वन्दे वृन्दावनानन्दां राधिकां परमेश्वरीम्।
गोपिकां परमां श्रेष्ठां ह्लादिनीं शक्तिरुपिणीम्।।
भगवान श्रीकृष्ण के वामभाग से परम शान्त, परम कमनीय मूलप्रकृतिरूप में श्रीराधाजी प्रकट हुईं। श्रीकृष्ण के अर्द्धांग से प्रकट होने के कारण वे श्रीकृष्णस्वरूपा ही हैं। श्रीराधा श्रीकृष्ण की समस्त शक्तियों, लीलाओं और गुणों की अधीश्वरी हैं।
भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गोलोक में श्रीराधा का पूजन
भगवान श्रीकृष्ण रसेश्वर हैं तो श्रीराधिका रसेश्वरी। ये श्रीराधा-कृष्ण सबसे परे, सबमें भरे और सर्वरूप हैं। श्रीराधा श्रीकृष्ण की पूजनीया हैं और भगवान श्रीकृष्ण श्रीराधा के पूजनीय हैं। वे दोनों एक-दूसरे के इष्ट देवता हैं। कार्तिक की पूर्णिमा को गोलोक के रासमण्डल में भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीराधा का पूजन करके महोत्सव किया। भगवान श्रीकृष्ण के बाद धर्म ने, फिर ब्रह्माजी ने, महादेवजी ने, अनन्त ने, वासुकि ने तथा सूर्य और चन्द्रमा ने श्रीराधा का पूजन किया। इसके बाद देवराज इन्द्र, रुद्रगण, मनु, मुनियों तथा सम्पूर्ण विश्व के लोगों ने श्रीराधा की पूजा की।
भगवान श्रीकृष्ण शंकरजी से कहते हैं–’हे रुद्र! यदि मुझे वश में करना चाहते हो तो मेरी प्रियतमा श्रीराधा का आश्रय ग्रहण करो।’ इसी तरह श्रीराधा को प्रसन्न करने के लिए श्रीकृष्ण की आराधना करनी चाहिए। अर्थात् सभी वैष्णवों को युगलस्वरूप की आराधना करनी चाहिए। युगलसरकार की उपासना में श्रीराधा वर और अभयमुद्रा में श्रीकृष्ण के वामभाग में विराजमान हैं।
सहज रसीली नागरी सहज रसीलौ लाल।
सहज प्रेम की बेलि मनो लपटी प्रेम-तमाल।।
अर्थात्–रसेश्वरी श्रीराधा और रसेश्वर श्रीकृष्ण, मानो प्रेम-लतारूपी श्रीराधा प्रेम-तमालवृक्षरूपी श्रीकृष्ण से लिपटी हों।
श्रीराधा की उपासना के नियम
श्रीराधा की उपासना करने वाले साधक को अपने को श्रीराधा की सेविकाओं में से एक तुच्छ सेविका मानकर उपासना करनी चाहिए और सदैव यही भावना करनी चाहिए कि मैं श्रीराधा की दासियों की दासी बनी रहूँ। श्रीराधा की सेविकाओं की सेवा में सफल होने पर ही श्रीराधा की सेवा का अधिकार मिलता है। श्रीराधामाधव की युगल उपासना गोपीभाव से की जाती है; गोपीभाव का अर्थ है–हर क्रिया द्वारा श्रीराधामाधव को सुख पहुंचाना; अपने सुख को भुलाकर केवल श्रीकृष्णसुख की ही चिन्ता करना। गोपीभाव की प्राप्ति के लिए साधक को काम, क्रोध, लोभ, द्रोह का त्याग करना आवश्यक है।
नारदपांचरात्र में बताया गया है कि चिरकाल तक श्रीकृष्ण की आराधना करके मनुष्यों की जो-जो कामना पूर्ति होती है, वह श्रीराधा की उपासना से स्वल्पकाल (थोड़े से समय) में ही सिद्ध हो जाती है। प्रसन्न होकर वे साधक को सभी अभीष्ट सिद्धियां प्रदान करती हैं।
शास्त्र में श्रीराधा ‘राधा’ शब्द से ही सभी अभीष्ट कामनाओं को देने वाली कहलाती हैं–‘राध्नोति सकलान् कामान् ददाति इति राधा।’ वे ही जगन्माता और श्रीकृष्ण जगत्पिता हैं। पिता से माता सौगुनी श्रेष्ठ मानी गयी है। भवसागर से पार उतारने की शक्ति श्रीकृष्ण से बढ़कर श्रीराधा में है। इसे कवि बिहारी ने इस दोहे में वर्णित किया है–
मेरी भव बाधा हरौ राधा नागरि सोइ।
जा तनकी झाँईं परै स्याम हरित दुति होइ।।
श्रीराधा चालीसा में कहा गया है–
राधा त्यागि कृष्ण को भजि हैं।
ते सपनेहु जग जलधि न तरि हैं।।
कीरति कुंवरि लाड़िली राधा।
सुमिरत सकल मिटहिं भव बाधा।।
नाम अमंगल मूल नसावन।
त्रिविध ताप हर हरि मन भावन।।
राधा नाम लेइ जो कोई।
सहजहिं दामोदर वश होई।।
श्रीराधा की उपासना दो प्रकार से होती है–एक, मन्त्रजप, स्तोत्र, कवच, सहस्त्रनाम का पाठ, पूजन-हवन आदि द्वारा; दूसरी, रसिकभक्तों की रीति नाममहामन्त्र का लगातार जप करना। यह केवल भावात्मक उपासना है और इस तरह की उपासना गोपीभाव से ही सिद्ध होती है।
श्रीराधा का ध्यान
श्रीवृन्दावन में यमुनातट पर सघन वनकुंज है। जहां तरह-तरह के पुष्प खिले हैं, जिन पर भ्रमर गुंजार कर रहे हैं। यमुनाजी में वायु के झोकों से मन्द-मन्द तरंगें नाच रही हैं, तरह-तरह के रंगों के कमल खिल रहे हैं। वहां श्रीराधामाधव एक कदम्ब के वृक्ष के नीचे विराजित हैं। श्रीकृष्ण के वामभाग में श्रीराधाजी हैं।
हेमाभां द्विभुजं वराभयकरां नीलाम्बरेणादृतां
श्यामक्रोडविलासिनीं भगवतीं सिन्दूरपुज्जोज्ज्वलाम्।
लोलाक्षीं नवयौवनां स्मितमुखीं बिम्बाधरां राधिकां
नित्यानन्दमयीं विलासनिलयां दिव्यांगभूषां भजे।।
अर्थात्–’जिनके गोरे-गोरे अंगों की हेममयी आभा है, जिनके दो भुजाएं हैं और दोनों हाथों में वर एवं अभय की मुद्रा धारण करती हैं, नीले रंग की रेशमी साड़ी जिनके श्रीअंगों का आवरण बनी हुई है, जो श्यामसुन्दर के अंक में विलास करती हैं, सिन्दूरपुंज से जिनकी सौन्दर्यश्री और भी सुन्दर हो गयी है, चपल नयन, नित्य नूतन यौवन, मुख पर मन्दहास की छटा तथा विम्बाफल की लालिमा को तिरस्कृत करने वाले लाल अधर (होंठ) , जो नित्य आनन्दमयी है, विलास की आवासभूमि हैं और जिनके अंगों में दिव्य आभूषण हैं, उन श्रीराधिका का मैं चिन्तन करता हूँ।’
श्रीराधा का विग्रह मानो शोभाश्री का लहराता हुआ अनन्त सागर है। शान्तस्वरूपा श्रीराधा गोपांगनाओं की अधीश्वरी के रूप में रत्नमय सिंहासन पर विराजमान हैं।
श्रीराधा-मन्त्र
ॐ ह्रीं श्रीराधिकायै नम:।
सबसे पहले भगवान श्रीकृष्ण ने गोलोक में रासमण्डल में मूलप्रकृति श्रीराधा के उपदेश करने पर इस मन्त्र का जप किया था। फिर उन्होंने विष्णु को, विष्णु ने ब्रह्मा को, ब्रह्मा ने धर्म को और धर्म ने भगवान नारायण को इसका उपदेश किया। इस प्रकार यह परम्परा चली आयी। श्रीराधा-मन्त्र कल्पवृक्ष के समान साधक की मनोकामना पूर्ति करता है।
श्रीराधा-गायत्री
ॐ ह्रीं श्रीराधिकायै विद्महे गान्धर्विकायै विधीमहि तन्नो राधा प्रचोदयात्।
श्रुतियों में श्रीराधा के अट्ठाईस नाम
१. राधा, २. रासेश्वरी,
३. रम्या, ४. कृष्णमन्त्राधिदेवता,
५. सर्वाद्या, ६. सर्ववन्द्या,
७. वृन्दावनविहारिणी, ८. वृन्दाराध्या,
९. रमा, १०. अशेषगोपीमण्डलपूजिता,
११. सत्या, १२. सत्यपरा,
१३. सत्यभामा, १४. श्रीकृष्णवल्लभा,
१५. वृषभानुसुता, १६. गोपी,
१७. मूलप्रकृति, १८. ईश्वरी,
१९. गन्धर्वा, २०. राधिका,
२१. आरम्या, २२. रुक्मिणी,
२३. परमेश्वरी, २४. परात्परतरा,
२५. पूर्णा, २६. पूर्णचन्द्रनिभानना,
२७. भुक्तिमुक्तिप्रदा, २८. भवव्याधिविनाशिनी।
श्रीब्रह्माजी के अनुसार जो व्यक्ति श्रीराधा के इन अट्ठाईस नामों का पाठ करता है, वह संसार के आवागमन से मुक्त हो जाता है।
भगवान नारायण द्वारा श्रीराधा की स्तुति
नमस्ते परमेशानि रासमण्डलवासिनी।
रासेश्वरि नमस्तेऽस्तु कृष्ण प्राणाधिकप्रिये।।
रासमण्डल में निवास करने वाली हे परमेश्वरि ! आपको नमस्कार है। श्रीकृष्ण को प्राणों से भी अधिक प्रिय हे रासेश्वरि ! आपको नमस्कार है।
नमस्त्रैलोक्यजननि प्रसीद करुणार्णवे।
ब्रह्मविष्ण्वादिभिर्देवैर्वन्द्यमान पदाम्बुजे।।
ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं के द्वारा वन्दित चरणकमल वाली हे त्रैलोक्यजननी ! आपको नमस्कार है। हे करुणार्णवे ! आप मुझ पर प्रसन्न होइए।
नम: सरस्वतीरूपे नम: सावित्रि शंकरि।
गंगापद्मावनीरूपे षष्ठि मंगलचण्डिके।।
हे सरस्वतीरूपे ! आपको नमस्कार है। हे सावित्रि ! हे शंकरि ! हे गंगा-पद्मावतीरूपे ! हे षष्ठि ! हे मंगलचण्डिके ! आपको नमस्कार है।
नमस्ते तुलसीरूपे नमो लक्ष्मीस्वरुपिणी।
नमो दुर्गे भगवति नमस्ते सर्वरूपिणी।।
हे तुलसीरूपे ! आपको नमस्कार है। हे लक्ष्मीस्वरूपिणि ! आपको नमस्कार है। हे दुर्गे ! हे भगवति ! आपको नमस्कार है। हे सर्वरूपिणि ! आपको नमस्कार है।
मूलप्रकृतिरूपां त्वां भजाम: करुणार्णवाम्।
संसारसागरादस्मदुद्धराम्ब दयां कुरु।। (श्रीमद्देवीभागवत ९।५०।४६-५०)
हे अम्ब ! मूलप्रकृतिस्वरूपिणी तथा करुणासिन्धु आप भगवती की हम उपासना करते हैं, संसार-सागर से हमारा उद्धार कीजिए, दया कीजिए।
स्तोत्र पाठ का फल
जो मनुष्य तीनों कालों (प्रात:, मध्याह्न और सायं) में श्रीराधा का स्मरण करते हुए इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसके लिए कभी कोई भी वस्तु अलभ्य (दुर्लभ) नहीं रहती और देह-त्याग के बाद वह गोलोकधाम में रासमण्डल में निवास करता है।
श्रीराधाजी से प्रार्थना
कृपा करौ श्रीराधिका बिनवौं बारम्बार।
बनी रहै स्मृति मधुर सुचि मंगलमय सुख सार।।
श्रद्धा नित बढ़ती रहै बढ़ै नित्य विश्वास।
अर्पण हों अवशेष अब जीवन के सब श्वास।। (भाई हनुमानप्रसादजी पोद्दार)
श्रीराधाजी की आरती
जै जै श्रीराधेजू मैं शरण तिहारी।
लोचन आरती जाऊँ बलिहारी।। जै जै हो।।
पाट पटम्बर ओढ़े नील सारी।
सीस के सैन्दुर जाऊँ बलिहारी।। जै जै हो ।।
रतन सिंहासन बैठे श्री राधे।
आरती करें हम पिय संग जोरी।। जै जै हो ।।
झलमल-झलमल मानिक मोती।
अब लक मुनि मोहे पिय संग जोरी।। जै जै हो ।।
श्रीराधे पद पंकज भगति की आशा।
दास मनोहर करत भरोसा।।
राधा-कृष्ण की जाऊँ बलिहारी।। जै जै हो ।।
श्रीशुकदेवजी की आराध्या श्रीराधा थीं। उनके शब्दों में–‘जिसके समान न कोई है और न बढ़कर है ऐसी राधा के साथ अपने आनन्दस्वरूप में रमण करने वाले श्रीकृष्ण को हम नमस्कार करते हैं।’
Bahut bahut aabhar aapka . Aapne sree radha krishna k durlabha rasta bata diye . Yegal sarkar aap par apni aise kripa barsate rakhe. Radhe Radhe