bhagwan vishnu srishti chayan

परमात्मा श्रीकृष्ण ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों के एकमात्र ईश्वर हैं । ब्रह्मा, शंकर, महा विराट् और क्षुद्र विराट्–सभी उन परमब्रह्म परमात्मा का अंश हैं । प्रकृति भी उन्हीं का अंश कही गयी है । 

गीता में ऐसे बहुत-से श्लोक हैं, इनके अलावा महाभारतश्रीमद्भागवत में ऐसे अनेक वाक्य हैं, जिनसे यह सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण पूर्ण परात्पर परब्रह्म परमात्मा हैं, जैसे—

‘हे अर्जुन ! मेरे अतिरिक्त दूसरी कोई भी वस्तु नहीं है । माला के सूत्र में पिरोये हुए मणियों के समान यह समस्त ब्रह्माण्ड मुझमें पिरोया हुआ है ।’ (गीता ७।७)

ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त समस्त चराचर जगत–जो प्राकृतिक सृष्टि है, वह सब नश्वर है ।  तीनों लोकों के ऊपर जो गोलोक धाम है, वह नित्य है । गोलोक के अंदर अत्यन्त मनोहर ज्योति है; वह ज्योति ही परात्पर ब्रह्म है । वे परमब्रह्म अपनी इच्छाशक्ति से सम्पन्न होने के कारण साकार और निराकार दोनों रूपों में अवस्थित रहते हैं । ब्रह्माजी की आयु जिनके एक निमेष (पलक झपकने) के बराबर है, उन परात्पर ब्रह्म को ‘कृष्ण’ नाम से जाना जाता है । 

परमात्मा श्रीकृष्ण से विराट् पुरुष की उत्पत्ति

प्रलय काल में भगवान श्रीकृष्ण ने दिशाओं, आकाश के साथ सम्पूर्ण जगत को शून्यमय देखा । न कहीं जल, न वायु, न ही कोई जीव-जन्तु, न वृक्ष, न पर्वत, न समुद्र, बस घोर अन्धकार ही अन्धकार । सारा आकाश वायु से रहित और घोर अंधकार से भरा विकृताकार दिखाई दे रहा था । परमात्मा श्रीकृष्ण अकेले थे । तब उन प्रभु में सृष्टि की इच्छा हुई और उन्होंने स्वेच्छा से ही सृष्टि रचना आरम्भ की । 

सृष्टि के अवसर पर परब्रह्म परमात्मा दो रूपों में प्रकट हुए–प्रकृति और पुरुष । उनका आधा दाहिना अंग ‘पुरुष’ और आधा बांया अंग ‘प्रकृति’ हुआ । यही ‘माया’ है । जैसे चावल को बोने से चावल पैदा नहीं होता, छिलका सहित चावल जिसे धान कहते हैं, को बोने से चावल पैदा होता है; उसी प्रकार परमात्मा जब अकेला होता है, तब वह निष्क्रिय होता है, माया के साथ ही परब्रह्म परमात्मा जगत की उत्पत्ति करता है ।

मायाविशिष्ट परमात्मा श्रीकृष्ण ने अपने संकल्प से अपने ही स्वरूप से विभिन्न विभूतियों को प्रकट किया ।

भगवान श्रीकृष्ण का शुक्र जल में गिरा । वह एक हजार वर्ष के बाद एक अंडे के रूप में प्रकट हुआ । उसी से ‘विराट् पुरुष’ की उत्पत्ति हुई, जो सम्पूर्ण विश्व के आधार व अनन्त ब्रह्माण्डनायक हैं । वे स्थूल से भी स्थूलतम हैं । उनसे बड़ा दूसरा कोई नहीं है; इसलिए वे महा विराट् नाम से प्रसिद्ध हुए । 

यह विराट् पुरुष ही प्रथम जीव होने के कारण समस्त जीवों का आत्मा, जीवरूप में परमात्मा का अंश और प्रथम प्रकट होने के कारण भगवान का आदि अवतार है । इन्हें ‘आदि पुरुष’ (adi purusa) भी कहते हैं ।

भूख से आतुर वह विराट् पुरुष रोने लगा और भगवान की स्तुति करने लगा । तब भगवान ने प्रकट होकर कहा–

‘प्रत्येक लोक में वैष्णव भक्त जो नैवेद्य अर्पित करता है, उसका सोलहवां भाग तो भगवान विष्णु का होता है तथा पन्द्रह भाग इस विराट् पुरुष के होते हैं; क्योंकि ये स्वयं परिपूर्णतम श्रीकृष्ण का विराट् रूप हैं । उन परिपूर्णतम परमात्मा श्रीकृष्ण को तो नैवेद्य से कोई प्रयोजन नहीं है । भक्त उनको जो कुछ भी नैवेद्य अर्पित करता है, उसे वे विराट् पुरुष ग्रहण करते हैं ।’

भगवान श्रीकृष्ण ने विराट् पुरुष को वर देते हुए कहा–

‘तुम बहुत काल तक स्थिर भाव से रहो, जैसे मैं हूँ वैसे ही तुम भी हो जाओ । असंख्य ब्रह्मा के नष्ट होने पर भी तुम्हारा नाश नहीं होगा । प्रत्येक ब्रह्माण्ड में तुम अपने अंश से क्षुद्र विराट् रूप में स्थित रहोगे । तुम्हारे नाभि-कमल से उत्पन्न होकर ब्रह्मा विश्व का सृजन करने वाले होंगे । सृष्टि के संहार के लिए ब्रह्मा के ललाट से ग्यारह रूद्रों का आविर्भाव होगा । उन रूद्रों में जो ‘कालाग्नि’ नाम का रूद्र है, वही विश्व के संहारक होंगे । विष्णु विश्व की रक्षा के लिए तुम्हारे क्षुद्र अंश से प्रकट होंगे । तुम मुझ जगत्पिता और मेरे हृदय में निवास करने वाली जगन्माता को ध्यान के द्वारा देख सकोगे ।’

काल, स्वभाव, कार्य, कारण, मन, पंच महाभूत, अहंकार, तीनों गुण, इन्द्रियां, ब्रह्माण्ड शरीर, स्थावर-जंगम जीव–सब-के-सब उन अनन्त भगवान के ही रूप हैं । वे ही ‘महाविष्णु’ जाने जाते हैं । तेज में वे परमात्मा श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश के बराबर हैं । उनके एक-एक रोमकूप में एक-एक ब्रह्माण्ड स्थित हैं; अत: इनके रोमकूपों में कितने ब्रह्माण्ड हैं, उन सब की स्पष्ट संख्या बता पाना संभव नहीं । 

एक-एक ब्रह्माण्ड में अलग-अलग ब्रह्मा, विष्णु और शिव हैं । पाताल से ब्रह्मलोक पर्यन्त वे महार्णव के जल में शयन करते हैं । शयन करते समय इनके कानों के मल से दो दैत्य (मधु कैटभ) प्रकट हुए जिनका भगवान नारायण ने वध कर दिया, उन्हीं के मेदे से यह सारी मेदिनी पृथ्वी निर्मित हुई । उसी पर सम्पूर्ण विश्व की स्थिति है, जिसे ‘वसुन्धरा’ कहते हैं । 

श्रीकृष्ण की आज्ञानुसार वे विराट् पुरुष अपने अंश से ‘क्षुद्र विराट् पुरुष’ हो गए । इनकी सदा युवा अवस्था रहती है । ये श्याम वर्ण के व पीताम्बरधारी हैं और जल रूपी शय्या पर सोये रहते हैं ।  इनको ‘जनार्दन’ भी कहा जाता है ।

इसके बाद परमात्मा श्रीकृष्ण ने सृष्टि कर्ता ब्रह्माजी को महा विराट् के एक रोमकूप में स्थित क्षुद्र विराट् के नाभि-कमल से प्रकट होने का आदेश दिया । इन्हीं के नाभि-कमल से ब्रह्मा प्रकट हुए । ब्रह्मा उस कमलदण्ड में एक लाख युगों तक चक्कर लगाते रहे फिर भी पद्मनाभ की नाभि से उत्पन्न हुए कमलदण्ड तथा कमलनाल के अंतिम छोर का पता नहीं लगा सके । तब उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान व स्तुति की और भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा से ब्रह्माजी ने सृष्टि-रचना का कार्य आरम्भ कर दिया ।सर्वप्रथम ब्रह्मा से सनकादि चार मानस पुत्र हुए, उनके ललाट से शिव के अंश ग्यारह रूद्र हुए । क्षुद्र विराट् के वामभाग से जगत की रक्षा के लिए चतुर्भुज विष्णु हुए जो श्वेत द्वीप में निवास करते हैं ।

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