shri raam and sita bhagwan jai ram

संसार में सभी भयों में मृत्य का भय सबसे बड़ा माना गया है । सांसारिक विषयी पुरुष के लिए शरीर ही सब कुछ होता है; इसीलिए मृत्यु निकट जान कर मनुष्य अपना विवेक और धैर्य खो देता है । न तो उसे अच्छे-बुरे का ज्ञान रहता है, न ही उसे भूख-प्यास लगती है; साथ ही रात-दिन का चैन भी समाप्त हो जाता है ।

जिस प्रकार कृष्णावतार में जब कंस को यह पता लगा कि उसकी चचेरी बहिन का आठवां पुत्र उसका वध करेगा तो उसने नवविवाहित बहिन और बहनोई को कारावास में डाल दिया और जन्म लेते ही उनके पुत्रों का वध कर दिया; किंतु फिर भी अपनी मृत्यु से न बच सका । उसी प्रकार रावण के प्रकाण्ड विद्वान होते हुए भी उसे जब पता लगा कि अयोध्या के महाराज अज के पुत्र युवराज दशरथ और कोशल देश की राजकुमारी कौसल्या का जो पुत्र होगा; वही उसका वध करेगा, तो अपने जीवन की रक्षा करना ही उसका चरम उद्देश्य हो गया । 

मृत्यु से अधिक भयदायक कोई भी चीज संसार में नहीं है । दुष्टों की शक्ति का सदुपयोग नहीं होता है, वे तो दूसरों के लिए केवल भय ही उत्पन्न करते हैं ।

लंकापति रावण का वैर प्रभु श्रीराम से तो सीता जी के अपहरण से शुरु हुआ; किंतु माता कौसल्या से रावण का वैर तभी से शुरु हो गया था जब उनका विवाह अयोध्या के युवराज दशरथ से होने वाला था । कोशल देश के राजा ने अपनी पुत्री कौसल्या का विवाह अयोध्या के युवराज से निश्चित किया था । विवाह का आमंत्रण भेजा जा चुका था । कोसल नगरी को विवाह के लिए सज्जित किया जा रहा था । 

तभी रावण आकाशमार्ग से कोशल देश पहुंचा । अचानक एक दिन राजमहल से राजकुमारी कौसल्या गायब हो गईं । राजमहल में हाहाकार मच गया । राजा ने दूतों के हाथ राजकुमारी के गायब होने का समाचार अयोध्या भेजा; किंतु महाराज अज पुत्र के विवाह के लिए प्रस्थान कर चुके थे । 

महाराज अज का दल सरयू नदी में सुसज्जित नौकाओं पर यात्रा कर रहा था । अचानक बड़ी तेज आंधी आई और भयंकर झंझावत ने बहुत सी नौकाओं को डुबो दिया । मायावी रावण ने ही झंझावत उत्पन्न करके महाराज अज के दल की कुछ नौकाओं को डुबो दिया था ।

जब आंधी का उत्पात शांत हुआ तो महाराज अज ने देखा कि जिस नौका पर युवराज दशरथ मंत्रीपुत्र सुमंत्र के साथ सवार थे, वह गायब हो गई है । कुछ लोगों को युवराज की नौका का पता लगाने के लिए वहां छोड़ कर महाराज अज वापिस अयोध्या लौट आए ।

उधर कोशल के राजमहल से रावण ने राजकुमारी कौसल्या का हरण कर लिया और उन्हें एक लकड़ी की पेटी में बंद करके दक्षिण सागर में अपने एक परिचित महामत्स्य को दे आया कि वह उसे सुरक्षित रखे । महामत्स्य उस पेटी को अपने मुख में रखे रहता था ।

एक दिन अचानक एक दूसरे महामत्स्य ने पहले महामत्स्य पर आक्रमण कर दिया । लडाई से पूर्व महामत्स्य ने वह पेटिका मुख से निकाल कर गंगासागर के किनारे भूमि पर छोड़ दी । राजकुमारी कौसल्या ने जब काफी समय तक पेटिका को स्थिर अनुभव किया तो उन्होंने अंदर से पेटिका खोली । पेटी से बाहर आने पर उन्होंने अपने-आप को अज्ञात स्थल पर पाया । स्थान का परिचय जानने के लिए वह इधर-उधर घूमने लगीं ।

इधर युवराज दशरथ की नौका डूबने से वे सरयू के प्रवाह में बहते हुए दूर निकल गए । तभी उन्हें टूटी हुई नौका के एक लकड़ी के टुकड़े पर मंत्री पुत्र सुमंत्र बैठा हुआ दिखाई दिया । युवराज दशरथ तैर कर उसी नौका खण्ड पर जाकर बैठ गए । वर्षा ऋतु के कारण सरयू में पानी का बहाव तेज था । दोनों बहते हुए सरयू से गंगा में पहुंच गए और गंगा से समुद्र तट के समीप जाकर वह नौका खण्ड किनारे लग गया ।

जब युवराज दशरथ और मंत्रीपुत्र उतर कर भूमि पर आए तो उन्हें वहां राजकुमारी कौसल्या दिखाई दीं । आपस में परिचय हुआ और तब युवराज दशरथ ने वहीं अग्नि प्रज्ज्वलित कर कौसल्या जी से पाणिग्रहण कर लिया । कुछ ही समय बाद महाराज अज के दूत उनको ढूंढते हुए वहां आ पहुंचे । सभी लोग वापिस अयोध्या पहुंच गए ।

‘होनी होकर रहती है’

इन्हीं राजा दशरथ और कौसल्या के पुत्र श्रीराम के हाथों रावण का वध हुआ । विधाता ने जिसकी मृत्यु जिस प्रकार और जिसके हाथों लिखी है; वह होकर रहती है; चाहे मनुष्य लाख प्रयास कर ले । तभी कहा गया है—

विधना ने जो लिख दयी छठी रात्रि के अंक ।
राई घटे न तिल बढ़े रहो जीव निशंक ।।

मृत्यु एक अपरिहार्य सत्य है, फिर भी मनुष्य उससे मुंह छिपाने की कोशिश करता है । सब कुछ प्राप्त कर लेने के बाद भी मृत्यु के बाद मनुष्य के साथ केवल सूखी लकड़ी ही साथ चलती है । कबीर कहते हैं—

यह तन धन कछु काम न आई
ताते नाम जपो लौ लाई ।
कहइ कबीर सुनो मोरे मुनियाँ,
आप मुये पिछे डूब गयी दुनियाँ ।।

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