जो प्राणी एक बार सर्वभाव से अपने को परमात्मा के चरणों में अर्पण कर देता है, वह सदा के लिए निर्भय, निश्चिन्त और परम सुखी हो जाता है । उसके योगक्षेम का समस्त भार भगवान स्वयं वहन करते हैं और केवट बन कर उसकी नैया को भीषण संसार-सागर से पार करा कर सुरक्षित अपने धाम में पहुंचा देते हैं । उसे किसी प्रकार की चिन्ता करने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती है । प्रभु के हाथों में अपने को सौंप देने के बाद भय, चिन्ता और चाह कैसी ?
शरणागत-वत्सल श्रीराम का विभीषण प्रेम
ब्रह्माजी के मानस पुत्र महर्षि पुलस्त्य हुए, पुलस्त्य के विश्रवा मुनि हुए । विश्रवा मुनि की एक पत्नी से कुबेर और दूसरी पत्नी कैकसी से रावण, कुम्भकर्ण और विभीषण हुए । रावण और कुम्भकर्ण की तरह विभीषण भी कठोर तप करने लगे । ब्रह्माजी ने प्रसन्न होकर विभीषण से वरदान मांगने को कहा तो विभीषण ने कहा—‘मुझे तो भगवान की अविचल भक्ति ही चाहिए ।’
इसके बाद विभीषण लंका में रह कर भजन-पूजन करते रहते थे । सीताहरण के बाद जब रावण ने विभीषण को लात मारकर लंका से निकाल दिया तो विभीषण श्रीराम की शरण में आए और चरण पकड़ कर कहा—
श्रवन सुजस सुनि आयहुँ प्रभु भंजन भव भीर ।
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर ।।
समुद्र तट पर राजधर्म और युद्ध धर्म की बात कह कर किसी ने भी विभीषण को शरण देने की सम्मति नहीं दी, परन्तु श्रीराम ने शत्रु का भ्राता होने पर भी विभीषण को उठाकर हृदय से लगा लिया । सागर के जल से विभीषण का राजतिलक कर लंका का राज्य दे दिया और इस तरह संसार को अपनी शरणागत-वत्सलता की पराकाष्ठा बतला दी ।
श्रीराम विभीषण से कहते हैं—
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें ।
धरउँ देह नहिं आन निहोरें ।। (राचमा ५।४८।८)
अर्थात्—विभीषण तुम जैसे संत मुझे अतिशय प्रिय हैं, और मैं उनके लिए ही देह धारण करता हूँ ।
वाल्मीकीय रामायण में प्रभु श्रीराम ने कहा है—‘जो एक बार भी शरणागत होकर कहता है ‘प्रभो ! मैं तुम्हारा हूँ, उसे मैं सम्पूर्ण प्राणियों से अभय कर देता हूँ । यह मेरा व्रत है ।’
लंका युद्ध के दौरान प्रभु श्रीराम ने अपने वचन को सिद्ध भी कर दिया । विभीषण के ऊपर आने वाली अमोघ शक्ति के प्रहार को अपनी छाती पर झेल कर उन्होंने शरण में आए विभीषण की रक्षा की थी ।
प्रभु श्रीराम को विभीषण की चिन्ता और उनकी पुन: लंका यात्रा
लंका विजय के बहुत दिनों बाद एक बार भगवान श्रीराम को विभीषण की याद आई । उन्होंने सोचा—‘मैं विभीषण को लंका का राज्य दे आया हूँ, वह धर्मपूर्वक शासन कर भी रहा है या नहीं । राज्य के मद में कहीं वह कोई अधर्म का आचरण तो नहीं कर रहा है । मैं स्वयं लंका जाकर उसे देखूंगा और उपदेश करुंगा, जिससे उसका राज्य अनन्तकाल तक स्थायी रहे ।’
श्रीराम जब लंका के लिए चलने लगे तो उनके साथ भरतजी भी चल दिए; क्योंकि उन्होंने लंका कभी देखी नहीं थी । दोनों भाई पुष्पक विमान पर सवार होकर किष्किन्धापुरी पहुंचे । वहां से सुग्रीव भी उनके साथ लंका को चल दिए ।
श्रीराम, भरत और सुग्रीव के लंका पहुंचने पर विभीषण ने साष्टांग प्रणाम करते हुए कहा—‘प्रभो ! आज मेरा जन्म सफल हो गया, क्योंकि आज मैं जगत् के द्वारा वंदनीय आप दोनों के दर्शन कर रहा हूँ । आज मैं अपने-आप को इन्द्र से भी श्रेष्ठ समझ रहा हूँ ।’
विभीषण ने अपना समूचा राज्य, सारा परिवार, और स्वयं को प्रभु श्रीराम के चरणों में अर्पित कर दिया । विभीषण ने अपनी प्रजा को श्रीराम-भरत का दर्शन कराने के लिए अपने राजदरबार के दरवाजे खुलवा दिए । ऐसे ही तीन दिन बीत गए ।
चौथे दिन माता कैकसी ने विभीषण से कहा—‘श्रीराम साक्षात् महाविष्णु हैं, सीताजी लक्ष्मी हैं । तेरे भाई रावण ने यह रहस्य नहीं जाना । मैं भी राजा राम के दर्शन करुंगी ।’
विभीषण ने माता कैकसी को नए वस्त्र पहनाकर हाथ में सोने के थाल में चंदन, मधु, अक्षत, दधि, दूर्वा का अर्घ्य सजाकर पत्नी सरमा के साथ श्रीराम के दर्शन के लिए भेजा । उन्होंने श्रीराम से प्रार्थना की कि मेरी मां आपके चरणकमलों के दर्शन के लिए आ रही हैं ।
श्रीराम ने कहा—‘तुम्हारी मां तो मेरी मां ही हैं । मैं ही उनके पास चलता हूँ ।’
ऐसा कह कर श्रीराम कैकसी के पास जाकर बोले—‘आप मेरी धर्म-माता हैं, मैं आपको प्रणाम करता हूँ ।’
बदले में कैकसी ने भी प्रभु को मातृभाव से आशीर्वाद दिया और सरमा के साथ श्रीराम की स्तुति की । लंका प्रवास में सरमा सीताजी की प्रिय सखी थी ।
श्रीराम ने विभीषण को उपदेश दिया—‘राज्यलक्ष्मी मनुष्य के मन में मदिरा की तरह मद उत्पन्न कर देती है । तुम्हें सदैव सभी देवताओं का प्रिय कार्य करना चाहिए, कभी उनका अपराध नहीं करना, जिससे तुम्हारा राज्य सुस्थिर रहे । लंका में कभी कोई मनुष्य आ जाए तो उनका कोई राक्षस वध न करने पाए । साथ ही मेरे सेतु का उल्लंघन करके राक्षस भारतभूमि में न जाएं ।’
श्रीराम द्वारा सेतु को भंग करना
विभीषण ने कहा—‘प्रभो ! यदि लंका का पुल ज्यों-का-त्यों बना रहेगा तो इस सेतुमार्ग से श्रद्धावश बहुत से मनुष्य यहां आवेंगे, राक्षसों की जाति अत्यंत क्रूर मानी गई है, यदि कभी उनके मन में मनुष्य को खा जाने की इच्छा पैदा हो जाती है और वह किसी मनुष्य को खा लेता है, तो मेरे द्वारा आपकी आज्ञा का उल्लंघन हो जाएगा । इसलिए आप कोई ऐसा उपाय सोचें, जिससे मुझे आपकी आज्ञा-भंग होने का दोष न लगे ।’
भगवान ने विभीषण की बात सुनकर पुल को बीच से तोड़ दिया और फिर दस योजन के बीच के टुकड़े के फिर तीन टुकड़े कर दिए । इसके बाद उनको छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़ डाला,जिससे वह सेतु पूरी तरह भंग हो गया और भारत और लंका के बीच का मार्ग समाप्त हो गया ।
इस कथा से भगवान श्रीराम का विभीषण और उनके परिवार से कितना स्नेह था स्पष्ट हो जाता है ।
जानत प्रीति-रीति रघुराई ।
नाते सब हाते करि राखत,
राम सनेह-सगाई ।। (विनय पत्रिका १६४)
करुणानिधान भगवान श्रीराम प्रीति की रीति को अच्छी तरह से जानते हैं । वे सब सम्बन्धों को छोड़कर केवल प्रेम और भक्ति का ही सम्बन्ध मानते हैं ।
इस कथा से यह भी स्पष्ट है कि भगवान की शरणागति जिसने ले ली है, वह निर्विघ्न और आननंदयुक्त होकर संसार में निवास करता है जैसे अगाध जल में मछली सुखपूर्वक रहती है ।