मंगल दिवस छठी को आयो ।
आनंदे व्रजराज जसोदा मनहुं अधन धन पायो ।।
कुंवर नहलाय जसोदा रानी कुलदेवी के पांव परायो ।
बहु प्रकार व्यंजन धरि आगें सब विधि भली मनायो ।।
सब ब्रजनारी बधावन आईं सुत को तिलक करायो ।।
जयजयकार होत गोकुल में परमानंद जस गायो ।।
छठी पूजा या षष्ठी पूजन
हिन्दुओं के घरों में शिशु जन्म के छठे दिन सायंकाल या रात्रि को जो विशेष पूजन किया जाता है, उसे बोलचाल की भाषा में ‘छठी पूजा’ कहते हैं । छठी पूजा नवजात शिशु के मंगल की कामना से की जाती है ।
कौन हैं षष्ठी देवी ?
मूलप्रकृति के षष्ठांश (छठा अंश) होने से इन्हें ‘षष्ठी देवी’ कहते हैं । पुराणों में षष्ठी देवी को ‘बालकों की अधिष्ठात्री देवी’, उनको दीर्घायु प्रदान करने वाली, उनकी धात्री (भरण-पोषण करने वाली) व उनकी रक्षा करने वाली और सदैव उनके पास रहने वाली माना गया है । इन्हें ‘विष्णुमाया’, ‘बालगा’, ‘सिद्धयोगिनी’ और स्वामी कार्तिकेय की पत्नी होने से ‘देवसेना’ भी कहते हैं।
षष्ठी देवी की कृपा से राजा प्रियव्रत का मृतपुत्र जीवित हो गया । तभी से बालक के जन्म के बाद सूतिकागृह में छठे या इक्कीसवें दिन व अन्नप्राशन संस्कार तथा अन्य शुभकार्यों में षष्ठी पूजा होने लगी ।
आज छठी जसुमति के सुत की
जब से परमात्मा श्रीकृष्ण गोकुल में प्रकट हुए हैं, व्रज के घर-घर में आनंद छा गया । गोपियों को तो सूतिकागृह में श्रीकृष्ण के दर्शन हो गए, वे अपने घर जाकर गोपों से लाला के रूप और माधुर्य का वर्णन करती हुई कहतीं—
‘नंदबाबा के लाला के अंग इतने सुन्दर हैं मानो नीलकान्तमणि के अंकुर हों; इतने कोमल हैं मानो तमाल के नवपल्लव हों; इतने स्निग्ध (चिकने) हैं मानो वर्षाऋतु में खिले नवीन कमल हो; इतने सुरभित (सुगन्धित) हैं मानो लक्ष्मी के माथे पर लगा कस्तूरी तिलक हो और इतने आकर्षणशील हैं मानो सौभाग्यलक्ष्मी के नेत्रों में लगा कजरारा अंजन हो ।’
ऐसे अद्भुत और विलक्षण नंदबाबा के लाला (शिशु) के बारे में सुनकर व्रज के सभी गोप भी उन्हें देखने के लिए लालायित हो उठे । षष्ठी पूजन के दिन सभी गोपों की भी श्रीकृष्ण-दर्शन की अभिलाषा पूरी होने का समय आ गया । नंदलाला के छठी उत्सव में नंदबाबा ने कंस के राक्षसों के भय से केवल बंधु-बांधवों को ही बुलाया था परन्तु आज कोई रुकने वाला नहीं था; न ही किसी को निमन्त्रण की आवश्यकता थी । इसलिए दूर-दूर के गांवों के गोप-गोपियां नंदमहल के द्वार पर आकर इकट्ठे हो गए ।
‘जैसे किसी सुन्दर सरोवर में एक सुन्दर कमल खिल जाए जो रस से भरा हो; उस विकसित कमल को देखकर मधु के लोभी भंवरें बिना बुलाए उड़-उड़कर चारों तरफ से आ जाते हैं; उसी प्रकार नंदबाबा के घर रूपी सरोवर में अनुपम माधुर्य और सौरभ से युक्त जो नीलकमल (श्रीकृष्ण) खिला उसके मधुर रस को पीने के लिए व्रजवासी रूपी भंवरे चारों तरफ से उमड़ पड़े ।’ (श्रीगोपालचम्पू)
नंदमहल के मणिमय आंगन में स्तम्भ के सहारे उपनंदजी की पत्नी, रोहिणीजी और घूंघट निकाले व्रजरानी यशोदा गोद में नीलमणि श्रीकृष्ण को लिए बैठी हैं । पास में बैठीं सुन्दर सजी हुई अनगिनत गोपियां मंगलगीत गा रही हैं ।
गोपों की अपार संख्या पंक्तिबद्ध होकर लाला का दर्शन कर रही है किन्तु जिसकी दृष्टि उस सलोने चितचोर पर पड़ी, वह वहीं अटक गया । मानो किसी शातिर चोर ने उनकी सुध-बुध चुरा ली हो । आंखें उस नीलमणि के रूप में से हटें, तब तो शरीर आगे बढ़े । कोई आगे बढ़ना ही नहीं चाहता था, सब अतृप्त नयन व हृदय से बार-बार अपने मुख को घुमाकर उस नीलकमल के रूपमाधुर्य रूपी रस को पी लेना चाहते हैं । पीछे से कोई पूछता ‘नंदबाबा का लाला कैसा है’ परन्तु उत्तर मुख से न निकलता, वाणी मूक हो जाती, कंठ भर-भर कर आता, आंखें डबडबा जातीं । उस सौन्दर्य का कोई पूरा वर्णन कर सके, ऐसा जगत में आज तक कोई नहीं हुआ ।
नंदबाबा ने गोपों के दिए उपहारों को बड़ी प्रसन्नता से स्वीकार किया क्योंकि वे उन उपहारों को लाला पर व्रजवासियों के आशीर्वाद के रूप में देख रहे थे और सबसे कह रहे थे—‘तुम्हारे आशीर्वाद से ही मेरा लाल फलेगा-फूलेगा ।’
सायंकाल में पौर्णमासी देवी अपने पुत्र मधुमंगल के साथ नंदनन्दन को आशीर्वाद देने आयीं । पौर्णमासी देवी को भगवान की योगमाया शक्ति कहा जाता है और मधुमंगल बाद में श्रीकृष्ण का सखा मनसुखा कहलाया । नंदरानी ने आशीर्वाद लेने के लिए नीलमणि को उठाकर पौर्णमासी देवी के चरणों पर रख दिया । मधुमंगल ने यशोदाजी से कहा—
‘मैया ! ऊपर तो देख, क्या तमाशा हो रहा है । हंस, बैल, गरुड़, मोर, हाथी व रथ पर सवार होकर कौन-कौन आया है । किसी के चार मुंह हैं तो किसी के पांच और किसी के छह । कोई नीला है, कोई काला है, कोई पीला, कोई लाल तो कोई सफेद । कोई भस्मी रमाए है तो कोई चार हाथ वाला है तो कोई छह हाथ वाला ।’
मधुमंगल की बात सुनकर नंदरानी भयभीत हो गयीं कि कहीं कोई राक्षस तो लाला को हानि पहुंचाने नहीं आ गया । पौर्णमासीजी ने सबको समझाया कि आकाश में देवतागण भगवान श्रीकृष्ण के छठी उत्सव को देखने आए हैं ।
नंदबाबा और नंदरानी ने अपने पुत्र की मंगलकामना के लिए किया षष्ठी पूजन
गोद लिए गोपाल जसोदा पूजत छठी मुदित मन प्यारी ।
बड़रे बार सनेह चुचाते चुंबत मुख दै-दै चुचुकारी ।।
श्रीकृष्ण जन्म की छठी रात्रि में नंदबाबा और नंदरानी यशोदा अपने पुत्र की मंगलकामना के लिए सूतिका-गृह में षष्ठी पूजा के लिए बैठे । बालकृष्ण को नहलाकर सुन्दर वस्त्र पहनाए । गोबर से षष्ठी देवी की सुन्दर मूर्ति बनायी गयी । सफेद चावलों की वेदी पर षष्ठी देवी की मूर्ति को विराजमान कर पास में कलश स्थापना की गयी । फिर षोडशोपचार पूजन कर उनका भांति-भाति के व्यजंनों का भोग लगाया गया और प्रार्थना की—
नमो देव्यै महादेव्यै सिद्धयै शान्त्यै नमो नम: ।
शुभायै देवसेनायै षष्ठीदेव्यै नमो नम: ।।
धनं देहि प्रियां देहि पुत्रं देहि सुरेश्वरि ।
धर्मं देहि यशो देहि षष्ठीदेव्यै नमो नम: ।।
भूमिं देहि प्रजां देहि देहि विद्यां सुपूजिते ।
कल्याणं च जयं देहि षष्ठीदेव्यै नमो नम: ।। (ब्रह्मवैवर्तपुराण, प्रकृतिखण्ड)
कुल की प्रथा के अनुसार यशोदाजी ने अपने पुत्र की छठी पूजी और पीले थापे लगाए । सब गोपबालाओं ने सोने के थाल भर-भर के बालकृष्ण को उपहार दिए और मंगलगीत गाकर उनको चिरंजीवी होने का आशीर्वाद दिया ।
पूजत छठी जु कान्ह कुंवर की थापे पीत लगाई ।
कंचन थार लिएँ ब्रजबनिता रोचन देत सुहाई ।।
आँजति आँखि जु सबहि सुवासिन, मांगत नैन भराए ।
सूरदास प्रभु तुम चिरजीयौ, घर-घर मंगल गाए ।।
व्रजरानी यशोदा छठी पूजकर अभी चौक पर से उठ भी नहीं पायीं कि कान्हा की छठी पूजने वालों का तांता लग गया—
फिरि-फिरि ग्वाल-गोप सब पूजत, अरु पूजत ब्रजनारी ।
श्रीविट्ठल गिरिधर चिरजीवौ, मांगत ओलि पसारी ।।
भगवान श्रीकृष्ण का अवतार आनन्द-प्रधान अवतार है । सुख और आनन्द के प्रति सबका आकर्षण होता है, इसलिए वे लोगों के प्रेम को अपनी ओर ज्यादा आकर्षित करते हैं ।
Radhey Radhey…bahaut sunder katha…