अयोध्या के चक्रवर्ती सम्राट रघु ने ही ‘रघुकुल’ या ‘रघुवंश’ की नींव रखी थी । रघुकुल अपने सत्य, तप, मर्यादा, वचन पालन, चरित्र व शौर्य के लिए जाना जाता है । इसी वंश में भागीरथ, अंबरीष, दिलीप, रघु, दशरथ और श्रीराम जैसे राजा हुए ।
रावण प्रकाण्ड विद्वान और त्रिकालदर्शी था । उसे पता था कि उसकी मृत्यु अयोध्यापति श्रीराम के हाथों होगी । अत: अयोध्या का विनाश करना उसका चिरकाल से संकल्प था । रावण मायावी भी था ।
एक बार रावण ब्राह्मण का रूप धारण कर अयोध्या आया । उस समय अयोध्या के राजसिंहासन पर महाराज रघु राज्य करते थे । महाराज रघु के राज्य में ब्राह्मणों की बहुत प्रतिष्ठा थी । वे कहीं भी आ-जा सकते थे ।
एक दिन जब राजदरबार में कोई भी नहीं था, ब्राह्मण वेषधारी रावण निर्भय होकर अयोध्या के राजदरबार में पहुंच गया । वहां उसने अयोध्या के सूर्यवंशी राजसिंहासन को देखा । उस राजसिंहासन की अपूर्व शोभा को देख कर रावण चकित रह गया । राजसिंहासन एक स्वर्ण चबूतरे पर स्थित था, जिस पर सीढ़ियां चढ़ कर जाना होता था । राजसिंहासन के पीछे बड़े-बड़े दर्पण लगे थे ।
रावण थोड़ी देर के लिए उस राजसिंहासन पर बैठने का लोभ संवरण न कर सका । जैसे ही रावण राजसिंहासन पर बैठने के लिए सीढ़ियां चढ़ने लगा, सामने लगे दर्पणों में ब्राह्मण वेषधारी रावण के नहीं; वरन् लंकाधिपति रावण के प्रतिबिम्ब दिखाई देने लगे । यह देख कर रावण डर कर सीढ़ियों से नीचे उतर आया । अब दर्पणों में ब्राह्मण वेषधारी कपटी रावण के प्रतिबिम्ब दिखाई देने लगे ।
सिंहासन पर बैठने के लिए रावण जब पुन: सीढ़ियां चढ़ने लगा, तो फिर उसको दर्पणों में अपना लंकाधिपति रावण वाला असली रूप दिखाई देने लगा । रावण समझ गया कि अयोध्या के राजसिंहासन पर उसका मायावी कपट वेष काम नहीं करेगा; इसीलिए अयोध्या के राजसिंहासन की दूर-दूर तक इतनी ख्याति है ।
विद्वान होने के कारण रावण ने राजसिंहासन की महिमा समझी और उसको प्रणाम कर सरयू नदी के तट पर पहुंचा ।
सरयू तट पर रावण ने देखा कि महाराज रघु संध्यावंदन कर रहे हैं । रावण कर्मकाण्ड का विद्वान था; अत: वह भी महाराज रघु के निकट जाकर बैठ गया और संध्या-कर्म देखने लगा । जैसे ही महाराज रघु की संध्या समाप्त हुई, रावण ने उनसे कहा—‘आप इतने महान और धार्मिक राजा हैं; किंतु संध्या अशुद्ध करते हैं । मंत्र-जल को आपने आचमन न करके पूर्व दिशा में फेंक दिया ।’
इस पर महाराज रघु ने कहा—‘विप्र ! मैंने आचमन के लिए जल ज्यों ही हाथ में लिया, उसी समय सरयू के उस पार एक सिंह ने गाय पर आक्रमण कर उसे अपने पंजों में जकड़ लिया । मैंने अघमर्षण मंत्र (ऋग्वेद का एक सूक्त जिसका उच्चारण संध्यावंदन के समय द्विज पाप की निवृत्ति के लिये करते है ।) का प्रयोग कर उस जल को सिंह के ऊपर फेंका, जिससे सिंह मर गया और वह गाय बच गई । धर्मरक्षा के लिए संध्यावंदन में त्रुटि सर्वत्र मान्य है । हमारा संध्यावंदन गलत नहीं हो सकता है ।’
यह सुन कर रावण सच्चाई जानने के लिए सरयू नदी के उस पार गया । वहां उसने देखा कि वास्तव में एक सिंह मरा पड़ा है, और गाय वहां से भाग चुकी है । रेत पर रावण ने गाय के खुर के निशान देखे ।
यह देख कर रावण ने मन में विचार किया कि महाराज रघु की मंत्र-शक्ति में इतनी ताकत है तो कहीं ये मंत्र-जल उन्होंने लंका पर फेंक दिया तो लंका का विनाश अवश्य हो जाएगा । महाराज रघु को दूर से ही प्रणाम कर रावण अपनी नगरी लंका चला गया और मन में संकल्प किया कि महाराज रघु के शासनकाल में फिर कभी अयोध्या नहीं आना हैं ।
ऐसे प्रतापी राजा थे महाराज रघु जिनके नाम पर रघुवंश चला और उनकी प्रतिज्ञा आज भी गाई जाती है—
रघुकुल रीत सदा चली आई,
प्राण जाए पर वचन न जाई ।