण बाहर नहीं बल्कि अपने अंदर खोजते हैं । मुझे कोई सुख देता है या कोई मुझे दु:ख देता है—यह सोचना ही भ्रम है । इससे दूसरों के प्रति राग-द्वेष उत्पन्न होता है ।
कैकेयी और श्रीराम का पूर्वजन्म का क्या वैरभाव था जिसके कारण कैकेयी ने श्रीराम को वनवास का दु:ख दिया ?
श्रीराम को वन-गमन से न सुख है और न ही दु:ख । वे तो आनन्दस्वरूप हैं । परमात्मा भी जब मनुष्य अवतार धारण कर लीला करते हैं तो उस समय वे कर्म की मर्यादा में रहते हैं । परमात्मा श्रीराम यद्यपि कर्म से परे हैं, परंतु रामावतार में उन्होंने संसार को यह सिखाया कि मैं भी कर्म के बंधन में हूँ ।
कैकेयी ने श्रीराम को वनवास दिया, उस समय माता कौसल्या को अत्यंत दु:ख हुआ । श्रीराम ने माता कौसल्या को समझाते हुए कहा—‘मां ! यह मेरे कर्मों का फल है । मैंने पूर्व-जन्म में माता कैकेयी को दु:ख दिया था, उसके फलस्वरूप मुझे वनवास मिला है । मैंने परशुराम अवतार में जो किया, उसका फल रामावतार में मुझे भोगना ही है ।
पूर्व-जन्म में कैकेयी जमदग्नि ऋषि की पत्नी रेणुका थीं और परशुराम की मां थीं । एक दिन रेणुका अपने आश्रम से जल लेने यमुना-तट पर गईं । वहां गंधर्वराज चित्ररथ को अप्सराओं के साथ जल में विहार करते देख कर रेणुका के मन में विचार आया कि इन गंधर्व-कन्याओं को जैसा सुख मिल रहा है, ऐसा सुख मुझे मिला नहीं । परपुरुष का विहार देख कर रेणुका का मन विकार से भर गया । रेणुका को आश्रम लौटने में विलम्ब हो गया । जमदग्नि ऋषि तपोबल से जान गए कि रेणुका ने मन से व्यभिचार किया है । उन्होंने क्रोधित होकर अपने पुत्र परशुराम से कहा—‘ तेरी मां पापिनी है, इसका वध कर दे ।’
परशुराम भगवान विष्णु के ‘आवेशावतार’ हैं । अत्यंत तेज धार वाला अमोघ अस्त्र परशु धारण करने के कारण भगवान ‘राम’ का नाम परशुराम पड़ा । परशुराम कल्पान्तजीवी हैं । परशुराम की अपने पिता के चरणों में अनन्य भक्ति थी । परशुराम को पिता की आज्ञा हुई, इसलिए उन्होंने मां रेणुका का परशु से सिर धड़ से अलग कर दिया ।
श्रीराम कौसल्या माता को समझाते हुए कहते है—‘मैंने पूर्वजन्म में मां को दु:ख दिया; इसलिए इस जन्म में कैकेयी माता ने मुझे दु:ख दिया है ।’
जब सुख-दु:ख हमारे ही कर्मों का फल है तो सुख आने पर हम क्यों फूल जाएं और दु:ख पड़ने पर मुरझाएं क्यों ? क्योंकि सुख-दु:ख सदा रहने वाले नहीं और क्षण-क्षण में बदलने वाले हैं । सुख-दु:ख जब अपनी ही करनी का फल हैं तो एक के साथ राग और दूसरे के साथ द्वेष किसलिए ? गीता में भगवान कहते हैं—जिन लोगों के मन में सुख-दु:ख के भोग में समता आ गई है, उन्होंने तो इसी जन्म में और इसी शरीर से ही संसार को जीत लिया और वे जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो गए । (५। १९)