भक्ति का एक नाम है ‘श्रीकृष्णाकर्षिणी’ अर्थात् भक्ति श्रीकृष्ण को अपनी ओर आकर्षित करने वाली है । भगवान का दूसरा नाम प्रेम है और वे प्रेम के अधीन हैं । वे प्रेम के अतिरिक्त अन्य किसी साधन से नहीं रीझते हैं । प्रेमवश वह कुछ भी कर सकते हैं, कहीं भी सहज उपलब्ध हो सकते हैं । तुच्छ-से-तुच्छ मनुष्य के हृदय में भी यदि भगवान के प्रति प्रेम और भक्ति आ जाए तो भक्ति की प्रेम-डोर से बंध कर भगवान उसके घर तक पहुँच जाते हैं और उसके पीछे-पीछे डोलते हैं । भगवान ने कहा भी है—‘मैं भक्तों का दास भक्त मेरे मुकुटमणि ।’
ऐसे कई उदाहरण हमें पुराणों में देखने को मिलते हैं । इनमें से एक है सदन कसाई का, जिसकी भक्ति से आकृष्ट होकर भगवान शालिग्राम रूप होकर उसके तौलने का बाट (बटखरा, पत्थर का टुकड़ा जो चीजें तौलने के काम में आता है) बन गए ।
भक्त सदन कसाई
मांस का व्यापार करने वाले कसाई के घर सदन का जन्म हुआ था । पूर्वजन्म के संस्कार के कारण बचपन से ही सदन दिन-रात भगवन्नाम जप व कीर्तन में लगे रहते । यद्यपि वे जाति से कसाई थे; परन्तु उनका हृदय दया, प्रेम, भक्ति जैसे वैष्णवोचित गुणों से परिपूर्ण था । आजीविका के लिए कोई दूसरा साधन न होने के कारण वे दूसरों के यहां से मांस लाकर बेचा करते थे, स्वयं पशु हिंसा नहीं करते थे । सदन का मन श्रीहरि के चरणों में लगा रहता, वे दिन-रात ‘श्रीहरि श्रीहरि’ करते रहते थे ।
जाति पांति पूछै नहिं कोई ।
हरि को भजै सो हरि का होई ।।
भगवान भी अपने ऐसे भक्तों से दूर नहीं रह पाते हैं । जैसे भक्त को भगवान के बिना चैन नहीं पड़ता, वैसे ही भगवान को भी भक्त के बिना चैन नहीं पड़ता था । इस भगवत्प्रेम में न ऊंच है न नीच, न छोटा है न बड़ा । न मंदिर है न जंगल । न धूप है न चैन । है तो बस प्रेम की पीड़ा; इसे तो बस भोगने में ही सुख है । यह प्रेम भक्त और भगवान दोनों को समान रूप से तड़पाता है ।
इसी तड़प में भगवान शालिग्राम रूप में आकर सदन कसाई के घर में विराजमान हो गए । सदन को इस बात का पता नहीं था । वे तो शालिग्रामजी को पत्थर का एक बाट समझ कर उससे मांस तौला करते थे ।
एक दिन एक साधु सदन की दूकान के सामने से जा रहे थे । बाट पर दृष्टि पड़ते ही वे शालिग्रामजी को पहचान गए । मांस बेचने वाले कसाई के यहां अपवित्र अवस्था में शालिग्रामजी को देखकर उन्हें बहुत दु:ख हुआ । साधु ने सदन से वह चमकीला बाट मांग लिया और उसे अपनी कुटिया में लाकर उसकी विधि-पूर्वक पूजा की ।
भगवान केवल प्रेम के भूखे हैं, उन्हें न तो किसी पदार्थ या वस्तु की चाह है और न ही किसी मंत्र या विधि की ।
भगवान ने साधु को रात्रि में स्वप्न में कहा—‘तुम मुझे यहां क्यों ले आए हो ? मुझे तो अपने भक्त सदन के घर पर ही बड़ा सुख मिलता था । जब वह मांस तौलने के लिए मुझे उठाता, तब उसके हाथों के शीतल स्पर्श से मुझे बहुत आनन्द मिलता था । जब वह ग्राहकों से बात करता था, तब उसके शब्द मुझे मंत्रोच्चार व मधुर स्तोत्र जान पड़ते थे । जब वह नाच-गाकर मेरा नाम लेता, तब मेरा रोम-रोम पुलकित हो जाता । तुम मुझे वहीं पहुंचा दो, उसके बिना मुझे एक क्षण भी चैन नहीं मिलता है ।’
साधु महाराज सुबह होते ही शालिग्रामजी को सदन को दे आए, साथ ही उसे भगवत्कृपा का महत्व भी समझा आए । सदन को जब यह पता लगा कि मेरा यह बाट भगवान शालिग्राम हैं तो उसे बड़ा पश्चात्ताप हुआ । वह सोचने लगा—मैं कितना बड़ा पापी हूँ जो मैंने भगवान को मांस तौलने का बाट बना रखा था । उसे अपने व्यवसाय से घृणा हो गई और वह शालिग्रामजी को लेकर जगन्नाथपुरी को चल पड़ा ।
एक दिन संध्या समय सदन एक गांव में एक गृहस्थ के घर रुके । घर में पति-पत्नी दो ही व्यक्ति थे । आधी रात के समय सदन के स्वस्थ व सुंदर रूप पर मोहित होकर वह स्त्री उससे काम-चेष्टा करमे लगी । सदन ने हाथ जोड़ कर विनती की—‘तुम तो मेरी माता हो, अपने बच्चे की परीक्षा न लेकर उसे आशीर्वाद दो ।’
परन्तु उस कामातुरा स्त्री ने समझा कि मेरे पति के भय से यह मेरी बात नहीं मानता है, सो उसने तलवार से अपने सोते हुए पति का वध कर दिया । कामान्ध कौन-सा पाप नहीं कर सकता ? सदन ने अब भी उसका आग्रह स्वीकार नहीं किया, तो वह स्त्री घर के द्वार पर आकर बैठ गई और छाती पीट-पीट कर चिल्लाने लगी—‘इस यात्री ने पहले मेरे पति को मार डाला और अब यह मेरे साथ बलात्कार करना चाहता है ।’
लोग सदन को पकड़ कर न्यायाधीश के पास ले गए । सदन अपने प्रभु की लीला देखते हुए अंत तक चुप ही रहे । न्यायाधीश की आज्ञा से सदन के दोनों हाथ काट दिए गए । भगवान के सच्चे भक्त इस प्रकार निरपराध कष्ट पाने पर भी उसे अपने स्वामी की दया ही मानते हैं ।
इसके बाद सदन भगवन्नाम जप करते हुए जगन्नाथपुरी की ओर चल पड़े । उधर पुरी में भगवान ने पुजारी को स्वप्न में आदेश दिया—‘मेरा भक्त सदन मेरे पास आ रहा है । पालकी लेकर जाओ और उसे सम्मानपूर्वक लेकर आओ ।’
पुरी आकर सदन ने जैसे ही जगन्नाथजी को दण्डवत् प्रणाम कर कीर्तन के लिए भुजाएं उठाईं, उनके दोनों हाथ पहले जैसे हो गए । लेकिन सदन के मन में एक शंका पैदा हो गई कि भगवान ने मेरे हाथ क्यों काटे ? भगवान के राज्य में कोई निरपराध तो दण्ड पाता नहीं ।
रात्रि में भगवान ने सदन को स्वप्न में बताया—‘तुम पूर्वजन्म में काशी के विद्वान ब्राह्मण थे । एक दिन एक गाय कसाई के घेरे से भागी जाती थी । गाय ने तुम्हें देकर हुंकार लगाई; लेकिन तुमने गाय के गले में दोनों हाथ डाल कर उसे भागने से रोक दिया और कसाई ने उसे पकड़ लिया । वही गाय यह स्त्री थी और कसाई उसका पति था । पूर्वजन्म का बदला लेने के लिए उसने पति का गला काटा । तुमने भयभीत गाय का गला पकड़ कर कसाई को सौंपा था, इस पाप के कारण तुम्हारे हाथ काटे गए; परन्तु इस दण्ड से तुम्हारे पाप का नाश हो गया ।’
बहुत समय तक जगन्नाथपुरी में निवास कर सदन भगवान के चरणों में देह-त्याग कर परमधाम पधार गए ।भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के बारहवें अध्याय में कहा है कि ‘मुझे वही भक्त प्रिय है जो सुख-दु:ख की प्राप्ति में सम, क्षमावान, जिस किसी भी प्रकार से शरीर का निर्वाह होने में सदा संतुष्ट रहने वाला, इन्द्रियों को वश में रखने वाला व मन-बुद्धि को मुझमें ही समर्पित किए रहता है । भक्त से कोई भी उद्विग्न नहीं होता और न वह स्वयं किसी से उद्विग्न होता है ।’