परमात्मा का सबसे सुन्दर और माधुर्य से भरा मानवीय रूप हैं भगवान श्रीकृष्ण । निर्गुण, निराकार परब्रह्म जब आनन्द अवतार के रूप में सगुण, साकार रूप लेते है, वह रूप है नंदनन्दन श्रीकृष्ण का । वे परब्रह्म परमात्मा है; परन्तु व्रज में श्रीकृष्ण नन्दनन्दन हैं, यशोदानन्दन हैं और इन सबसे ऊपर ‘मधुरता के ईश्वर’—‘मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्’ हैं ।
मधुरता के ईश्वर भगवान श्रीकृष्ण
भगवान श्रीकृष्ण प्रेम, आनन्द और माधुर्य के अवतार माने जाते हैं । अपनी व्रज लीला में उन्होने सबको इन्हीं का ही वितरण किया । अपनी माधुर्य शक्ति से वे जीव को अपनी ओर आकर्षित कर कहते हैं–’तुम यहां आओ ! मैं ही सच्चा आनन्द हूँ । मैं तुमको आत्मस्वरूप का दान करने के लिए बुलाता हूँ ।’
भगवान श्रीकृष्ण में चार प्रकार के असाधारण माधुर्य हैं—
- रूप माधुर्य,
- वेणु माधुर्य,
- प्रेम माधुर्य
- लीला माधुर्य ।
१. भगवान श्रीकृष्ण का रूप-माधुर्य
श्रीकृष्ण सुन्दरतम हैं—भगवान में एक सौंदर्य शक्ति होती है, जिससे प्रत्येक प्राणी उनमें आकृष्ट हो जाता है । जिस प्रकार मनुष्य तपस्या के द्वारा ब्रह्मत्व प्राप्त करता है, परब्रह्म भी उसी प्रकार तपस्या के द्वारा मानवत्व को प्राप्त करता है । मनुष्य की तपस्या का नाम ‘साधना’ है और ईश्वर की तपस्या का नाम ‘करुणा’ है । साधना से मनुष्य ऊपर उठता है, करुणा से ईश्वर अवतरित होता है–नीचे उतरता है । अवतरित होकर जब भगवान एकदम मनुष्य हो जाते हैं–तब वे सुन्दरतम हो जाते हैं, माधुर्य से पूर्ण । श्रीकृष्ण के अंग-प्रत्यंग का अपार माधुर्य और उनकी मनोहर मंद मुस्कान ही उनको ‘मनमोहन’ बनाती है ।
श्रीकृष्ण के शाश्वत नव-किशोर नटवर रूप से केवल जगत ही मुग्ध नहीं होता, वे आप भी अपने उस रूप से विमुग्ध हो जाते हैं । भक्तों के मुख से तो उनकी रूप माधुरी देखकर बरबस ही निकल पड़ता है—
देखो री ! यह नंद का छोरा बरछी मारे जाता है ।
बरछी-सी तिरछी चितवन की पैनी छुरी चलाता है ।।
हमको घायल देख बेदरदी मंद-मंद मुसकाता है ।
‘ललितकिसोरी’ जख़म जिगर पर नौनपुरी बुरकाता है ।।
कामदेव संसार के प्रत्येक प्राणी को मोहित करने में समर्थ है, वही जिस समय अपने दल-बल सहित भगवान श्रीकृष्ण के सामने आया तो उनका लावण्य देखकर मानो धूलि में मिल गया । इसी से श्रीकृष्ण को ‘मन्मथमन्मथ:’ अर्थात् ‘कामदेव के मन को भी हिला देने वाले’ कहा गया है ।
महाप्रभु वल्लभाचार्यजी ने श्रीकृष्ण के माधुर्य पर ‘मधुराष्टक’ की रचना की जिसका कुछ अंश इस प्रकार है—
अधरं मधुरं वदनं मधुरं नयनं मधुरं हसितं मधुरम् ।
हृदयं मधुरं गमनं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥१॥
वचनं मधुरं चरितं मधुरं वसनं मधुरं वलितं मधुरम् ।
चलितं मधुरं भ्रमितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥२॥
अर्थात्—आपके होंठ मधुर हैं, आपका मुख मधुर है, आपकी ऑंखें मधुर हैं, आपकी मुस्कान मधुर है, आपका हृदय मधुर है, आपकी चाल मधुर है, मधुरता के ईश हे श्रीकृष्ण ! आपका सब कुछ मधुर है ।।१।।
आपका बोलना मधुर है, आपके चरित्र मधुर हैं, आपके वस्त्र मधुर हैं, आपका तिरछा खड़ा होना (अंगभंगी) मधुर है, आपका चलना मधुर है, आपका घूमना मधुर है, मधुरता के ईश हे श्रीकृष्ण ! आपका सब कुछ मधुर है ।।२।
२. भगवान श्रीकृष्ण का वेणु-माधुर्य
वेणुनाद कर भगवान हमको पुकारते हैं—जीव परमात्मा का अंश होकर भी अपना सच्चा स्वरूप भूल गया है । जीव को अपने पास बुलाने के लिए परमात्मा श्रीकृष्ण बाँसुरी बजाते हैं और संकेत देते हैं–‘आओ ! अपने एक स्पर्श से तुम्हारे जन्म-जन्मान्तर की तपन बुझा दूंगा, तुम्हारी युग-युग की प्यास बुझा दूंगा ।’
श्रीकृष्ण समस्त जीवों को आकर्षित करने के लिए बाँसुरी बजाते हैं । वंशी की तान से वे संसार को अपनी ओर बुलाते हैं । जब वे वंशी में फूँक देते हैं, तब वंशी के छिद्रों के मार्ग से अपने होठों की माधुर्यराशि को अंदर डाल देते हैं । वही माधुर्य नादरूप में परिणित होकर समस्त जगत में व्याप्त हो जाता है ।
वंशी छिद्राकाश में कर मधु शब्द प्रवेश ।
नाद रूप से निकल कर छाया सारे देश ।।
योगी भूले योग को, टूटा मुनि का ध्यान ।
कामिनि कानन को चली, तज कुल-लज्जा-मान ।। (डॉ. महानामव्रतजी ब्रह्मचारी)
भगवान श्रीकृष्ण की वेणु की आकर्षण-शक्ति अलौकिक है । उस ध्वनि से सम्पूर्ण विश्व में आलोडन उपस्थित हो जाता है । इस वेणु के मादक स्वरों के बन्धन में बंधकर देवता, मनुष्य और तपस्वी संत भी अपनी ज्ञान-भक्ति को भूल जाते हैं ।
बाँसुरी बजाई आछे रंग सौं मुरारी ।
सुनि कैं धुनि छूटि गई संकर की तारी ।।
वेद पढ़न भूलि गए ब्रह्मा ब्रह्मचारी ।
रसना गुन कहि न सकै, ऐसि सुधि बिसारी ।।
इंद्र सभा थकित भई, लगी जब करारी ।
रंभा कौ मान मिट्यौ, भूली नृतकारी ।।
जमुना जू थकित भईं, नहीं सुधि सँभारी ।
सूरदास मुरली है तीन लोक प्यारी ।।
लेकिन प्रश्न यह है कि ‘वंशीध्वनि है कहां, वह तो सुनाई नहीं देती? इसका उत्तर यह है कि ‘संसार के कर्म-कोलाहल से हमारे कान बहरे हो गए हैं, इसी कारण हम इस वंशीध्वनि को सुन नहीं पाते हैं। इस बहरेपन को दूर करने की एक दवा है–जो कान इसे सुनने-योग्य होते हैं वही इसे सुन पाते हैं। अत: जिनका हृदय व चित्त श्रीकृष्ण की ओर लगा है, उनका संग करो । दैहिक संग न हो सके तो मानस संग करो । नित्य कथा-श्रवण से मानस संग होता है इससे चित्त श्रीकृष्णानुप्राणित हो (श्रीकृष्ण के रंग में रंग) जाता है ।
३. भगवान श्रीकृष्ण का प्रेम-माधुर्य
व्रजवासियों के निश्चल प्रेम के वशीभूत होकर परब्रह्म श्रीकृष्ण अपने स्वरूप को पूर्णरूप से भूल जाते हैं–वे कितने बड़े हैं—त्रैलोक्यपति हैं और व्रज में कितने छोटे हो जाते हैं । यही उनका प्रेम माधुर्य है । जिसके भय से यमराज डरते हैं, वह मां यशोदा से भयभीत होकर काँपते हुए झूठ बोलने लगते हैं । स्वतन्त्र पुरुष होकर भी भगवान श्रीकृष्ण व्रज के विशुद्ध प्रेम से व्रजवासियों के पूर्णत: अधीन हो जाते हैं । श्रीकृष्ण खेल में हारकर श्रीदामा के घोड़े बने और श्रीदामा श्रीकृष्ण पर सवार होकर इन्हें भाण्डीरवट तक ले गए ।
गोपबालकों के साथ कन्हैया गोपियों के घरों में माखन की चोरी करते हैं । यशोदामाता के पास इसी बात को लेकर डांटे-फटकारे जाते हैं और सहन भी करते हैं । भूखे होकर रोने भी लगते हैं । इसी व्रज में श्रीकृष्ण ने मानिनी श्रीराधा के चरणों की साधना की । व्रज में तनिक से माखन के लिए कभी नृत्य करते हैं तो कभी याचक बनने में भी संकोच नहीं करते हैं—
ब्रज में नाचत आज कन्हैया मैया तनक दही के कारण ।
तनक दही के कारण कान्हां नाचत नाच हजारन ।।
इन ब्रजेन्द्रनन्दन की भक्तपराधीनता में इतना माधुर्य है कि व्रजवासियों के प्रेमरस से पगी छाछ को पाने के लिए वे अहीर की छोकरियों (गोपियों) के इशारों पर तरह-तरह के नाच नाचता-फिरता है–
नारद-से सुक व्यास रटैं,
पचिहारे, तऊ पुनि पार न पावैं ।
ताहि अहीरकी छोहरियाँ,
छछियाभरि छाछपै नाच नचावैं।। (रसखानि)
४. भगवान श्रीकृष्ण का लीला-माधुर्य
भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं में ऐश्वर्य और माधुर्य दोनों ही विद्यमान रहते हैं किन्तु वृन्दावनलीला में ये दोनों मिलकर एक ऐसा माधुर्य उत्पन्न कर देते हैं जो वर्णनातीत है । भगवान श्रीकृष्ण स्तनपान करते-करते पूतना का वध करते हैं । पूतना के वध में ऐश्वर्य है, स्तनपान में माधुर्य है । दोनों का यह मिलन चमत्कारपूर्ण है । श्रीकृष्ण ने नाचते-नाचते कालियनाग के फणों को चूर-चूरकर उसका दमन किया । कालिय-दमन में ऐश्वर्य है । मधुर नृत्य में अपूर्व माधुर्य है । दोनों का मिलना लीला-माधुर्य है । व्रज की यह लीलाएं असीम माधुर्य से पगी हैं ।
करणं मधुरं तरणं मधुरं हरणं मधुरं रमणं मधुरम्।
वमितं मधुरं शमितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥ (मधुराष्टक ५)
अर्थात्—आपके कार्य मधुर हैं, आपका तैरना मधुर है, आपका चोरी करना मधुर है, आपका प्यार करना मधुर है, आपके शब्द मधुर हैं, आपका शांत रहना मधुर है, मधुरता के ईश हे श्रीकृष्ण ! आपका सब कुछ मधुर है ॥
इन चार प्रकार के माधुर्य से मधुमय होकर श्यामसुन्दर सुन्दरतम हो गए । वे सुख की राशि हैं, आनन्द की महान राशि हैं, रूप की राशि हैं; गुण की राशि हैं; यौवन की राशि हैं; शील की राशि हैं; यश की राशि हैं; दया की राशि हैं; विद्या की राशि हैं; बल की राशि हैं; चतुरता की राशि हैं; छल-कौशल की राशि हैं; कला की राशि हैं; जो उनको जैसे भजता है, वे उसे वही देने वाले हैं।