सकल जग हरि कौ रूप निहार।
हरि बिनु बिस्व कतहुँ कोउ नाहीं, मिथ्या भ्रम-संसार।।
अलख-निरंजन, सब जग ब्यापक, सब जग कौ आधार।
नहिं आधार, नाहिं कोउ हरि महँ, केवल हरि-बिस्तार।। (श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार)

यह अनंत ब्रह्माण्ड अलख-निरंजन परब्रह्म परमात्मा का खेल है। जैसे बालक मिट्टी के घरोंदे बनाता है, कुछ समय उसमें रहने का अभिनय करता है और अंत मे उसे ध्वस्त कर चल देता है। उसी प्रकार परब्रह्म भी इस अनन्त सृष्टि की रचना करता है, उसका पालन करता है और अंत में उसका संहारकर अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है। यही उसकी क्रीडा है, यही उसका अभिनय है, यही उसका मनोविनोद है, यही उसकी निर्गुण-लीला है जिसमें हम उसकी लीला को तो देखते हैं, परन्तु उस लीलाकर्ता को नहीं देख पाते। भगवान की इन्हीं निर्गुण-लीला पर विस्मय-विमुग्ध होकर गोस्वामी तुलसीदासजी ने विनय-पत्रिका में लिखा है–

केसव! कहि न जाइ का कहिए।
देखत तव रचना विचित्र हरि! समुझि मनहिं मन रहिये।।

परब्रह्म परमात्मा का प्रकृति के असंख्य ब्रह्माण्डों को बनाने-बिगाड़ने का यह अनवरत कार्य कब प्रारम्भ हुआ और कब तक चलेगा, यह कोई नहीं जान सकता। उनके लिए सृष्टि, पालन एवं संहार–तीनों प्रकार की लीलाएं समान हैं। जब प्रकृति में परमात्मा के संकल्प से विकासोन्मुख परिणाम होता है, तो उसे सृष्टि कहते हैं और जब विनाशोन्मुख परिणाम होता है, तो उसे प्रलय कहते हैं। सृष्टि और प्रलय के मध्य की दशा का नाम स्थिति है।

तैत्तिरीयोपनिषद् (२।६) में कहा गया है कि उस परमेश्वर ने विचार किया कि मैं प्रकट हो जाऊँ (अनेक नाम-रूप धारणकर बहुत हो जाऊँ), इस स्थिति में एक ही परमात्मा अनेक नाम-रूप धारणकर सृष्टि की रचना करते हैं। श्रीमद्भागवत (४।७।५०) में भगवान कहते हैं–’मैं ही सम्पूर्ण सृष्टि की रचना करता हूँ। मैं ही उसका मूल कारण हूँ।’

वह पूर्ण ब्रह्म अपने एक अंश से जगत को धारण करता है पर स्वयं अचलरूप से स्थित रहता है। इसीलिए श्रुति में कहा गया है–

ऊँ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।

अर्थात्–वह पूर्ण है, यह पूर्ण है, पूर्ण से ही पूर्ण की वृद्धि होती है। पूर्ण में से पूर्ण लेने पर भी पूर्ण ही बच रहता है। इसी प्रकार भगवान अंशयुक्त होने पर भी पूर्ण है।

परमात्मा श्रीकृष्ण ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों के एकमात्र ईश्वर हैं, जो प्रकृति से परे हैं। उनका विग्रह सत्, चित और आनन्दमय है। ब्रह्मा, शंकर, महाविराट् और क्षुद्रविराट्–सभी उन परमब्रह्म परमात्मा का अंश हैं। प्रकृति भी उन्हीं का अंश कही गयी है। जैसे स्वर्णकार सुवर्ण के बिना आभूषण नहीं बना सकता तथा कुम्हार मिट्टी के बिना घड़ा बनाने में असमर्थ है, ठीक उसी प्रकार परमात्मा को यदि प्रकृति का सहयोग न मिले तो वे सृष्टि नहीं कर सकते। सृष्टि के अवसर पर परब्रह्म परमात्मा दो रूपों में प्रकट हुए–प्रकृति और पुरुष। उनका आधा दाहिना अंग ‘पुरुष’ और आधा बांया अंग ‘प्रकृति’ हुआ। वही प्रकृति परमब्रह्म में लीन रहने वाली उनकी सनातनी माया हैं।

इस लेख में परमब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण से विभिन्न देवी-देवताओं के प्राकट्य का उल्लेख किया गया है जोकि विभिन्न ग्रन्थों जैसे श्रीमद्देवीभागवत, ब्रह्मवैवर्तपुराण व श्रीमद्भगवद्गीता आदि पर आधारित है।

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सृष्टि के बीजरूप परमात्मा श्रीकृष्ण

ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त समस्त चराचर जगत–जो प्राकृतिक सृष्टि है, वह सब नश्वर है। तीनों लोकों के ऊपर जो गोलोकधाम है, वह नित्य है। गोलोक में अन्दर अत्यन्त मनोहर ज्योति है। वह ज्योति ही परात्पर ब्रह्म है। वे परमब्रह्म अपनी इच्छाशक्ति से सम्पन्न होने के कारण साकार और निराकार दोनों रूपों में अवस्थित रहते हैं। उस तेजरूप निराकार परमब्रह्म का योगीजन सदा ध्यान करते हैं। उनका कहना है कि परमात्मा अदृश्य होकर भी सबका द्रष्टा है। किन्तु वैष्णवजन कहते हैं कि तेजस्वी सत्ता के बिना वह तेज किसका है। अत: उस तेजमण्डल के मध्य में अवश्य ही परमब्रह्म विराजते हैं। वे स्वेच्छामयरूपधारी तथा समस्त कारणों के कारण हैं। वे परमात्मा श्रीकृष्ण अत्यन्त कमनीय, नवकिशोर, गोपवेषधारी, नवीन मेघ की-सी कान्ति वाले, कमललोचन, मयूरमुकुटी, वनमाली, द्विभुज, एक हाथ में मुरली लिए, अग्निविशुद्ध पीताम्बरधारी और रत्नाभूषणों से अलंकृत हैं। ब्रह्माजी की आयु जिनके एक निमेष की तुलना में है, उन परिपूर्णतम ब्रह्म को ‘कृष्ण’ नाम से पुकारा जाता है। ‘कृष्ण’ शब्द का अर्थ है श्रीकृष्ण ही सर्वप्रपंच के स्त्रष्टा तथा सृष्टि के एकमात्र बीजस्वरूप हैं।

परमात्मा श्रीकृष्ण से नारायण, शिव, ब्रह्मा, धर्म, सरस्वती आदि देवी-देवताओं का प्रादुर्भाव

प्रलयकाल में भगवान श्रीकृष्ण ने दिशाओं, आकाश के साथ सम्पूर्ण जगत को शून्यमय देखा। न कहीं जल, न वायु, न ही कोई जीव-जन्तु, न वृक्ष, न पर्वत, न समुद्र, बस घोर अन्धकार ही अन्धकार। सारा आकाश वायु से रहित और घोर अंधकार से भरा विकृताकार दिखाई दे रहा था। वे भगवान श्रीकृष्ण अकेले थे। तब उन स्वेच्छामय प्रभु में सृष्टि की इच्छा हुई और उन्होंने स्वेच्छा से ही सृष्टिरचना आरम्भ की। सबसे पहले परम पुरुष श्रीकृष्ण के दक्षिणभाग से जगत के कारण रूप तीन गुण प्रकट हुए। उन गुणों से महतत्त्व, अंहकार, पांच तन्मात्राएं, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द प्रकट हुए। इसके बाद श्रीकृष्ण से साक्षात् भगवान नारायण का प्रदुर्भाव हुआ जो शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी चतुर्भुज, वनमाला से विभूषित व पीताम्बरधारी थे। उन्होंने परमब्रह्म श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए कहा–जो श्रेष्ठ, सत्पुरुषों द्वारा पूज्य, वर देने वाले, वर की प्राप्ति के कारण हैं, जो कारणों के भी कारण, कर्मस्वरूप और उस कर्म के भी कारण हैं, उन भगवान श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूं।

इसके बाद परम पुरुष श्रीकृष्ण के वामभाग से स्फटिक के समान अंगकान्ति वाले, पंचमुखी, त्रिनेत्रवाले, जटाजूटधारी, हाथों में त्रिशूल व जपमाला लिए व बाघम्बर पहने भगवान शिव प्रकट हुए। उनका शरीर भस्म से भूषित था और उन्होंने मस्तक पर चन्द्रमा को धारण कर रखा था। सर्पों के उन्होंने आभूषण पहन रखे थे। उन्होनें श्रीकृष्ण को प्रणाम करते हुए कहा–’जो विश्व के ईश्वरों के भी ईश्वर, विश्व के कारणों के भी कारण हैं, जो तेजस्वरूप, तेज के दाता और समस्त तेजस्वियों में श्रेष्ठ हैं, उन भगवान गोविन्द की मैं वन्दना करता हूँ।’

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तत्पश्चात् श्रीकृष्ण के नाभिकमल से ब्रह्माजी प्रकट हुए। उनके श्वेत वस्त्र व केश थे, कमण्डलुधारी, चार मुख वाले, वेदों को धारण व प्रकट करने वाले हैं। वे ही स्त्रष्टा व विधाता हैं। उन्होंने चारों मुखों से भगवान की स्तुति करते हुए कहा–जो तीनों गुणों से अतीत और एकमात्र अविनाशी परमेश्वर हैं, जिनमें कभी कोई विकार नहीं होता, जो अव्यक्त और व्यक्तरूप हैं तथा गोपवेष धारण करते हैं, उन गोविन्द श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूं।

इसके बाद परमात्मा श्रीकृष्ण के वक्ष:स्थल से श्वेत वर्ण के जटाधारी ‘धर्म’ प्रकट हुए। वह सबके साक्षी व सबके समस्त कर्मों के दृष्टा थे। उन्होंने भगवान की स्तुति करते हुए कहा–जो सबको अपनी ओर आकृष्ट करने वाले सच्चिदानन्दस्वरूप हैं, इसलिए ‘कृष्ण’ कहलाते हैं, सर्वव्यापी होने के कारण जिन्हें विष्णु कहते हैं, सबके भीतर निवास करने से जिनका नाम ‘वासुदेव’ है, जो ‘परमात्मा’ एवं ‘ईश्वर’ हैं, उन भगवान श्रीकृष्ण की मैं वन्दना करता हूँ। फिर धर्म के ही वामभाग से ‘मूर्ति’ नामक कन्या प्रकट हुई।

तदनन्तर परमात्मा श्रीकृष्ण के मुख से शुक्लवर्णा, वीणा-पुस्तकधारिणी, वाणी की अधिष्ठात्री, कवियों की इष्टदेवी, शान्तरूपिणी सरस्वती प्रकट हुईं। उन्होंने भगवान की स्तुति करते हुए कहा–जो रासमण्डल के मध्यभाग में विराजमान हैं, रास के अधिष्ठाता देवता हैं, रासोल्लास के लिए सदा उत्सुक रहने वाले हैं, मैं उनको प्रणाम करती हूँ। फिर परमात्मा श्रीकृष्ण के मन से गौरवर्णा, सम्पूर्ण ऐश्वर्यों की अधिष्ठात्री, फलरूप से सम्पूर्ण सम्पत्तियां प्रदान करने वाली स्वर्गलक्ष्मी प्रकट हुईं। वे राजाओं में राजलक्ष्मी, गृहस्थ मनुष्यों में गृहलक्ष्मी और सभी प्राणियों  तथा पदार्थों में शोभारूप से विराजमान रहती हैं। उन्होंने भी भगवान को प्रणाम करते हुए कहा–जो सत्यस्वरूप, सत्य के स्वामी, सत्य के मूल हैं, उन सनातनदेव श्रीकृष्ण को मैं प्रणाम करती हूँ।

तदनन्तर परमात्मा श्रीकृष्ण की बुद्धि से मूल प्रकृति का प्रादुर्भाव हुआ। वे लाल रंग की साड़ी पहने हुए थीं व रत्नाभरण से भूषित व सहस्त्रों भुजाओं वाली थीं। वे निद्रा, तृष्णा, क्षुधा-पिपासा (भूख-प्यास),  दया, श्रद्धा, बुद्धि, लज्जा, तुष्टि, पुष्टि,  भ्रान्ति, कान्ति और क्षमा आदि देवियों की व समस्त शक्तियों की अधिष्ठात्री देवी हैं। उन्हीं को दुर्गा कहा गया है। त्रिशूल, शक्ति, शांर्गधनुष, खड्ग, बाण, शंख, चक्र, गदा, पद्म, अक्षमाला, कमण्डलु, वज्र, अंकुश, पाश, भुशुण्डि, दण्ड, तोमर, नारायणास्त्र, ब्रह्मास्त्र, रौद्रास्त्र, पाशुपतास्त्र, पार्जन्यास्त्र, वारुणास्त्र, आग्नेयास्त्र तथा गान्धर्वास्त्र–इन सबको धारण किए हुए हैं। उन्हीं की अंशाशकला से सभी नारियां प्रकट हुई हैं। उन्होंने श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए कहा–प्रभो ! मैं प्रकृति, ईश्वरी, सर्वेश्वरी, सर्वरूपिणी और सर्वशक्तिस्वरूपा कहलाती हूँ। मेरी शक्ति से ही यह जगत शक्तिमान है तथापि मैं स्वतन्त्र नहीं हूँ; क्योंकि आपने मेरी सृष्टि की है, अत: आप ही तीनों लोकों के पति, गति, पालक, स्रष्टा, संहारक तथा पुन: सृष्टि करने वाले हैं। आप तीनों लोकों के चराचर प्राणियों, ब्रह्मा आदि देवताओं तथा मुझ जैसी कितनी ही देवियों की खेल-खेल में ही सृष्टि कर सकते हैं, मैं आपकी वन्दना करती हूँ।

तत्पश्चात् भगवान श्रीकृष्ण की जिह्वा के अग्रभाग से स्फटिक के समान वर्ण वाली, सफेद साड़ी व आभूषण पहने, हाथ में जपमाला लिए सावित्री देवी प्रकट हुईं। उन्होंने भगवान को प्रणाम करते हुए कहा–भगवन् ! आप सबके बीज, सनातन ब्रह्म-ज्योति व निर्विकार ब्रह्म हैं। फिर श्रीकृष्ण के मानस से सुवर्ण के समान कांतिमान, पुष्पमय धनुष व पांच बाण लिए कामियों के मन को मथने वाले ‘मन्मथ’ (कामदेव) प्रकट हुए। कामदेव के पांच बाण हैं–मारण, स्तम्भन, जृम्भन, शोषण और उन्मादन। कामदेव के वामभाग से परम सुन्दरी ‘रति’ प्रकट हुईं। अपने बाणों की परीक्षा करने के लिए कामदेव ने बारी-बारी से सभी बाण चलाए जिससे सभी लोग काम के वशीभूत हो गए।

कामदेव के बाणों से ब्रह्माजी की कामाग्नि प्रदीप्त हो गयी जिससे अग्नि प्रकट हुई। उस अग्नि को शान्त करने के लिए भगवान ने ‘जल’ की रचना की और अपने मुख से जल की एक-एक बूंद गिराने लगे। तभी से जल के द्वारा आग बुझने लगी। उस बिन्दुमात्र जल से सारे जगत में जल प्रकट हो गया और उसी से जल के व सभी जल-जन्तुओं के देवता ‘वरुण देव’ प्रकट हुए और अग्नि से ‘अग्निदेव’ प्रकट हुए। अग्निदेव के वामभाग से उनकी पत्नी ‘स्वाहा’ प्रकट हुईं। वरुणदेव के वामभाग से ‘वरुणानी’ प्रकट हुईं। भगवान श्रीकृष्ण की नि:श्वास वायु से ‘पवन’ का प्रादुर्भाव हुआ जो सभी मनुष्यों के प्राण हैं। वायुदेव के वामभाग से उनकी पत्नी ‘वायवी’ प्रकट हुईं।

श्रीराधा का प्राकट्य

इन सबकी सृष्टि करके भगवान सभी देवी-देवताओं के साथ रासमण्डल में आए। उस रासमण्डल का दर्शन कर सभी लोग आश्चर्यचकित हो गए। वहां श्रीकृष्ण के वामभाग से कन्या प्रकट हुई, जिसने दौड़कर फूल ले आकर भगवान के चरणों में अर्घ्य प्रदान किया। क्योंकि ये रासमण्डल में धावन कर (दौड़कर) पहुंचीं अत: इनका नाम ‘राधा’ हुआ। वह परम सुन्दरी थीं। कोटि चन्द्र की प्रभा को लज्जित करने वाली शोभा धारण किए वे अपनी मन्द-मन्द गति से राजहंस और गज के गर्व को दूर करने वाली थी। रासमण्डल में उनका आविर्भाव हुआ, वे रासेश्वरी, गोलोक में निवास करने वाली, गोपीवेष धारण करने वाली, परम आह्लादस्वरूपा, संतोष तथा हर्षरूपा हैं। वे श्रीकृष्ण की सहचरी और सदा उनके वक्ष:स्थल पर विराजमान रहती हैं। उनका दर्शन ईश्वरों, देवेन्द्रों और मुनियों को भी दुर्लभ है। वे भगवान श्रीकृष्ण की अद्वितीय दास्यभक्ति और सम्पदा प्रदान करने वाली हैं। ये निर्गुणा (लौकिक त्रिगुणों से रहित), निर्लिप्ता (लौकिक विषयभोग से रहित), निराकारा (पांचभौतिक शरीर से रहित, दिव्यचिन्मयस्वरूपा) व आत्मस्वरूपिणी (श्रीकृष्ण की आत्मा) नाम से विख्यात हैं। ये अग्निशुद्ध नीले रंग के दिव्य वस्त्र धारण करती हैं। इन्हें परावरा, सारभूता, परमाद्या, सनातनी, परमानन्दस्वरूपा, धन्या, मान्या और पूज्या कहा जाता है।

भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा पाकर वे रत्नमय सिंहासन पर बैठ गईं। उन किशोरी के रोमकूपों से लक्षकोटि गोपांगनाओं का आविर्भाव हुआ जो रूप और वेष में उन्हीं के समान थीं तथा गोलोक में उनकी प्रिय दासियों के रूप में रहती थी। फिर श्रीकृष्ण के रोमकूपों से तीस करोड़ गोपगणों का आविर्भाव हुआ जो रूप और वेष में उन्हीं के समान थे। वे सभी परमेश्वर श्रीकृष्ण के प्राणों के समान प्रिय पार्षद बन गए। फिर श्रीकृष्ण के रोमकूपों से गौएं, बलीवर्द (सांड़), बछड़े व कामधेनु प्रकट हुईं। भगवान श्रीकृष्ण ने करोड़ों सिहों के समान बलशाली एक बलीवर्द को शिवजी को सवारी के लिए दे दिया। तत्पश्चात् भगवान के नखों से हंसपक्ति प्रकट हुई। उनमें से एक राजहंस को भगवान श्रीकृष्ण ने तपस्वी ब्रह्मा को वाहन बनाने के लिए दे दिया। फिर परमात्मा श्रीकृष्ण के बांये कान से सफेद रंग के घोड़े प्रकट हुए उनमें से एक भगवान ने धर्मदेव को सवारी के लिए दे दिया। भगवान के दाहिने कान से सिंह प्रकट हुए, उनमें से एक सिंह उन्होंने प्रकृतिदेवी दुर्गा को अर्पित कर दिया। इसके बाद श्रीकृष्ण ने योगबल से पांच रथों का निर्माण किया, उनमें से एक रथ भगवान नारायण को व एक श्रीराधा को देकर शेष अपने लिए रख लिए।

भगवान श्रीकृष्ण के गुह्यदेश से ‘कुबेर’ व ‘गुह्यक’ प्रकट हुए। कुबेर के वामभाग से उनकी पत्नी प्रकट हुईं। भगवान के गुह्यदेश से ही भूत, प्रेत, पिशाच, कूष्माण्ड, ब्रह्मराक्षस आदि प्रकट हुए। तदनन्तर भगवान के मुख से शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी पार्षद प्रकट हुए जिन्हें उन्होंने नारायण को सौंप दिया। गुह्यकों को उनके स्वामी कुबेर को और भूत-प्रेत आदि भगवान शंकर को अर्पित कर दिए। तदनन्तर श्रीकृष्ण के चरणारविन्दों से हाथों में जपमाला लिए पार्षद प्रकट हुए। श्रीकृष्ण ने उन्हें दास्यकर्ममें लगा दिया। वे सभी श्रीकृष्णपरायण ‘वैष्णव’ थे। उनके सारे अंग पुलकित थे, नेत्रों से अश्रु झर रहे थे और वाणी गद्गद थी।

इसके बाद भगवान के दाहिने नेत्र से तीन नेत्रों वाले, विशालकाय, दिगम्बर, हाथों में त्रिशूल और पट्टिश लिए, भयंकर गण प्रकट हुए जो ‘भैरव’ कहलाए। परमात्मा श्रीकृष्ण के बांये नेत्र से दिक्पालों के स्वामी ‘ईशान’ प्रकट हुए। इसके बाद श्रीकृष्ण की नासिका के छिद्र से डाकिनियां, योगिनियां, क्षेत्रपाल व पृष्ठदेश (पीठ) से विभिन्न देवताओं का प्रादुर्भाव हुआ।

परमात्मा श्रीकृष्ण द्वारा देवताओं को उनकी पत्नी का दान

परमात्मा श्रीकृष्ण ने महालक्ष्मी व सरस्वती भगवान नारायण को, सावित्री ब्रह्माजी को, मूर्तिदेवी धर्मदेव को, रूपवती रति कामदेव को और मनोरमा कुबेर को प्रदान की। जो-जो स्त्री जिस-जिससे प्रकट हुईं थीं, उस-उस स्त्री को उसी पति के हाथों में अर्पित किया। भगवान ने शंकरजी से सिंहवाहिनी दुर्गा को ग्रहण करने के लिए कहा। शिवजी ने कहा–मुझे गृहिणी नहीं अपनी भक्ति दीजिए। इस पर भगवान ने हंसते हुए कहा–तुम पूरे सौ करोड़ कल्पों तक निरन्तर दिन-रात मेरी सेवा करो। तुम अमरत्व लाभ करो और महान मृत्युज्जय हो जाओ। तुमसे बढ़कर मेरा कोई प्रिय भक्त नहीं है किन्तु तुम सौकोटि कल्पों के बाद शिवा (दुर्गा) को ग्रहण करोगे। तुम केवल तपस्वी नहीं हो, मेरे समान ही महान ईश्वर हो जो समयानुसार गृही, तपस्वी और योगी हुआ करता है। ऐसा कहकर भगवान ने उन्हें मृत्युज्जय-तत्त्वज्ञान दिया।

भगवान ने दुर्गा से कहा–इस समय तुम गोलोक में मेरे पास रहो। समय आने पर तुम शिव को पति रूप में प्राप्त करोगी। सभी देवताओं के तेज:पुंज से प्रकट होकर समस्त दैत्यों का संहार करके तुम सबके द्वारा पूजित होओगी। समस्त लोकों में प्रतिवर्ष तुम्हारी शरत्कालीन पूजा होगी। गांवों व नगरों में तुम ग्रामदेवता के रूप में पूजित होओगी। मैं तुम्हारे लिए कवच व स्त्रोत का विधान करुंगा। जो लोग तुम्हारी पूजा करेंगे, उनके यश, कीर्ति, धर्म और ऐश्वर्य की वृद्धि होगी। ये स्वर्ग में ‘स्वर्गलक्ष्मी’ और गृहस्थों के घर ‘गृहलक्ष्मी’ के रूप में विराजती हैं। तपस्वियों के पास तपस्यारूप से, राजाओं के यहां श्रीरूप से, अग्नि में दाहिका रूप से, सूर्य में प्रभा रूप से तथा चन्द्रमा एवं कमल में शोभा रूप से इन्हीं की शक्ति शोभा पा रही है। इनका सहयोग पाकर आत्मा में कुछ करने की योग्यता प्राप्त होती है। इन्हीं से जगत शक्तिमान माना जाता है। इनके बिना प्राणी जीते हुए भी मृतक के समान है।

विराट् पुरुष की उत्पत्ति

भगवान श्रीकृष्ण का शुक्र जल में गिरा। वह एक हजार वर्ष के बाद एक अंडे के रूप में प्रकट हुआ। उसीसे ‘विराट् पुरुष’ की उत्पत्ति हुई, जो सम्पूर्ण विश्व के आधार व अनन्त ब्रह्माण्डनायक हैं। वे स्थूल से भी स्थूलतम हैं। उनसे बड़ा दूसरा कोई नहीं है इसलिए वे महाविराट् नाम से प्रसिद्ध हुए। यह विराट् पुरुष ही प्रथम जीव होने के कारण समस्त जीवों का आत्मा, जीवरूप में परमात्मा का अंश और प्रथम अभिव्यक्त होने के कारण भगवान का आदि अवतार है। भूख से आतुर वह विराट् पुरुष रोने लगा और भगवान की स्तुति करने लगा। तब भगवान ने प्रकट होकर कहा–प्रत्येक लोक में वैष्णवभक्त जो नैवेद्य अर्पित करता है, उसका सोलहवां भाग तो भगवान विष्णु का होता है तथा पन्द्रह भाग इस विराट् पुरुष के होते हैं क्योंकि ये स्वयं परिपूर्णतम श्रीकृष्ण का विराट् रूप हैं। उन परिपूर्णतम परमात्मा श्रीकृष्ण को तो नैवेद्य से कोई प्रयोजन नहीं है। भक्त उनको जो कुछ भी नैवेद्य अर्पित करता है, उसे वे विराट् पुरुष ग्रहण करते हैं।

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भगवान ने उन्हें वर देते हुए कहा–तुम बहुत काल तक स्थिर भाव से रहो, जैसे मैं हूँ वैसे ही तुम भी हो जाओ। असंख्य ब्रह्मा के नष्ट होने पर भी तुम्हारा नाश नहीं होगा। प्रत्येक ब्रह्माण्ड में तुम अपने अंश से क्षुद्रविराट् रूप में स्थित रहोगे। तुम्हारे नाभिकमल से उत्पन्न होकर ब्रह्मा विश्व का सृजन करने वाले होंगे। सृष्टि के संहार के लिए ब्रह्मा के ललाट से ग्यारह रूद्रों का आविर्भाव होगा। उन रूद्रों में जो ‘कालाग्नि’ नाम का रूद्र है वही विश्व के संहारक होंगे। विष्णु विश्व की रक्षा के लिए तुम्हारे क्षुद्रअंश से प्रकट होंगे। तुम मुझ जगत्पिता और मेरे हृदय में निवास करने वाली जगन्माता को ध्यान के द्वारा देख सकोगे।

काल, स्वभाव, कार्य, कारण, मन, पंचमहाभूत, अहंकार, तीनों गुण, इन्द्रियां, ब्रह्माण्ड शरीर, स्थावर-जंगम जीव–सब-के-सब उन अनन्त भगवान के ही रूप हैं। वे ही ‘महाविष्णु’ जाने जाते हैं। तेज में वे परमात्मा श्रीकृष्ण के सोलहवें अंश के बराबर हैं। उनके एक-एक रोमकूप में एक-एक ब्रह्माण्ड स्थित हैं अत: इनके रोमकूपों में कितने ब्रह्माण्ड हैं, उन सब की स्पष्ट संख्या बता पाना संभव नहीं। एक-एक ब्रह्माण्ड में अलग-अलग ब्रह्मा, विष्णु और शिव हैं। पाताल से ब्रह्मलोकपर्यन्त वे महार्णव के जल में शयन करते हैं। शयन करते समय इनके कानों के मल से दो दैत्य (मधु कैटभ) प्रकट हुए जिनका भगवान नारायण ने वध कर दिया, उन्हीं के मेदे से यह सारी मेदिनी पृथ्वी निर्मित हुई उसी पर सम्पूर्ण विश्व की स्थिति है, जिसे वसुन्धरा कहते हैं।

क्षुद्रविराट्–श्रीकृष्ण की आज्ञानुसार वे विराट् पुरुष अपने अंश से क्षुद्र विराट् पुरुष हो गए। इनकी सदा युवा अवस्था रहती है। ये श्याम वर्ण के व पीताम्बरधारी हैं और जल रूपी शय्या पर सोये रहते हैं।  इनको जनार्दन भी कहा जाता है।

इसके बाद परमात्मा श्रीकृष्ण ने सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी को महाविराट् के एक रोमकूप में स्थित क्षुद्रविराट् के नाभिकमल से प्रकट होने का आदेश दिया। इन्हीं के नाभिकमल से ब्रह्मा प्रकट हुए और उत्पन्न होकर वे ब्रह्मा उस कमलदण्ड में एक लाख युगों तक चक्कर लगाते रहे फिर भी पद्मनाभ की नाभि से उत्पन्न हुए कमलदण्ड तथा कमलनाल के अंतिम छोर का पता नहीं लगा सके। तब उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान व स्तुति की और भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा से ब्रह्माजी ने सृष्टि-रचना का कार्य आरम्भ कर दिया।

सर्वप्रथम ब्रह्मा से सनकादि चार मानस पुत्र हुए, उनके ललाट से शिव के अंश ग्यारह रूद्र हुए। क्षुद्रविराट् के वामभाग से जगत की रक्षा के लिए चतुर्भुज विष्णु हुए जो श्वेतद्वीप में निवास करते हैं।

ब्रह्माजी द्वारा मेदिनी, सृष्टि का निर्माण

भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञानुसार ब्रह्माजी ने सबसे पहले मधु और कैटभ के मेदे से मेदिनी की सृष्टि की। ब्रह्माजी ने आठ प्रधान पर्वत (सुमेरु, कैलास, मलय, हिमालय, उदयाचल, अस्ताचल, सुवेल और गन्धमादन) और अनेकों छोटे-छोटे पर्वत बनाए। फिर ब्रह्माजी ने सात समुद्रों (क्षारोद, इक्षुरसोद, सुरोद, घृत, दधि तथा सुस्वादु जल से भरे हुए समुद्र) की सृष्टि की व अनेकानेक नदियों, गांवों, नगरों व असंख्य वृक्षों की रचना की। सात समुद्रों से घिरे सात द्वीप (जम्बूद्वीप, शाकद्वीप, कुशद्वीप, प्लक्षद्वीप, क्रौंचद्वीप, न्यग्रोधद्वीप तथा पुष्करद्वीप) का निर्माण किया। इसमें उनचास उपद्वीप हैं।

उन्होंने मेरुपर्वत के आठ शिखरों पर आठ लोकपालों के लिए आठ पुरियां व भगवान अनन्त (शेषनाग) के लिए पाताल में नगरी बनाई। तदनन्तर ब्रह्माजी ने उस पर्वत के ऊपर सात स्वर्गों (भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपोलोक तथा सत्यलोक) की सृष्टि की। पृथ्वी के ऊपर भूर्लोक, उसके बाद भुवर्लोक, उसके ऊपर स्वर्लोक, तत्पश्चात् जनलोक, फिर तपोलोक और उसके आगे सत्यलोक है। मेरु के सबसे ऊपरी शिखर पर स्वर्ण की आभा वाला ब्रह्मलोक है, उससे ऊपर ध्रुवलोक है। मेरुपर्वत के नीचे सात पाताल (अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, पाताल तथा रसातल) हैं जो एक से दूसरे के नीचे स्थित हैं, सबसे नीचे रसातल है। सात द्वीप, सात स्वर्ग तथा सात पाताल सहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ब्रह्माजी के अधिकार में है। ऐसे-ऐसे असंख्य ब्रह्माण्ड हैं और वे महाविष्णु के रोमकूपों में स्थित हैं। श्रीकृष्ण की माया से प्रत्येक ब्रह्माण्ड में अलग-अलग दिक्पाल, ब्रह्मा, विष्णु व महेश, देवता, ग्रह, नक्षत्र, मनुष्य आदि स्थित हैं। पृथ्वी पर चार वर्ण के लोग और उसके नीचे पाताललोक में नाग रहते हैं। पाताल से ब्रह्मलोकपर्यन्त ब्रह्माण्ड कहा गया है। उसके ऊपर वैकुण्ठलोक है; वह ब्रह्माण्ड से बाहर है। उसके ऊपर पचास करोड़ योजन विस्तार वाला गोलोक है। कृत्रिम विश्व व उसके भीतर रहने वाली जो वस्तुएं हैं वे अनित्य हैं। वैकुण्ठ, शिवलोक और गोलोक ही नित्यधाम हैं।

विभिन्न कल्पों में सृष्टि-रचना

जैसे सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलयुग–ये चार युग होते हैं, वैसे ही तीन महाकल्प होते हैं–ब्रह्मकल्प, वाराहकल्प और पाद्मकल्प। परन्तु छोटे-छोटे कल्प बहुत-से हैं। ब्रह्माजी की आयु के बराबर एक कल्प होता है। ब्राह्मकल्प में मधु-कैटभ के मेद से मेदिनी की सृष्टि करके ब्रह्माजी ने भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा लेकर सृष्टि-रचना की थी। वाराहकल्प में जब पृथ्वी एकार्णव के जल में डूब गयी थी, तब वाराहरूपधारी भगवान विष्णु ने रसातल से उसका उद्धार किया और सृष्टि-रचना की। पाद्मकल्प में सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने विष्णु के नाभिकमल पर सृष्टि का निर्माण किया। सृष्टि-रचना में ब्रह्मलोकपर्यन्त जो त्रिलोकी है, उसी की रचना की; गोलोक, वैकुण्ठलोक व शिवलोक नित्य हैं।

प्राकृतिक प्रलय

इकत्तर दिव्य युगों की इन्द्र की आयु होती है। ऐसे अट्ठाईस इन्द्रों का पतन हो जाने पर ब्रह्मा का एक दिन-रात होता है। ऐसे सौ वर्ष की ब्रह्मा की आयु होती है। जब श्रीहरि आंख मूंदते और पलक गिराते हैं, तब ब्रह्माजी का पतन एवं प्रलय होता है। उसी को ‘प्राकृतिक प्रलय’ कहते हैं। उस प्राकृतिक प्रलय के समय पृथ्वी दिखाई नहीं पड़ती। उस समय सम्पूर्ण प्राकृत पदार्थ, प्राणी और देवता ब्रह्मा में लीन हो जाते हैं और ब्रह्मा भगवान श्रीकृष्ण के नाभिकमल में लीन हो जाते हैं। क्षीरशायी विष्णु, वैकुण्ठवासी विष्णु परमात्मा श्रीकृष्ण के वामभाग में लीन हो जाते हैं। रूद्र, भैरव आदि शिव के अनुगामी शिव में लीन हो जाते हैं, और ज्ञान के अधिष्ठाता शिव श्रीकृष्ण के ज्ञान में विलीन हो जाते हैं। सम्पूर्ण शक्तियां दुर्गा में तिरोहित हो जाती हैं और बुद्धि की अधिष्ठात्री दुर्गा भगवान श्रीकृष्ण की बुद्धि में स्थान ग्रहण कर लेती हैं। स्वामी कार्तिकेय श्रीकृष्ण के वक्ष:स्थल में और गणेश उनकी दोनों भुजाओं में प्रविष्ट हो जाते हैं। लक्ष्मी, उनकी अंशभूता देवियां, गोपियां और सभी देवपत्नियां श्रीराधा में लीन हो जाती हैं। भगवान श्रीकृष्ण के प्राणों की अधीश्वरी देवी श्रीराधा उनके प्राणों में निवास कर जाती हैं। सावित्री, वेद एवं सम्पूर्ण शास्त्र सरस्वती में प्रवेश कर जाते हैं। सरस्वती परमब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण की जिह्वा में विलीन हो जाती हैं। गोलोक के सम्पूर्ण गोप भगवान श्रीकृष्ण के रोमकूपों में लीन हो जाते हैं। सम्पूर्ण प्राणियों की प्राणस्वरूप वायु का श्रीकृष्ण के प्राणों में, समस्त अग्नियों का उनकी जठराग्नि में व जल का उनकी जिह्वा के अग्रभाग में लय हो जाता है। भक्तिरस का पान करने वाले समस्त वैष्णव भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में लीन हो जाते हैं। क्षुद्रविराट् महाविराट् में और महाविराट् श्रीकृष्ण में लीन हो जाते हैं। प्रकृति भी परब्रह्म श्रीकृष्ण में लीन हो जाती है।

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परमात्मा श्रीकृष्ण के ही रोमकूपों में सम्पूर्ण विश्व की स्थिति है। भगवान के आंख मींचने पर महाप्रलय होता है तथा उनकी आंख खुलते ही पुन: सृष्टि का कार्य आरम्भ हो जाता है। ब्रह्मा के सौ वर्षों तक सृष्टि चालू रहती है, फिर उतने ही समय के लिए प्रलय हो जाता है। जैसे पृथ्वी के धूलिकणों की गिनती नहीं की जा सकती, ठीक उसी तरह ब्रह्मा की सृष्टि और प्रलय की कोई गिनती ही नहीं है। कितने कल्प आए और गए, कौन जान सकता है? सभी ब्रह्माण्डों का ईश्वर एक ही है; और वह हैं श्रीकृष्ण। वे श्रीकृष्ण द्विभुज और चतुर्भुज होकर दो रूपों में विभक्त हो गए। उनमें चतुर्भुज श्रीहरि वैकुण्ठ में और स्वयं द्विभुज श्रीकृष्णरूप में गोलोक में प्रतिष्ठित हुए।

मैं ही गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी शरण, निवास, सुहृद मैं ही।
मैं उत्पत्ति, प्रलय, स्थान, निधान नित्य बीज मैं ही।।
मैं ही मेघ रोकता, तपता, मैं ही बरसाता हूँ वृष्टि।
मैं ही अमृत, मृत्यु भी मैं ही, सदसत् मैं ही सारी सृष्टि।। (श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार)

श्रीभगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं–

‘हे अर्जुन! मेरे अतिरिक्त दूसरी कोई भी वस्तु नहीं है। माला के सूत्र में पिरोये हुए मणियों के समान यह समस्त ब्रह्माण्ड मुझमें पिरोया हुआ है।’ (७।७)

‘मैं ही गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, शरण, सुहृद्, उत्पत्ति, प्रलय, सबका आधार, निधान तथा अविनाशी कारण हूँ।’ (१४।२७)

गीता में ऐसे बहुत-से श्लोक हैं, इनके अलावा महाभारत व श्रीमद्भागवत में ऐसे अनेक वाक्य हैं, जिनसे यह सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण पूर्ण परात्पर सनातन ब्रह्म हैं। परमात्मा श्रीकृष्ण नित्यस्वरूप, नित्यानन्द, निराकार, निरामय, निरंकुश, निर्गुण, निर्लिप्त, सर्वसाक्षी एवं सर्वाधार हैं। कमलनयन श्रीकृष्ण से बढ़कर  दूसरा कोई दिखाई ही नहीं देता। वे ही सर्वभूतमय और सबकी आत्मा हैं। वे परम तेज हैं और सम्पूर्ण लोकों के पितामह हैं।

अनोखा अभिनय यह संसार!
रंगमंच पर होता नित नटवर-इच्छित व्यापार।।
कोई है सुत सजा, किसी ने धरा पिता का साज।
कोई स्नेहमयी जननी बन करता नट का काज।।
इसी तरह जग में सब खेलें खेल सभी अविकार।
मायापति नटवर नायक के शुभ इंगित-अनुसार।।  (श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार)

जैसे कठपुतली के नाच में कठपुतली और उसका नृत्यदर्शकों को दिखाई देता है, परन्तु कठपुतलियों को नचाने वाला सूत्रधार पर्दे के पीछे रहता है, जिसे दर्शक देख नहीं पाते। इसी प्रकार यह संसार तो दिखता है–पर इसका संचालक परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता। जो कुछ दिखता है, वह सत्य नहीं है, सत्य तो केवल परब्रह्म परमात्मा है। इसीलिए श्रीशंकराचार्यजी ने कहा है–

‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या।’

श्रीमद्भगवद्गीता के ग्यारहवें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने मुख में अर्जुन को विश्वदर्शन कराकर यह शिक्षा दी कि मैं ही सब कुछ हूँ, सब मेरा ही स्वरूप हैं, उसके अतिरिक्त कुछ नहीं। अंत में यही कहा जा सकता है कि इस सृष्टि का सूत्रधार सृष्टि के कण-कण में समाया हुआ है, हम सबके हृदय में व्याप्त है। जब हमारा चित्त निर्मल होगा, तभी वह हमें दिखाई देगा।

20 COMMENTS

  1. अति सुन्दर और ज्ञानप्रद आलेख
    चित्रों का प्रस्तुतीकरण मनमोहक

    हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
    हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।

  2. इसका उत्तर बहुत पहले दिया जा चुका है .

    “श्रुत्योर्स्मृत्यो: विभिन्नं, न सो मुनीर्यस़्य मतिर्न भिन्नम्!
    नेको मुनीर्यस्य वच: प्रमाणं, एकोसद्विप्रा: बहुधा वदन्ति!.”

    फिर मनु महाराज ने शास्त्रों के नाम से की गई समस्त प्रकार की “लिखा-पढी” औऱ उद्देश्य का रहस्योद्घाटन कर दिया था!

    “मंदबोधोपकारार्थ धर्मशास्त्रं विनिर्मितम्..!
    निज कल्याणमार्ग हि पश्यति सुधिय स्वयम्.! ”

    यानी ये धर्म शास्त्र मंद बुद्धि के लोगों के ‘कल्याण’ के लिये रचे गये हैं!
    सुधिय यानी बुद्धिमान अपना कल्याण मार्ग खुद ही देखता है!

    अब हमें यह तय करना है कि हम मंदबुद्धि हैं या सुधिय?

    फिर ऊपर के सर्वोच्च निर्णय में यह तथ्य ऱूप में स्थापित है कि कोई भी ऐसा मुनि नहीं, मात्र उसी का वचन प्रामाणिक हो.!

    मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्नम्!

    इसलिये हमें यह तय करना है कि हम किस कोटि के मनुष्य हैं?
    पढे लिखे होकर भी “मंद बुद्धि”
    या सुधिय यानी बुद्धिमान?

    मंद बुद्धि भाई बहनों की मजबूरी को सुनाकर अपना हित साधने वाले?

    या फिर सामान्य बुद्धि के लोगों को मूर्ख बनाकर अपना हित साधने वाले?

    हमारा हित “वसुधैवकुटुंबकंटम्” में निहित है या क्षुद्र स्वार्थ साधने में?
    यह तय है कि दुनिया में जब तक एक भी मूर्ख जिंदा है, चतुर आदमी के बच्चे भूखों नहीं मर सकते.! यानी हम हमारी चतुराई से कम, अपितु दूसरों की मूर्खता से अधिक जीतते हैं!

    अपवाद स्वरूप ही जन्मजात मूर्ख होते हैं, दुष्प्रेरित उद्देश्य से दी जाने वाली शिक्षा ही अधिकांश को मूर्ख बना देती है.!

    जिस ज्ञान का उद्देश्य ही दूषित हो, वह केवल.”पाप”. उत्पन्न करता है!

  3. अति सुन्दर और ज्ञानप्रद आलेख
    चित्रों का प्रस्तुतीकरण मनमोहक

    हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
    हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।

  4. हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
    हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।
    अति सुन्दर और ज्ञानप्रद आलेख
    चित्रों का प्रस्तुतीकरण मनमोहक

  5. Visnu puran wale bolte hmara visnu se sabh kich huya hai . Ram chritar walle bolte sri ram chander bhagwan ji hai.. bhagwad geeta walle bolte hmara krisan sabh kich karta.. muslim bolte alha sabh kich hai budh jeen mhaveer bolte ham hi bhagwan hai.. sikh bolte guru hi bhagwan hai….sabh apne apne ko shi sabt karne main din rat jor lgga rhe hai ji…….likin hmara bhagwan kha gya ji

    • हमें परमात्मा उसे कहना चाहिये जो सर्व धर्म मान्य हो जैसे अल्लाह नूर है ,गॉड इज लाईट ,ज्योतीरस्वरूपां ,जेहोवा अर्थात सभी शिव को पुजते है मानते है श्री कृष्ण को नही वह तो देवता है न कि परमात्मा ,परमात्मा तो अतिसुक्ष्म ज्योतीरबिंदू है बीज रूप है अजन्मा है ,निराकार है उसके न कोई गुरु माता पिता है गीता भी शिव कि है न कि श्रीकृष्ण कि ,श्रीकृष्ण साकार है देहधारी है जन्म मरण मे आनेवाले है सबका एक हि ईश्वर है उसकी कोई प्रतिमा नही है “न तस्य प्रतिमा असती – श्वेताश्वतारा उपनिषद ,एकं येवाद्वितीयं -छांदोग्य उपनिषद , ना कास्य कस्कीज जनिता न काद्दीप ,-श्वेताश्वतारा उपनिषद ( परमात्मा के कोई माँ बाप नही ) ,एकं ब्रम्ह द्वितीयं नास्ती नेह नास्ती किचन ,एक परम ब्रह्म है जो सत्य है सात चित आनंद स्वरूप है वही सत्य शिवम सुंदरम है
      भगवद गीता अ-७/२४ ,,२५ ,अ -८ /९ ,

  6. Wastav me parbrahm parmeshwar shree Krishna hi hai kyuki kisi v sastra me kisi v devi devta athwa bhagwan ne kabhi ye nhi bola hai apne muh se ki mai hi ishwar hoon & mai hi sabkuch hoon but geeta granth me shree Krishna ne khud apne aap ko ishwar kahe hai yaha tak ki apne ishwariy rup v arjun ko dikha diye hai aur us unlimited virat ke room kupo me kroro arbo brahmand the aur har brahmand me alag tridev arthat ye ki Brahma Vishnu & mahesh the kintu har Brahmand me Krishna ek hi the

  7. में गीता पढ़ कर जरा असमंजस में पड़ा हूँ कृपया मेरी समस्या का समाधान करे , कहते है गीता श्री कृष्ण जी ने ५ ००० या ७००० वर्ष पहले द्वापर में सुनाई थी यह गीता ज्ञान हम मनुषोंको इस लिए दिया गया की जब जब धर्म की अति ग्लानि होती है तब तब में धर्म की रक्षा करने प्रकट होता हूँ अर्थात अधर्म का विनाश और सत्धर्म की स्थापना फिर भी द्वापर युग बाद यह कलियुग क्यों भगवान गीता कहकर गए फिर भी पापाचार ,अत्याचार ,व्यभिचार ,भ्रस्टाचार की यह परम सिमा क्यों आयी ? दूसरी बात अध्याय ७ श्लोक २५
    ” नाहं प्रकाश : सर्वस्य योगमायासमावृत : ।
    मूढो यं नाभिजानाती लोको मामजमव्ययम ।। अर्थात भगवान ने क्यों कहा की में मूढ़ और अज्ञानी लोगोको कभी प्रकट नहीं होता मेरे अंतरंग शक्ति के द्वारा में उनसे अप्रकट रहता हूँ इसलिए मैं अजन्मा हु और अच्युत हूँ । लेकिन श्री कृष्ण जी ने तो जन्म लिया था (गीता भी एक गीतोपनिषद है ) फिर श्वेत श्वतारा उपनिषद ने क्यों कहा की ,” नाकांस्य कस्कीज जनिता न काधिप “अर्थात उस भगवान के कोई माँ और बाप नहीं और उसी उपनिषद में अध्याय ४ श्लोक १९ में क्यों कहा की , “न तस्य प्रतिमा आस्ति ” अर्थात उसका कोई रूप और प्रतिमा नहीं है जब की श्री कृष्ण जी तो साकार थे ,तीसरा ब्रम्हसूत्र भी कहता है ” एकम ब्रम्ह द्वितीय नास्ति नेह नास्ति “अर्थात केवल एक ईश्वर के शिवाय और कोई भगवान नहीं है गीता का और श्लोक ९ अध्याय ८
    ” कविं पुराणमनुशसितारमनोरनियासमनुस्मरेध्य:।
    सर्वस्य धातारामचिन्त्यरूपमादित्यवर्ण तमस : परस्तात ।।
    अर्थात जो सर्वज्ञ है पुरातन है अनुशासक है जो अनु से भी सूक्ष्म है जो सर्व का पालनकर्ता है जो अचिन्त्य रूप है जो सूर्यप्रकाश की भाटी हमें अज्ञान अंधेर से ज्ञान प्रकाश की और ले जाता है उसी का चिंतन मनुष्य ने करना चाहिए यहां तो ज्योतिरप्रकाश सूक्ष्म से सूक्ष्म की बात हो रही है जैसे मुसलमानो ने खुदा नूर कहा और खिचन ने गॉड इज लाइट कहा और हिन्दू ने ज्योतिर स्वरूपं कहा महाईश्वर तो वह है जिसे प्रत्यक्ष ,अप्रत्यक्ष रूप से सभी धर्म स्वीकार करे जो सतचित आनंद स्वरूपं हो कल्याणकारी हो वह तो शिव है जिसे ही सत्यम शिवम् सुंदरम कहते है जो ज्योतिर्स्वरूपम और अजन्मा है फिर सवाल यह उठता की आखिर गीता किसने सुनाई कृपया मार्गदर्शन करे

    • कृष्णा जी वहा उस मनुष्य रूपी शरीर मे पर ब्रम्ह की आत्म की बात कर रहे भैया जी न की जो शरीर है उसकी

  8. श्रीमद्भगवद गीता श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया गया ज्ञान है।इस बात को जो लोग नहीं मानते,उसके पीछे एक ही कारण है कि यह लोग कृष्ण तत्व से अनभिज्ञ हैं। कृष्ण तत्व को जाने बिना कोई परमेश्वर कृष्ण को नहीं जान सकता।आप ब्रह्मवैवर्त पुराण या गर्गसंहिता का अध्ययन करें।हलांकि मैडम जी के इस लेख में यह बात स्पष्ट है कि कृष्ण ही भगवान हैं।

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