लीलानट श्रीकृष्ण की प्रत्येक लीला संसार को किसी-न-किसी ज्ञान से अवगत कराती है । तुलसी दल की महिमा से संसार को परिचित कराने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने देवर्षि नारद से लीला करवाई; जिसमें सत्यभामाजी ने स्वयं भगवान श्रीकृष्ण को दान कर दिया था । ‘तुलसी दल की महिमा’ दर्शाती यह कथा इस प्रकार है—
‘सत्यभामाजी द्वारा नारदजी को श्रीकृष्ण का दान’
इस कथा को जानने से पहले सत्यभामाजी के पूर्वजन्म के पुण्यकर्मों को जानते हैं; जिससे उन्हें अगले जन्म में श्रीकृष्ण पति के रूप में प्राप्त हुए—
पद्मपुराण की कथानुसार त्रेतायुग में हरिद्वार में देवशर्मा नामक एक विद्वान ब्राह्मण थे जो सूर्य की आराधना करके सूर्य के समान तेजस्वी हो गए । उनकी गुणवती नामक एक पुत्री थी । एक बार देवशर्मा अपने जामाता चन्द्र के साथ पर्वत पर कुश और समिधा लेने गये । वहां एक राक्षस ने उनकी हत्या कर दी । पिता और पति की मृत्यु से गुणवती अनाथ हो गयी ।
वह भगवान को अपना नाथ मानकर दो व्रतों का पालन करती थी–एक था एकादशी का उपवास और दूसरा कार्तिक-स्नान और तुलसी पूजा । कार्तिक के महीने में सूर्य जब तुला राशि पर रहते हैं, तब वह प्रात:काल स्नान करती थी, दीपदान और तुलसी की सेवा तथा भगवान विष्णु के मन्दिर में झाड़ू दिया करती थी । प्रतिवर्ष कार्तिक-व्रत का पालन करने से मृत्यु के बाद वह वैकुण्ठलोक गयी ।
पृथ्वी का भार उतारने के लिए जब भगवान ने कृष्णावतार लिया, तब उनके पार्षद यादवों के रूप में अवतीर्ण हुए । गुणवती के पिता देवशर्मा सत्राजित् हुए। गुणवती उनकी पुत्री सत्यभामा हुई । चन्द्र ब्राह्मण अक्रूर हुए । पूर्वजन्म में गुणवती ने भगवान के मन्दिर के द्वार पर तुलसी की वाटिका लगा रखी थी; इसके फलस्वरूप सत्यभामाजी के आंगन में कल्पवृक्ष लगा हुआ था । गुणवती ने कार्तिक में दीपदान किया था, उसके फलस्वरूप उनके घर में लक्ष्मी स्थिररूप से रह रही थीं । गुणवती ने सभी कर्मों को परमपति भगवान विष्णु को समर्पित किया था, इसलिए सत्यभामा बनकर भगवान श्रीकृष्ण को पति के रूप में प्राप्त किया और भगवान से उनका कभी वियोग नहीं हुआ ।
सत्यभामा द्वारा नारदजी को श्रीकृष्ण का दान
एक बार महर्षि नारद के मन में तुलसीदल की महिमा संसार को बताने की इच्छा हुई । बस क्या था ! वे द्वारकाधीश श्रीकृष्ण की परम उपासिका पत्नी सत्यभामाजी के महल में पहुंच गए । वहां उनका बहुत स्वागत हुआ ।
सत्यभामाजी ने नारदजी से पूछा—‘मुनिवर ! क्या शास्त्र, पुराण, वेद, उपनिषद आदि में कोई ऐसा साधन बताया गया है, जिसके अनुष्ठान से मुरली-मनोहर प्रभु श्यामसुन्दर जन्म-जन्मान्तर, युग-युगान्तर, कल्प-कल्पांतर तक हमें प्रेमी-पति के ही रूप में प्राप्त हो सकें ?’
देवर्षि नारद ने मुस्कराते हुए कहा—‘इसके लिए एक बहुत सरल साधन है । जो वस्तु पूरी श्रद्धा से सुयोग्य पात्र को शुभ अवसर पर प्रदान की जाती है, वह परलोक में और अन्य जन्मों में अनन्त गुना होकर दाता को प्राप्त होती है । आप अपने पति भगवान श्रीकृष्ण को ही शुभ मुहुर्त में श्रद्धापूर्वक किसी सत्पात्र ब्राह्मण को दान कर दें । इस विशिष्ट दान से श्रीकृष्ण सदा के लिए आपको ही पति के रूप में प्राप्त होते रहेंगे ।’
नारदजी के मुंह से यह बात सुन कर सत्यभामाजी ने कहा—‘संयोग से जब आप उपस्थित हैं, तो मैं दूसरा सत्पात्र कहां ढूंढ़ूंगी । इससे बढ़ कर मेरा सौभाग्य क्या होगा ? आप ही मेरा यह पवित्र कार्य सम्पादित करा दें और मेरी प्रार्थना स्वीकार कर इस महादान को आप ही ग्रहण करने की कृपा करें ।’
नारदजी ने अपनी स्वीकृति दे दी और संकल्प पढ़ कर सत्यभामाजी द्वारा दिए गए पतिदान को ग्रहण कर लिया । इसके बाद सत्यभामाजी और नारदजी श्रीकृष्ण के पास गए ।
नारदजी ने उनसे कहा—-‘भगवन् ! सत्यभामाजी द्वारा अब आप मुझको दान दिए जा चुके हो । मेरी वीणा उठाइए और चलिए मेरे साथ ।’
श्रीकृष्ण को नारदजी के साथ जाते देखकर सभी रानियां घबरा गईं । सत्यभामाजी से सारी बात ज्ञात होने पर वे कहने लगीं—‘अरी बावरी ! तुमने यह क्या किया ? क्या कभी अपने पति का भी दान किया जाता है ?’
अत्यन्त दीनता से रानियों ने नारदजी से कहा—‘देवर्षि ! क्या इसका कोई समाधान है ?’
नारदजी ने कहा—‘एक समाधान है—श्रीकृष्ण के बराबर अन्य किसी वस्तु का दान कर दिया जाए ।’
फिर क्या था, सभी रानियों ने पल भर में ही श्रीकृष्ण को तराजू के एक पलड़े पर बिठा दिया और दूसरे पलड़े पर अनन्त रत्न, स्वर्ण-आभूषण आदि बहुमूल्य पदार्थ रख दिए । किन्तु भगवान को कौन किस वस्तु से तौल सकता है ?
अंत में सभी रानियां श्रीकृष्ण के विरह की संभावना से प्रेमविह्वल होकर अश्रुपात करने लगीं । तब प्रभु का संकेत पाकर सत्यभामाजी ने एक तुलसी दल तराजू के दूसरे पलड़े पर रख दिया । प्रभु का पलड़ा तुलसी दल की तुलना में हल्का पड़ गया । केवल तुलसी दल ही पलड़े पर रह गया अन्य सभी वस्तुएं पलड़े से हटा दी गईं । प्रभु के द्वारा तुलसी दल की महामहिमा देखकर सभी रानियां अत्यन्त प्रसन्न हो गईं ।
तुलसी दल की महिमा का यही रहस्य भगवान को जगत को दिखाना था ।
तुलसीदलमात्रेण जलस्य चुल्लुकेन च ।
विक्रीणीते स्वमात्मानं भक्तेभ्यो भक्तवत्सल: ।।
अर्थात्—भगवान ऐसे भक्तवत्सल हैं कि यदि कोई एक तुलसी दल एवं एक चुल्लु जल भी भगवान को प्रेम से अर्पण करता है तो वे भक्त के हाथ स्वयं बिक जाते हैं । तुलसी भगवान विष्णु को अत्यंत प्रिय है, इसलिए वैष्णवी’ नाम से जानी जाती है । तुलसी के एक पत्ते से भगवान विष्णु/श्रीकृष्ण की पूजा करने से मनुष्य वैष्णवत्व प्राप्त करता है ।