देवी श्रीविद्या : एक परिचय
सामान्यत: ‘श्री’ शब्द का अर्थ लक्ष्मी माना जाता है किन्तु पुराणों के अनुसार ‘श्री’ शब्द का वास्तविक अर्थ महात्रिपुरसुन्दरी ही है । महालक्ष्मी ने महात्रिपुरसुन्दरी की दीर्घकाल तक आराधना करके जो अनेक वरदान प्राप्त किए, तभी से ‘श्री’ शब्द का अर्थ महालक्ष्मी होने लगा । ‘श्री’ शब्द श्रेष्ठता या पूज्यता को दर्शाता है और परब्रह्म ही सर्वश्रेष्ठ हैं । महात्रिपुरसुन्दरी साक्षात् ब्रह्मस्वरूपिणी होने से ‘श्री’ नाम से जानी जाती हैं और उनकी विद्या का मन्त्र ही ‘श्रीविद्या’ कहलाता है । श्रीविद्या की साधना से मनुष्य को लौकिक फल (धन-धान्य, पशु, पुत्र, स्वर्ग आदि) तो प्राप्त होते ही हैं साथ ही आत्मज्ञान का फल भी प्राप्त होता है । श्रीविद्या की साधना साधक के अज्ञान को दूरकर आत्मतत्त्व को प्रकाशित करती है इसलिए इसे ब्रह्मविद्या भी कहते हैं ।
भगवान शंकर वाममार्ग के चौंसठ तन्त्रों का प्रतिपादन करके शान्त हो गए तब भगवती पराम्बा के आग्रह पर उन्होंने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष देने वाली इस ‘श्रीविद्या’ का प्राकट्य किया ।
श्रीविद्या ही महात्रिपुरसुन्दरी, त्रिपुरा, ललिता, षोडशी, राजराजेश्वरी, कामेश्वरी, बाला एवं पंचदशी नामों से जानी जाती हैं । इन्ही को ब्रह्मविद्या तथा ब्रह्ममयी भी कहते हैं ।
‘त्रिपुरा’ शब्द के कई अर्थ हैं—
- जो ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश इन तीनों से पुरातन हो ।
- ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश—त्रिमूर्ति की जननी होने से वह त्रिपुरा कहलाती हैं ।
- महाप्रलय में त्रिलोकी को अपने में लीन करने से श्रीविद्या त्रिपुरा नाम से प्रसिद्ध हुईं ।
- मन, बुद्धि और चित्त—ये तीन पुर हैं, इनमें रहने के कारण इनका नाम त्रिपुरा है ।
- तीन नाड़ियां—इड़ा, पिंगला और सुषुम्णा ही त्रिपुरा हैं ।
‘ललिता’ शब्द का अर्थ है जो संसार में सबसे अधिक शोभाशाली है, वही ‘ललिता’ है ।
दस महाविद्याओं में से तीसरी ‘षोडशी विद्या’ श्रीविद्या का ही एक रूप है ।
श्रीविद्या की उपासना का फल
श्रीविद्या की सिद्धि के लिए श्रीयन्त्र और मन्त्र की साधना की जाती है । अनेक जन्मों के पुण्य उदय होने पर और गुरुकृपा से यदि किसी मनुष्य को इस साधना का विधान प्राप्त हो जाए और वह पूर्ण समर्पण से इस साधना को करे तो यह विद्या कामधेनु की तरह साधक के सभी मनोरथ पूर्ण करती है । वह साधक विद्याओं में विद्यापतित्व और धनाढ्यता में लक्ष्मीपतित्व प्राप्त कर लेता है । सुन्दरता में वह कामदेव को पराजित करने लगता है, चिरंजीवी होकर जीवन्मुक्त हो जाता है और सदैव ‘ब्रह्मानन्द’ रस का पान करता है और ‘शिवयोगी’ कहलाता है ।
ब्रह्मविद्या को प्राप्त करने वाले शिवयोगी ब्रह्मानन्द का पान करके इतने मस्त हो जाते हैं कि स्वर्ग के अधिपति इन्द्र को भी अपने से कंगाल समझते हैं फिर उनके लिए पृथ्वी के राजाओं की तो कोई औकात ही नहीं रहती है । शिवयोगी निर्धन रहने पर भी सदा संतुष्ट रहता है, असहाय होने पर भी महाबलशाली होता है, उपवासी होने पर भी सदैव तृप्त रहता है । ब्रह्मविद्या के प्रभाव से ऐसा जीवन्मुक्त होकर वह ब्रह्म को ही प्राप्त हो जाता है और फिर वापिस नहीं लौटता—न स पुनरावर्तते न स पुनरावर्तते ।
मां त्रिपुरसुन्दरी अपने चरणों से देती हैं उपासक को वर और अभय का दान
भगवान शंकराचार्यजी ने अपने ‘सौन्दर्यलहरी’ स्तोत्र में बहुत सुन्दर लिखा है—
‘मां ! अन्य देवी-देवता अपने हाथों में वर और अभय की मुद्रा धारण करते हैं अत: उपासक को करकमलों से वस्तु और अभय देते हैं । परन्तु मां तो राजराजेश्वरी ब्रह्मविद्या हैं, उनके चारों हाथों में तो चार आयुध हैं । भक्तों की रक्षा और वर देने के लिए तो उनके चरण ही काफी है । जब चरणों से ही वर और अभयदान हो सकता है तो हाथों में क्यों आप वर-अभय मुद्रा धारण करें !
श्रीविद्या के उपासकों को इन बातों का ध्यान रखना चाहिए
- यह साधना केवल पुस्तक पढ़कर नहीं करनी चाहिए बल्कि योग्य गुरु से इसे प्राप्त कर साधना करनी चाहिए ।
- श्रीविद्या के उपासक को गुरु के मुख से प्राप्त मन्त्र को सदैव गोपनीय रखना चाहिए और सदैव अपने मन्त्र का ही चिन्तन करते रहने के साथ शिवोऽहम् की भावना करनी चाहिए ।
- इस साधना में गुरु-शिष्य सम्बन्ध का अत्यन्त महत्व है । अत: साधक को गुरु के प्रति श्रद्धावान होना जरुरी है ।
- गुरु को साधारण मनुष्य न मानकर शिव का स्वरूप समझना चाहिए ।
- अन्य देवी-देवताओं की निन्दा नहीं करनी चाहिए ।
- स्त्रियों से द्वेष न रखे, न ही उनकी निन्दा और प्रताड़ना करे ।
- काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और ईर्ष्या से दूर रहना चाहिए तथा इन्द्रियों पर संयम रखे ।
- कुसंगति से बचना चाहिए ।
- सदा निर्भय रहना चाहिए ।
- उपासक को ईख नहीं खानी चाहिए ।
- कुल वृक्षों को काटना नहीं चाहिए ।
हमारे देश में अति प्राचीन काल से ही श्रीविद्या की उपासना प्रचलित रही है । श्रीशंकराचार्यजी, उनके गुरु गोडपादस्वामी, विद्यारण्यस्वामी आदि अनेक वेदान्ती श्रीविद्या के उपासक रहे हैं । श्रीशंकराचार्यजी ने अपने सौन्दर्यलहरी स्तोत्र में श्रीविद्या के मन्त्र, यन्त्र व साधना का विस्तृत वर्णन किया है । श्रीविद्या की साधना का अनुष्ठान व प्रचार भगवान के चार अवतारों—भगवान दत्तात्रेय, भगवान हृयग्रीव, श्रीपरशुराम और आद्यशंकराचार्य ने किया ।
आत्मविद्या महाविद्या श्रीविद्या कामसेविता ।
श्रीषोडशाक्षरी विद्या त्रिकूटा कामकोटिका ।।
कामेश्वर, कामेश्वरी एवं पंच-प्रेतासन
महाकामेश महिषी पंचप्रेतासन स्थिता ।
सेयं विराजते देवी महात्रिपुरसुन्दरी ।।
मां त्रिपुरसुन्दरी (कामेश्वरी श्रीललिता ) पंच-प्रेतासन पर स्थित महाकामेश्वर के अंक में विराजमान रहती हैं । पंच-प्रेत हैं—ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, ईश्वर और सदाशिव । इन्हें प्रेत इसलिए कहा गया है क्योंकि ये सब ब्रह्मरूप हैं और अपनी-अपनी शक्तियों के साथ ही सृष्टि, पालन, संहार व अनुग्रह का कार्य करते हैं लेकिन जब ये अपनी शक्तियों से रहित होते हैं तो किसी भी कार्य को करने में असमर्थ हो जाते हैं और ‘प्रेत’ कहे जाते हैं । मां त्रिपुरसुन्दरी के आसन के ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और ईश्वर—ये चार पाद (पाये) हैं और सदाशिव उसके फलक (सिंहासन का वह भाग जिस पर कामेश्वर लेटे हैं) हैं, उस पर महाकामेश्वर के अंक में महाकामेश्वरी त्रिपुरसुन्दरी विराजमान हैं ।
मां त्रिपुरसुन्दरी के चार आयुध
मां त्रिपुरसुन्दरी के चार आयुध हैं—१. धनुष २. बाण, ३. पाश ४. अंकुश ।
- धनुष का ध्यान करने से संसार के महामोह का नाश होता है ।
- बाण के ध्यान से सुख की प्राप्ति होती है ।
- पाश के ध्यान से मृत्यु वश में हो जाती है ।
- अंकुश के ध्यान से मनुष्य माया से पार हो जाता है ।
श्रीविद्या की साधना के तीन रूप
१. स्थूल रूप में श्रीविद्या की आराधना ‘श्रीयन्त्र’ में की जाती है । श्रीयन्त्र श्रीमहात्रिपुरसुन्दरी का साक्षात् विग्रह है ।
२. श्रीविद्या के मन्त्र की साधना उसका सूक्ष्म रूप है ।
३. अपने शरीर में श्रीयन्त्र (श्रीचक्र) की भावना कर साधना करना ‘पर विद्या’ है ।
किन्तु यह विद्या अत्यन्त रहस्यमयी गुप्त विद्या है । यदि गुरु से किसी को यह विद्या प्राप्त हुई है तो उसके मन्त्र को गुप्त ही रखें । ब्रह्माण्डपुराण में लिखा है—‘राज्य दिया जा सकता है, सिर भी समर्पित किया जा सकता है परन्तु श्रीविद्या का मन्त्र कभी नहीं दिया जा सकता ।’