दक्ष प्रजापति ने अपने यज्ञ में सब देवों को तो निमंत्रित किया, किन्तु अपने दामाद भगवान शिव को आमंत्रित नहीं किया । सती इस मानसिक पीड़ा के कारण पिता को उचित सलाह देना चाहती थीं, किन्तु निमंत्रण न मिलने के कारण शिव उन्हें पिता के घर जाने की आज्ञा नहीं दे रहे थे । किसी तरह पति को मनाकर सती यज्ञ स्थल पहुंचीं और पिता को समझाने लगीं । पिता के तिरस्कार से क्रोध में सती ने यज्ञ-कुण्ड में कूद कर आत्माहुति डाल दी । शिवजी के गण वीरभद्र ने सती की मृत देह को कुण्ड से बाहर निकाला । भगवान शिव स्वयं यज्ञ स्थल (कनखल-हरिद्वार) पर पहुंचे । सती के पार्थिव शरीर को देखकर वे उसके मोह में पड़ गए । वे सती के शव-शरीर को कभी सिर पर, कभी दांये हाथ में, कभी बांये हाथ में तो कभी कंधे पर और कभी प्रेम से हृदय से लगाकर, चरणों के प्रहार से पृथ्वी को कम्पित करते हुए नृत्य करने । देवताओं को चिंता हुई कि ये जगत संहारक रुद्र कैसे शांत होंगे ? भगवान विष्णु ने शिव के मोह की शान्ति एवं अनन्त शक्तियों के निवासस्थान सती के देह के अंगों से लोक का कल्याण हो–यह सोचकर सुदर्शन चक्र द्वारा सती के शरीर के खण्ड-खण्ड कर दिए ।
सती के मृत शरीर के विभिन्न अंग और उन में पहने आभूषण 51 स्थलों पर गिरे; जिससे वे स्थल शक्तिपीठों के रूप में जाने जाते हैं । ‘देवी भागवत’ में 108 शक्तिपीठों का वर्णन है; परन्तु ज्यादातर पुराणों में उनके 51 शक्तिपीठों की ही मान्यता है ।
हिंगलाज शक्तिपीठ : आग्नेय शक्तिपीठ
‘हिंगलाज’ ‘आग्नेय शक्तिपीठ’ है । हिंगलाज देवी’ का मंदिर ‘अग्नि देवी’ के नाम से समर्पण किया हुआ है । यहां सती के अंगों में सर्वश्रेष्ठ अंग ‘ब्रह्मरन्ध्र’ (कपाल, किरीट) गिरा था; इसलिए 51 शक्तिपीठों में इसे सर्वश्रेष्ठ माना गया है । यहां सती ‘भैरवी, ‘कोट्टरी’ और शिव ‘भीमलोचन’ कहे जाते हैं ।
भारत के विभाजन के बाद हमारे अनेक तीर्थ स्थान पाकिस्तान में पड़ कर हम लोगों के लिए काफी दूर हो गए ।
यह शक्तिपीठ पश्चिमी पाकिस्तान में बलूचिस्तान के लासबेला स्थान में हिंगोल नदी के तट पर कराची से 90 मील उत्तर-पश्चिम में है । हिन्दू यात्री देवी को ‘हिंगलाज’ और ‘हिंगुदा’ कहते हैं । मां हिंगलाज की पूजा हिंदुओं के अतिरिक्त बलूचिस्तान के मुसलमान भी करते हैं । वे हिंगलाज देवी को ‘बीबी नानी’ और वहां की तीर्थयात्रा को ‘नानी की हज’ कहते हैं । वे देवी को लाल कपड़ा, अगरबत्ती, मोमबत्ती, इत्र-फुलेल तथा सिरनी चढ़ाते हैं ।
यहां गुफा के अंदर मां हिंगलाज का ज्योति के रूप में दर्शन होता हैं । हिंगलाज की गुफा में पृथ्वी से निकलती हुई ज्योति है । गुफा में हाथ-पैर के बल जाना पड़ता है । साथ में काली मां का भी दर्शन होता है ।
ऐसा माना जाता है कि श्रीराम ने रावण का वध करने के बाद ब्रह्महत्या से मुक्ति पाने के लिए यहां आकर तपस्या की थी और वे ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो गए थे । इसका प्रमाण यह है कि माता हिंगलाज की गुफा के बाहर पर्वत-शिखर से लटकती हुई शिला पर सूर्य और चन्द्र अंकित हैं । भगवान श्रीराम ने अपनी तपस्या के बाद अपनी उपस्थिति प्रमाणित करने के लिए अपने हाथों ये सूर्य-चन्द्र अंकित किए थे । यह एक अमानुष कृति है क्योंकि कोई भी मानव पर्वत शिखर से लटकती शिला पर इस प्रकार की आकृति अंकित नहीं कर सकता है ।
हिंगलाज देवी की पूजा की सामग्री है—दीपबत्ती, अगरबत्ती, कपूर, नारियल, पंचमेवा, सिंदूर, मिश्री, लाला कपड़ा और मणियों की माला जिसे ‘ठुमरा’ कहते हैं । इस चूना पत्थर की माला के पीछे एक पौराणिक कथा है—
‘ठुमरा’ और ‘आशापुरी’ मालाएं
हिंगलाज का ठुमरे का दाना प्रसिद्ध है । इसकी माला साधु लोग पहनते हैं । ये मालाएं चूना-पत्थर के मणि से बनती हैं । ऐसे पत्थर हिंगलाज क्षेत्र में ही मिलते हैं । ऐसी छोटी माला के दानों को ‘ठुमरा’ कहते हैं और बड़ी माला के दानों को ‘आशापुरी’ कहते हैं । ऐसी मालाएं खरीद कर यात्री हिंगलाज माता के चरणों में अर्पण करते हैं ।
इन ठुमरा और आशापुरी दानों के सम्बन्ध में एक पौराणिक कथा है—
एक बार कैलाश से भगवान शिव और माता पार्वती आशापुरी जंगल के रास्ते से हिंगलाज पीठ जा रहे थे । शिवजी ने पार्वती जी से कहा—‘मैं थक गया हूँ और भूखा भी हूँ । तुम यहां खिचड़ी पकाओ, तब तक में जंगल से बाहर निकलने का मार्ग ढूंढता हूँ ।’
शिव जी ने पार्वती जी की रक्षा के लिए एक मंत्र युक्त भस्म की रेखा खींच दी, ताकि यदि कोई उस रेखा का उल्लंघन करे तो भस्म हो जाए । इसके बाद शिवजी सुरक्षा के लिए अपना अमोघ त्रिशूल भी पार्वती जी को देकर वहां से निकल गए । पार्वती जी खिचड़ी बनाने लगीं ।
उसी समय एक भयंकर असुर वहां पर आया । घने जंगल में पार्वती जी को देख कर वह काम-पीड़ित हो गया और उन्हें पकड़ने के लिए दौड़ा । यह देखकर क्रुद्ध पार्वती जी ने शिव-त्रिशूल असुर के पेट में भोंक दिया । असुर के देह से जो रक्त का फुहारा छूटा, वह खिचड़ी में पड़ गया और वह अपवित्र हो गई ।
कुछ ही देर में शिवजी वापिस लौटे तो उन्होंने पार्वती जी के क्रोध को शांत किया । मरणासन्न असुर ने शिवजी के चरण-कमलों में अपना सिर रख कर उन से मुक्ति देने की प्रार्थना की । भगवान शिव तो ‘आशुतोष’ हैं, उन्होंने असुर को ‘तथास्तु’ कह दिया । तुरंत ही असुर की देह भस्म का पहाड़ बन गई और उसकी आत्मा शिव लोक चली गई ।
देवी पार्वती ने वह अपवित्र अन्न वन में फेंक दिया । खिचड़ी के दाने तुरंत चूना-पत्थर हो गए । इन चूना-पत्थरों को पवित्र ‘ठुमरा’ और ‘आशापुरी’ दाने (मणि) होने का पार्वती जी ने वरदान दिया ।
हिंगलाज शक्तिपीठ की यात्रा के नियम
कराची से 6 मील दूर ‘हाव’ नदी है । यहीं से हिंगलाज की यात्रा आरम्भ होती है । देवी के दर्शन कराने वाले पुरोहित को ‘छड़ीदार’ कहते हैं, जिसके हाथ में त्रिशूल के आकार की एक छड़ी रहती है, जिस पर पताका लगी रहती है । हिंगलाज शक्तिपीठ की यात्रा करते समय वहां के पंडे तीर्थयात्रियों को कुछ नियम बताते हैं । जैसे—
▪️ यात्रा का श्रीगणेश करते समय तीर्थयात्रियों को एक गेरुआ वस्त्र दिया जाता है और शपथ दिलाई जाती है कि ‘जब तक माता हिंगलाज के दर्शन कर वापिस नहीं लौटेंगे, तब तक संन्यास धर्म का पालन करेंगे ।’
▪️ एक-दूसरे की यथाशक्ति सहायता करेंगे ।
▪️ तीर्थ यात्री अपने हृदय में ईर्ष्या-द्वेष, निंदा आदि के भाव नहीं लायेंगे ।
▪️ किसी भी हालत में अपनी सुराही का पानी किसी दूसरे को नहीं देंगे । भले ही वे आपस में पति-पत्नी, पिता-पुत्र, मां-बेटा या गुरु-शिष्य ही क्यों न हों । अपनी सुराही का पानी स्वयं ही पियेंगे ।
▪️ जो इस नियम का उल्लंघन करेगा, उसकी मृत्यु संभव है ।
अत्यंत कठिन है हिंगलाज शक्तिपीठ की यात्रा
हिंगलाज शक्तिपीठ की यात्रा कराने वाले छड़ीदार तीर्थयात्रियों को अपनी-अपनी सुराही ‘हाव’ नदी से भर लेने का आदेश देते हैं । फिर माता हिंगलाज का जयकारा बोल कर रेगिस्तान की यात्रा शुरु होती है, जो कि आग की नदी में चलने के समान है । जहां भी पानी और ठहरने के लिए जगह मिले वहीं पड़ाव डालना होता है ।
मरुस्थल की यात्रा करते हुए चपटी पहाड़ियों के बीच एक धुआं उगलता हुआ ऊंचा पहाड़ आता है, जिसे ‘चन्द्रकूप-तीर्थ’ कहते हैं । यह अंदर से खौलता हुआ और आग उगलता हुआ ज्वालामुखी ही है ।
वहां जाकर हर व्यक्ति को अपने गुप्त पापों का विवरण देना होता है । जो अपने पापों (भ्रूण-हत्या और स्त्री-हत्या) को स्वीकार करके आगे वैसा न करने का वचन देता है, उसे ‘चन्द्रकूप-दरबार’ माता हिंगलाज के दर्शन के लिए आज्ञा दे देते हैं । जो अपने पापों को छिपाये रखते हैं, उसे दर्शन के लिए आगे जाने की आज्ञा नहीं मिलती है । पाप स्वीकार करने वालों का नारियल आदि पूजा चन्द्रकूप बाबा स्वीकार कर लेते है, पाप छिपाने वालों के नारियल वहीं पड़े रह जाते हैं ।
हिंगुलाज की गुफा तक पहुंचने से पहले अघोर नदी में स्नान करना पड़ता है और गीले कपड़ों से ही माता हिगलाज के महल में पहुंचते हैं । ऐसा माना जाता है कि यह महल मनुष्यों ने नहीं, यक्षों ने बनाया है । यह एक निराली रहस्यमयी नगरी है । हवा नहीं, प्रकाश नहीं, रंग-बिरंगे पत्थर लटके हुए । पिघले हुए पत्थरों की चाहर दीवारी एवं छत और नीचे भी रंगीन पत्थरों का फर्श ।
गुफा के अंतिम भाग में मां का सिंदूर लगा हुआ पाषाण विग्रह लाल वस्त्र से ढका रहता है । मां का रूप शयन मुद्रा का है अत: उनके शीश और नेत्र के दर्शन होते हैं । मंदिर के साथ ही गुरु गोरखनाथ का चश्मा है । ऐसा माना जाता है कि माता रोज सुबह यहां स्नान करने आती हैं ।
ऐसी मान्यता है कि आसाम की कामाख्या, तमिलनाडु की कन्याकुमारी, कांची की कामाक्षी, गुजरात की अम्बादेवी, प्रयाग की ललिता, विंध्याचल की अष्टभुजा, कांगड़ा की ज्वालामुखी, वाराणसी की विशालाक्षी, गया की मंगला देवी, बंगाल की सुंदरी, नेपाल की गुह्येश्वरी और मालवा की कालिका—इन बारह रूपों में आद्या शक्ति मां हिंगलाज सुशोभित हो रही हैं । कहा जाता है कि हर रात सभी शक्तियां यहां मिल कर रास रचाती हैं और दिन निकलते ही हिंगलाज देवी में समा जाती हैं ।
या देवी सर्वभूतेषु दयारूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम: ।।