‘श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन’—यह प्रभु श्रीरामचंद्रजी की बहुत ही लोकप्रिय आरती-स्तुति है । यह स्तुति गोस्वामी तुलसीदास रचित ‘विनय-पत्रिका’ (पद संख्या ४५) से ली गई है । यह स्तुति संस्कृत और अवधी मिश्रित भाषा में लिखी गई है ।
प्रभु श्रीरामचंद्रजी की यह आरती सबके संकटों और पीड़ाओं को हर लेने वाली है । इसके गायन से मनुष्य के दु:ख और पाप जल जाते हैं । यह आरती भक्तों के मन में स्थित अज्ञान के अंधकार को मिटा कर ज्ञान का सुंदर प्रकाश फैला देती है । आरती के समय हाथों से बजाई जाने वाली ताली का शब्द सुनकर मनुष्य के मन के विकार (काम, क्रोध, मद, मोह आदि) रूपी पक्षी तुरंत उड़ जाते हैं । मनुष्य आनंदपूर्वक जीवन बिता कर भवसागर से पार हो जाता है ।
समस्त सुखों की खान है श्रीराम की यह स्तुति
श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन हरण भवभय दारुणं ।
नवकंज-लोचन, कंज-मुख, कर-कंज, पद कंजारुणं ।। १ ।।
अर्थात्—हे मन ! कृपालु श्रीरामचंद्रजी का भजन कर । वे संसार के जन्म-मरण रूप दारुण भय को दूर करने वाले हैं, उनके नेत्र नए खिले कमल के समान हैं, मुख, हाथ और चरण भी लाल कमल के समान हैं ।
कंदर्प अगणित अमित छवि, नवनील नीरद सुंदरं ।
पट पीत मानहु तड़ित रुचि शुचि नौमि जनक सुतावरं ।। २ ।।
अर्थात्—उनके सौंदर्य की छटा अगणित कामदेवों से बढ़ कर है, उनके शरीर का नवीन नीले जल भरे बादलों के समान सुंदर वर्ण (रंग) है, नीले मेघ के समान शरीर पर पीताम्बर मानो बिजली के समान चमक रहा है, ऐसे पावन जानकी के पति श्रीरामचंद्रजी को मैं नमस्कार करता हूँ ।
भजु दीनबंधु दिनेश दानव-दैत्य-वंश निकंदनं ।
रघुनंद आनंदकंद कोशलचंद दशरथ-नंदनं ।। ३ ।।
अर्थात्—हे मन ! दीनों के बंधु, सूर्य के समान तेजस्वी, दानवों के वंश का समूल नाश करने वाले, आनन्दकंद, कोशल देश रूपी आकाश में निर्मल चंद्रमा के समान, दशरथनंदन श्रीराम का भजन कर ।
सिर मुकुट कुंडल तिलक चारु उदारु अंग विभूषणं ।
आजानुभुज शर-चाप-धर, संग्राम-जित-खरदूषणं ।। ४ ।।
अर्थात्—जिनके मस्तक पर रत्नजटित मुकुट, कानों में कुण्डल, भाल पर सुंदर तिलक और प्रत्येक अंग में सुंदर आभूषण सुशोभित हो रहे हैं; जिनकी भुजाएं घुटनों तक लम्बी हैं; जो धनुष-बाण लिए हुए हैं; जिन्होंने युद्ध में खर-दूषण को जीत लिया है ।
इति वदति तुलसीदास शंकर-शेष-मुनि-मन-रंजनं ।
मम हृदय कंज निवास कुरु, कामादि खल-दल-गंजनं ।। ५ ।।
अर्थात्—जो शिव, शेष और मुनियों के मन को प्रसन्न करने वाले और काम-क्रोध, लोभादि शत्रुओं का नाश करने वाले हैं । तुलसीदास प्रार्थना करता है कि वे श्रीरामचंद्रजी मेरे हृदय-कमल में सदैव निवास करें ।
मनु जाहि रांचेहु मिलिहि सो बरु, सहज सुंदर सांवरो ।
करुना निधान सुजान, सीलु सनेहु जानत रावरो ।। ६ ।।
अर्थात्—जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही स्वभाव से सुन्दर साँवला वर (श्रीरामचन्द्रजी) तुमको मिलेगा । वह जो दया का खजाना और सुजान (सर्वज्ञ) है, तुम्हारे शील और स्नेह को जानता है ।
एहि भांति गौरि असीस सुनि, सिय सहित हिय हरषी अली ।
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि, मुदित मन मंदिर चली ।। ७ ।।
अर्थात्—इस प्रकार श्रीगौरीजी का आशीर्वाद सुनकर जानकीजी समेत सभी सखियां हृदय में हर्षित हुईं । तुलसीदासजी कहते हैं, भवानीजी को बार-बार पूजकर सीताजी प्रसन्न मन से राजमहल को लौट चलीं ।
सोरठा—जानि गौरि अनुकूल, सिय हिय हरषु न जात कहि ।
मंजुल मंगल मूल, बाम अंग फरकन लगे ।। ८ ।।
अर्थात्—गौरीजी को अनुकूल जानकर सीताजी के हृदय में जो हर्ष हुआ वह कहा नही जा सकता । सुन्दर मंगलों के मूल उनके बाँये अंग फड़कने लगे ।
।। सियावर रामचंद्र की जय ।।
आपका बहुत बहुत आभार🔱🌿🙏🌿🔱 मेरे प्रभू का अतिसुन्दर रूप में व्याख्यान करने के लिए आपको सादर प्रणाम, अभिनन्दन🙏🙏🙏 सभी के लिए अपने ज्ञान द्वारा मार्गदर्शन करने के पुनः कोटि कोटि नमन🙏🙏🙏 प्रभु का सेवक ध्रुव🙏🙏🙏 8868000131