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शनिदेव सिर नीचा करके क्यों रहते हैं?

शनिदेव भगवान सूर्य के पुत्र हैं। छाया (सवर्णा) इनकी माता हैं। ये क्रूर ग्रह माने जाते हैं। इनकी दृष्टि में जो क्रूरता है, वह इनकी पत्नी के शाप के कारण है। ब्रह्मवैवर्तपुराण की कथा के अनुसार–

बचपन से ही शनि भगवान श्रीकृष्ण के प्रेम में निमग्न रहते थे। वयस्क होने पर इनके पिता ने इनका विवाह चित्ररथ की कन्या से कर दिया। इनकी पत्नी बड़ी तेजस्विनी और साध्वी थी। एक रात ऋतु-स्नानकर पुत्रप्राप्ति की कामना से वह पति के पास पहुंची। शनिदेव ध्यान में बैठे थे। उन्हें बाह्यजगत का कुछ ज्ञान न था। पत्नी प्रतीक्षा कर थक गयी पर शनिदेव का ध्यान न टूटा। इस उपेक्षा से क्रुद्ध होकर पत्नी ने शनिदेव को शाप दे दिया कि जिसे तुम देख लोगे वह नष्ट हो जाएगा। ध्यान टूटने पर शनिदेव ने पत्नी को मनाया। पत्नी को स्वयं पश्चात्ताप हो रहा था, किन्तु शाप को वापिस लेने की शक्ति उसमें नहीं थी।

तब से शनिदेव सिर नीचा करके रहने लगे, क्योंकि वे किसी का अहित नहीं चाहते हैं। उनकी दृष्टि पड़ते ही कोई भी नष्ट हो सकता है।

शनिदेव की दृष्टि पड़ने से पार्वतीनन्दन श्रीगणेश का छिन्न हुआ मस्तक

भगवान शिव और जगदम्बा पार्वती के पुत्र के प्राकट्योत्सव पर धर्म, सूर्य, इन्द्र, सुरगण, मुनिगण, गन्धर्व, पर्वत तथा देवियां आदि उनके दर्शनों के लिए आए और नवजात शिशु को मंगलमय आशीर्वचन दिए।

लखि अति आनन्द मंगल साजा।
देखन भी आए शनि राजा।।
निज अवगुन गुनि शनि मन माहीं।
बालक देखन चाहत नाहीं।।
गिरिजा कछु मन भेद बढायो।
उत्सव मोर न शनि तुहि भायो।।
कहन लगे शनि मन सकुचाई।
का करिहों शिशु माहि दिखाई।।
नहिं विश्वास उमा उर भयऊ।
शनि सों बालक देखन कहऊ।।
पड़तहिं शनि दृग कोण प्रकाशा।
बालक सिर उड़ि गयो आकाशा।।
गिरिजा गिरीं विकल है धरणी।
सो दुख दशा गयो नहिं वरणी।।
हाहाकार मच्यो कैलाशा।
शनि कीन्हों लखि सुत को नाशा।।
तुरत गरुड चढि विष्णु सिधाये।
काटि चक्र सो गजशिर लाये।।
बालक के धड़ ऊपर धारयो।
प्राण मंत्र पढ़ि शंकर डारयो।।
नाम गणेश शम्भु तव कीन्हें।
प्रथम पूज्य बुद्धि निधि वर दीन्हें।। (श्रीगणेश चालीसा)

उसी समय गौरीनन्दन के दर्शन के लिए पीताम्बरधारी श्यामल सूर्यपुत्र शनैश्चर भी पधारे। शनिदेव के नेत्र कुछ बंद थे और वे मन-ही-मन अपने इष्ट का नाम-जप कर रहे थे।

एक अलौकिक भवन के अंदर रत्नसिंहासन पर माता पार्वती नवजात शिशु को गोद में लेकर ताम्बूल चबाती मुस्करा रही थीं। महायोगी शनिदेव ने मुंदे हुए नेत्रों से ही जगदम्बा के चरणों में प्रणाम किया। जगदम्बा ने पीताम्बरधारी शनिदेव से पूछा–‘आपके नेत्र कुछ मुंदे हुए हैं और आपने सिर झुका रखा है। अाप मेरे और मेरे पुत्र की तरफ देख नहीं रहे हैं, इसका क्या कारण है?’

शनिदेव ने माता पार्वती को बताया अपनी क्रूर दृष्टि का रहस्य

शनिदेव ने सिर झुकाए हुए कहा–‘माता! संसार में सभी प्राणी अपने कर्म का ही फल भोगते हैं। अपने ही कर्मों से सुख-दु:ख प्राप्त करते हैं। मेरी कथा भी कुछ ऐसी ही है। यद्यपि वह माता के सामने कहने योग्य नहीं है किन्तु मैं आपको उसे बता रहा हूँ।

बाल्यकाल से ही मेरी श्रीकृष्ण के चरणकमलों में अनुरक्ति थी इसलिए मैं विरक्त और तपस्या में लीन रहता था; किन्तु पिता ने चित्ररथ की पुत्री से मेरा विवाह करा दिया। एक दिन मेरी तेजस्विनी पत्नी जब ऋतुस्नान के बाद मेरे पास आई तो मैं अपने प्रभु के ध्यान में तल्लीन था जिससे उसने मुझे शाप दे दिया कि ‘तुम जिसकी ओर दृष्टिपात करोगे, वही नष्ट हो जाएगा।’ इसी कारण मैं जीवहिंसा के भय से अपने नेत्रों से किसी की ओर नहीं देखता और सदैव सिर झुकाए रहता हूँ।’

शनिदेव की बात सुनकर जगदम्बा हंसने लगीं और कहा कि–‘सम्पूर्ण विश्व ईश्वरेच्छा के अधीन है। किसकी सामर्थ्य है जो मेरी संतान का अनिष्ट कर सके। तुम मेरे और मेरे शिशु की ओर देखो।’

शनिदेव मन-ही-मन सोचने लगे कि यदि मैं इस दुर्लभ बालक की ओर देखूंगा तो निश्चय ही इसका अनिष्ट हो जाएगा किन्तु शिववल्लभा पार्वती की आज्ञा कैसे टाली जाए?

इस प्रकार सोचते हुए शनैश्चरदेव ने अपने वामनेत्र के कोने से पार्वतीनन्दन की ओर दृष्टिपात किया। शनिदेव की शापग्रस्त दृष्टि पड़ते ही भगवान शिव एवं जगदम्बा के प्राणप्रिय पुत्र का मस्तक धड़ से अलग होकर गोलोक में जाकर परमात्मा श्रीकृष्ण में प्रविष्ट हो गया। अत्यन्त दु:खी व लज्जित होकर शनिदेव मुंह फेरकर चुपचाप खड़े हो गए। कैलास में तहलका मच गया।

अपने अंक में शिशु का रक्त से लथपथ शरीर देखकर जगदम्बा पार्वती चीत्कार कर उठीं। यह दृश्य देखकर वहां उपस्थित सभी देवता आदि भी अवसन्न रह गए। भगवान श्रीहरि तुरन्त गरुड़ पर सवार होकर उत्तर दिशा की ओर चल दिए और उत्तराभिमुख सोते हुए गजेन्द्र के मस्तक को उतार कर ले आए और शिवनन्दन के धड़ से जोड़कर उसमें प्राण-संचार कर दिया। शोकग्रस्त शिवप्रिया पार्वती को समझाते हुए श्रीहरि ने कहा–

‘ब्रह्मा से लेकर कीटपर्यन्त सम्पूर्ण जगत अपने-अपने कर्मानुसार फल पाता है। प्राणियों को कर्मफल प्रत्येक योनि में भोगने पड़ते हैं।’

श्रीगणेश का मस्तक कटने के पीछे क्या कारण था?

स्वयं परब्रह्म परमेश्वर श्रीकृष्ण अपने अंश से पार्वतीपुत्र के रूप अवतरित हुए थे, फिर उन भगवान श्रीकृष्ण का मस्तक शनिग्रह की दृष्टि से कैसे कट गया? इस सम्बन्ध में ब्रह्मवैवर्तपुराण में एक कथा है–

एक बार भगवान शिव ने सूर्यदेव पर क्रोधित होकर त्रिशूल से प्रहार कर दिया जिससे कश्यपपुत्र सूर्य मूर्च्छित होकर रथ से नीचे गिर पड़े। तिमिरारी सूर्य के बिना सब जगह अंधकार छा गया और जगत में हाहाकार मच गया।

अपने पुत्र की दशा देखकर महर्षि कश्यप ने भगवान शिव को शाप देते हुए कहा–’आज जिस प्रकार तुम्हारे त्रिशूल से मेरे पुत्र का वक्ष विदीर्ण हुआ है, उसी प्रकार तुम्हारे पुत्र का भी सिर कट जाएगा।’ महर्षि कश्यप के शाप से ही सूर्यपुत्र शनि की दृष्टि पड़ते ही शिवपुत्र गणेश का मस्तक कट गया।

सर्वविघ्नविनाशाय सर्वकल्याणहेतवे।
पार्वतीप्रियपुत्राय गणेशाय नमो नम:।।

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