krishna arjun bhagvad gita

चार प्रकार के भक्त

गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—

चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन ।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ।। (७।१६)

‘हे अर्जुन ! आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी—ये चार प्रकार के भक्त मेरा भजन किया करते हैं । इनमें से सबसे निम्न श्रेणी का भक्त अर्थार्थी है । उससे श्रेष्ठ आर्त, आर्त से श्रेष्ठ जिज्ञासु, और जिज्ञासु से भी श्रेष्ठ ज्ञानी है ।

अर्थार्थी भक्त वह है जो भोग, ऐश्वर्य और सुख प्राप्त करने के लिए भगवान का भजन करता है । उसके लिए भोगपदार्थ व धन मुख्य होता है और भगवान का भजन गौण । ध्रुव को अर्थार्थी भक्त माना जाता है ।

आर्त भक्त वह है जो शारीरिक कष्ट आ जाने पर या धन-वैभव नष्ट होने पर, अपना दु:ख दूर करने के लिए भगवान को पुकारता है । जैसे द्रौपदी ने सदैव संकट में भगवान को याद किया ।

जिज्ञासु भक्त अपने शरीर के पोषण के लिए नहीं वरन् संसार को अनित्य जानकर भगवान का तत्त्व जानने और उन्हें पाने के लिए भजन करता है । उद्धवजी जिज्ञासु भक्त की श्रेणी में आते हैं ।

परन्तु ज्ञानी भक्त सदैव निष्काम होता है इसलिए भगवान ने ज्ञानी को अपनी आत्मा कहा है ।  ज्ञानी भक्त के योगक्षेम का वहन भगवान स्वयं करते हैं क्योंकि आर्त, अर्थार्थी और जिज्ञासु तो सकाम भक्त हैं, उनमें अन्य वस्तुओं को प्राप्त करने की कामना रहती है किन्तु ज्ञानी भक्त भगवान को छोड़कर और कुछ नहीं चाहता है ।

इनमें से कौन-सा भक्त है संसार में सर्वश्रेष्ठ ?

एक बार ऋषियों ने विचार किया कि संसार में सबसे बड़ा कौन है, जिसका भजन किया जाए ? किसी ने कहा कि पृथ्वी सबसे बड़ी है, क्योंकि यह सारे संसार को धारण किए हुए है । दूसरे ने कहा कि उस पृथ्वी को शेष भगवान ने अपने फणों पर धूल के कण के समान धारण कर रक्खा है, अत: शेष भगवान सबसे बड़े हैं । तीसरे ने कहा कि शेषनाग को भगवान शंकर ने अपने हृदय पर आभूषण की तरह धारण कर रक्खा है, अत: शंकरजी सबसे बड़े हैं । चौथे ने कहा कि शिव के निवासस्थान कैलास को उनके सहित रावण ने अपनी भुजाओं पर उठा लिया । उस रावण को बालि ने जीत लिया और बालि का वध श्रीरामचन्द्रजी ने किया । अत: भगवान श्रीराम सबसे बड़े हैं । यह सुनकर पांचवे ऋषि ने कहा—ऐसे परमात्मा को भक्त अपने हृदय में धारण करते हैं, इसलिए भक्त ही त्रिलोकी में सर्वश्रेष्ठ हैं ।

श्रीमद्भागवत में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है—‘मैं सदैव भक्त के अधीन हूँ, मुझमें तनिक भी स्वतन्त्रता नहीं है । मेरे सीधे-साधे सरल भक्तों ने मेरे हृदय को अपने हाथ में कर रक्खा है । भक्तजन मुझसे प्यार करते हैं और मैं उनसे । अपने भक्त को छोड़कर मैं न तो अपने-आपको चाहता हूँ और न अपनी अर्धांगिनी लक्ष्मी को । मेरे प्रेमी भक्त तो मेरे हृदय हैं और उन भक्तों का हृदय स्वयं मैं हूँ । मैं भक्त की पदरज की इच्छा से सदा उसके पीछे-पाछे घूमा करता हूँ जिससे उसकी चरणधूलि उड़कर मेरे शरीर पर पड़े और मैं उसके द्वारा पवित्र हो जाऊँ ।’

भगवान जिसके पीछे-पीछे घूमते हों, भला उसको किस बात की चिन्ता !

भगवान से निष्काम प्रेम ही है सच्ची भक्ति

माधवदास नाम के एक ब्राह्मण घर-संसार त्यागकर जगन्नाथपुरी के पास एकान्त स्थान पर भगवान के ध्यान में मग्न हो गए । वे ध्यान में ऐसे मग्न हुए कि बिना अन्न-जल के उन्हें कई दिन बीत गए । भगवत्प्रेम की यही दशा है । भक्त के कष्ट को जब भगवान स्वयं सहन करने में असमर्थ हो गए तब उन्होंने सुभद्राजी को आदेश किया कि उत्तम-से-उत्तम भोजन सोने की थाली में परोसकर तुम मेरे भक्त के पास पहुंचा आओ ।  सुभद्राजी भोजन लेकर जब माधवदास के पास पहुंचीं तो उन्हें ध्यानमग्न देखकर थाली रखकर लौट आईं । ध्यान टूटने पर माधवदास ने सोने की थाली में भोजन देखा तो भगवान की कृपा देखकर आनन्द से आंसु बहाने लगे । फिर प्रसाद पाया और थाली एक ओर रखकर पुन: ध्यानमग्न हो गये ।

प्रात:काल पुजारी ने मन्दिर के द्वार खोलने पर देखा कि एक सोने की थाली ग़ायब है । चोर का पता लगाते-लगाते वह भक्त माधवदास के पास पहुँचा । वहाँ सोने की थाली रखी देखकर माधवदास को चोर समझकर वह बेंतों से उसकी पिटाई करने लगा । माधवदास ने हँसते-हँसते बेतों की चोट सह ली परन्तु भगवान जगन्नाथजी से यह सहन न हुआ । उन्होंने पुजारी को स्वप्न में दर्शन देकर कहा—‘मेरे भक्त माधवदास के ऊपर जो बेंत की मार पड़ी है, उसे मैंने अपने ऊपर ले लिया है । अब मैं तुम्हारा सर्वनाश कर दूंगा । यदि तुम इससे बचना चाहते हो तो मेरे भक्त के चरणों में गिरकर क्षमा मांगो ।’

सर्वनाश के भय से कांपते हुए पुजारी ने माधवदास से क्षमा मांगी और माधवदास ने उसे गले लगाकर क्षमा कर दिया; क्योंकि सच्चे भक्त का हृदय पृथ्वी की तरह क्षमाशील होता है ।

क्यों करते हैं भगवान भक्त की सेवा ?

एक बार माधवदास को अतिसार (दस्त) हो गए और वे इतने दुर्बल हो गए कि समुद्र के किनारे जाकर पड़ गए । माधवदास की ऐसी दशा देखकर भगवान जगन्नाथजी स्वयं सेवक बनकर उनकी सेवा करने लगे । माधवदास को जब होश आया तो वे पहचान गए कि ये मेरे ठाकुर ही हैं । ऐसा सोचकर उन्होंने सेवक के चरण पकड़ लिए और बोले—‘मुझ जैसे अधम के लिए आपने इतना कष्ट क्यों उठाया ? आप तो सर्वशक्तिमान हैं । आप तो चाहने पर ही मेरे सारे दु:खों को दूर कर सकते थे ।’

भगवान ने कहा—‘मैं अपने भक्तों के कष्ट को सहन नहीं कर सकता । अपने सिवा मैं और किसी को भक्त की सेवा के योग्य नहीं समझता । इसलिए मैंने तुम्हारी सेवा की है । तुम जानते हो कि प्रारब्धकर्म भोगे बिना नष्ट नहीं होते हैं— यह मेरा नियम है और मैं यह क्यों तोडूं  । इसी कारण मैं केवल सेवा करके भक्त को प्रारब्ध भोग कराता हूं और संसार को यह शिक्षा देता हूँ कि भगवान भक्त के अधीन हैं ।’ ऐसा कहकर भगवान अन्तर्धान हो गए ।

भक्त भक्ति भगवंत गुरु चतुर नाम वपु एक ।
इनके पद वंदन किएं नासत बिघ्न अनेक ।। (श्रीनाभादासजी)

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