५१ शक्ति पीठों में कामाख्या महापीठ सर्वश्रेष्ठ शक्ति पीठ माना जाता है । असम के ब्रह्मपुत्र नदी के तट पर कामगिरि पर्वत पर आद्याशक्ति देवी का योनिमण्डल (महामुद्रा) गिरकर नीलवर्ण का पर्वत हो गया इसलिए यह पर्वत ‘नीलाचल’ के नाम से प्रसिद्ध है । इसी पर्वतमय योनि में कामाख्या देवी नित्य निवास करती हैं, इसलिए इसे ‘योनिपीठ’ भी कहते हैं—‘योनिपीठं कामगिरौ कामाख्या यत्र देवता ।’
पहले यह पर्वत बहुत ऊंचा था किन्तु महामाया का गुप्त अंग गिरने से डगमगाने लगा । इसे पाताल में प्रवेश करते देखकर ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव—तीनों देवों ने पर्वत के एक-एक शिखर को धारण किया । इसलिए यह पर्वत ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव पर्वत के नाम से तीन शिखरों में विभाजित है ।
कामाख्या देवी योगमाया हैं, उन्हें महामाया भी कहते हैं, क्योंकि वे ज्ञानिजनों की भी चेतना को बलात् आकर्षित करके मोहरूपी गर्त में डाल देती हैं । शिव और शक्ति सदैव एक साथ रहते हैं । कामाख्या शक्ति पीठ के भैरव ‘उमानन्द शिव’ हैं । यहां देवी कामाख्या की पूजा-उपासना तन्त्रोक्त आगम-पद्धति से की जाती है ।
‘कामरूप’ के नाम से भी जाना जाता है कामाख्या शक्तिपीठ
इसके कई कारण हैं—
▪️ यहां कामना के अनुरुप फल प्राप्त होता है, इसलिए यह ‘कामरूप’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
▪️ शिव की क्रोधाग्नि में कामदेव यहीं भस्म हुए और पुन: शिव कृपा से उन्होंने अपना पूर्व रूप भी यहीं प्राप्त किया, इसलिए इस स्थान का नाम कामरूप हुआ । ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार शिव-पार्वती के विवाह के समय कामदेव की पत्नी रति अपने पति को पुन: प्राप्त करने के लिए शिवाराधना करने लगीं । सभी देवताओं के भी प्रार्थना करने पर भगवान शिव ने कामदेव को पुन: जीवित कर दिया किन्तु उनका पहले जैसा रूप न था । तब भगवान शिव ने कामदेव को आदेश दिया कि भारतवर्ष के ईशानकोण में नीलाचल पर्वत पर सती का एक अंग गुप्त रूप में है । वहां जाकर देवी की प्रतिष्ठा और प्रचार करने से तुमको पहले की-सी कान्ति पुन: प्राप्त हो जाएगी । कामदेव ने इस महामुद्रापीठ में आकर देवी की नाना प्रकार से पूजा की और अपना पूर्व रूप प्राप्त किया ।
देवी की महिमा का प्रचार करने के लिए कामदेव ने विश्वकर्मा को बुलाया । विश्वकर्मा ने अपने शिल्पियों के साथ छद्मवेष में कार्य करते हुए विचित्र मन्दिर का निर्माण किया । मन्दिर की दीवारों पर ६४ योगिनियों और १८ भैरवों की मूर्ति खुदवाकर कामदेव ने इसे ‘आनन्दाख्य मन्दिर’ के नाम से प्रचारित किया । कामदेव ने ही इस ‘महामुद्रापीठ’ का माहात्म्य जगत में प्रसिद्ध किया ।
▪️ कलियुग में यह स्थान विशेष रूप से जाग्रत है, इस कारण भी इस स्थान का नाम कामरूप हुआ ।
कालिकापुराण के अनुसार यह मन्दिर नरकासुर के समय में बना । त्रेतायुग में नरकासुर वाराह भगवान और पृथ्वी देवी का पुत्र था । भगवान नारायण ने प्रसन्न होकर नरकासुर को कामरूप के अंतर्गत प्राग्ज्योतिषपुत्र का राज्य प्रदान करते हुए कहा—‘तुम देवताओं और ब्राह्मणों से प्रतिकूल व्यवहार न करना और जगन्माता कामाख्या के अतिरिक्त अन्य किसी की उपासना न करना, इनके प्रति सदैव भक्ति-भाव बनाए रखना, अन्यथा प्राणों से हाथ धो बैठोगे ।’
नरकासुर भगवान की आज्ञा मानता रहा; अत: उसकी राज्यलक्ष्मी बढ़ती गयी और उसने त्रेता से द्वापरयुग तक राज्य किया । द्वापरयुग के अंत में उसकी मित्रता बाणासुर से हो गयी । कुसंग से नरकासुर को देवताओं और ब्राह्मणों से ईर्ष्या होने लगी और वह ‘असुर’ बन गया ।
एक दिन महर्षि वशिष्ठ महामाया के दर्शन के लिए आए । नरकासुर ने उनके दर्शन में बाधा उपस्थित की । इससे रुष्ट होकर महर्षि ने नरकासुर को शाप दिया कि जब तक तू जीवित रहेगा, महामाया सपरिवार अन्तर्धान रहेंगी । परिणामस्वरूप यह कामाख्या पीठ लुप्त हो गया ।
एक दिन देवी ने नरकासुर को अपनी लावण्यमयी छटा दिखाई । जिसे देखकर वह मोहित हो गया और उन्हें अपनी पत्नी बनाने की इच्छा प्रकट की । देवी ने उसका अंत समय निकट जानकर छल करते हुए कहा—‘यदि तू एक ही रात में इस पर्वत के चारों ओर चार प्रस्तर-मार्ग, घाट और मंदिर के भवन का निर्माण करा देगा तो मैं तेरी पत्नी हो जाऊंगी, अन्यथा तेरी मृत्यु अवश्यम्भावी है ।’
अहंकारी नरकासुर इस शर्त पर राजी हो गया । नरकासुर ने देवशिल्पी विश्वकर्मा को यह कार्य तुरंत पूरा करने का निर्देश दिया । जैसे ही निर्माण कार्य पूरा होने को हुआ, वैसे ही देवी के चमत्कार से रात्रि समाप्त होने से पूर्व ही मुर्गे ने बाँग दे दी । अत: नरकासुर शर्त पूरी न कर सका । नरकासुर द्वारा निर्मित कामगिरि पर्वत पर नीचे से ऊपर तक पत्थर का मार्ग बना हुआ है, जिसे ‘नरकासुर पथ’ कहा जाता है । देवी की माया से भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर का संहार किया ।
कामाख्या मन्दिर का निर्माण व जीर्णोद्धार करने में कामदेव, नरकासुर, विश्वसिंह, नरनारायण, चिलाराय, अहोम राजा आदि प्रमुख हैं । ये सब कामरूप के राजा थे । अहोम शब्द के अपभ्रंश से इसका नाम ‘असम’ हो गया ।
मुख्य मन्दिर जहां मां की महामुद्रा शोभायमान है, उसे ‘कामदेव का मन्दिर’ नाम से जाना जाता है । कामाख्या मन्दिर में पहले कामेश्वरी देवी एवं कामेश्वर शिव के दर्शन किए जाते हैं फिर देवी की योनि—महामुद्रा का दर्शन करते हैं जो कि दस सीढ़ी नीचे एक अंधेरी गुफा में स्थित है, जहां सदैव दीपक का प्रकाश रहता है ।
▪️ कामाख्या तीर्थ में कुमारी-पूजा अवश्य की जाती है, इससे सभी देवी-देवताओं की पूजा का फल और देवी की कृपा प्राप्त होती है ।
▪️ इस महापीठ के लाल जल में स्नान करने की बड़ी महिमा है ।
▪️ कामाख्या देवी का रक्त वस्त्र धारण कर पूजा-पाठ करने से भक्तों की मनोकामनाएं पूरी होती हैं—
कामाख्या वस्त्रमादाय जपपूजां समाचरेत् ।
पूर्णकामं लभेद्देवि सत्यं सत्यं न संशय: ।। (कुब्जिकातन्त्र)
कामाख्या तीर्थ का प्रमुख उत्सव ‘अम्बुवाची उत्सव’ है जो आषाढ़ महीने में मृगशिरा नक्षत्र के चतुर्थ चरण और आर्द्रा नक्षत्र के प्रथम चरण के मध्य में जब पृथ्वी ऋतुमती होती है, तब मनाया जाता है । इस अवसर पर कामाख्या मन्दिर तीन दिन बंद रहता है और दर्शन नहीं होते हैं । चौथे दिन देवी का मन्दिर खुलता है और भक्तों को देवी के दर्शन होते हैं । अम्बुवाची योग में कामाख्या देवी के रक्त वस्त्र को प्रसाद में दिया जाता है । पुष्याभिषेक उत्सव पौष महीने की कृष्ण द्वितीया या तृतीया तिथि को पुष्य नक्षत्र के योग में मनाया जाता है । साथ ही नवरात्रि उत्सव भी यहां भव्य रूप में मनाया जाता है ।
कामाख्या शक्ति पीठ को सर्वोत्तम तीर्थ, तप, धर्म तथा परम गति कहा गया है—
कामाख्या परमं तीर्थं कामाख्या परमं तप: ।
कामाख्या परमो धर्म: कामाख्या परमा गति: ।।