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कुंती जी की विपत्ति में भक्ति
महारानी कुन्ती भगवान श्रीकृष्ण की बुआ थीं । उनका जीवन सदा विपत्ति में ही गुजरा । इस विपत्ति में भी उन्हें सुख था । उनका मानना था--’भगवान का विस्मरण होना ही विपत्ति है और उनका स्मरण बना रहे, यही सबसे बड़ी सम्पत्ति है ।’ उन्हें भगवान श्रीकृष्ण का कभी विस्मरण हुआ ही नहीं, अत: वे सदा सुख में ही रहीं ।
कुन्तीजी भगवान से प्रार्थना करती हैं--’हे जगद्गुरो ! हम पर सदा विपत्तियां ही आती रहें, क्योंकि आपके दर्शन विपत्ति में ही होते हैं और आपके दर्शन होने पर फिर इस संसार के दर्शन नहीं होते और मनुष्य आवागमन से रहित हो जाता है।’ (श्रीमद्भा. १।८।२५)
श्रीकृष्ण जिन्हेंने सिखाया मृत्यु का श्रेष्ठतम आदर्श
मृत्यु का जो आदर्श इस प्रसंग में स्थापित किया गया है, उससे अधिक उदार, शांतिप्रद, महिमावान, सान्त्वना-प्रदायी कोई दूसरा इतिहास में देखने को नहीं मिलता है । यह एक ऐसा आदर्श है, जहां एक बाणविद्ध एवं मृत्यु के द्वार पर पहुंचा हुआ मानव क्रोध आदि समस्त प्रतिशोध की भावना से मुक्त होकर अपने पर घातक प्रहार करने वाले व्यक्ति को सान्त्वना ही नहीं देता; बल्कि उसे प्रेम से भुजाओं में भर कर पुरस्कार भी देता है ।
श्रीकृष्ण की मार में भी प्यार है
भगवान श्रीकृष्ण अति प्रेममय और उदार हैं । शिशुपाल वैर-भाव से ही सही, परमात्मा का स्मरण कर रहा था । मन मित्र से ज्यादा शत्रु का स्मरण करता है । पारसमणि का काम है लोहे को सोना बनाना । अब यदि हथौड़ा पारसमणि पर मारा जाए तो यद्यपि पारसमणि टूट जाएगी पर वह अपने स्पर्श से हथौड़े को सोना बना देगी; परंतु पारसमणि नहीं बनाएगी । इसीलिए जिसने श्रीकृष्ण को छुआ या जिसे श्रीकृष्ण ने छुआ; उन्हें श्रीकृष्ण ने श्रीकृष्णमय बना दिया ।
शुभ-अशुभ कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है
कर्मों की गति बड़ी गहन होती है । कर्म की गति जानने में देवता भी समर्थ नहीं हैं, मानव की तो बात ही क्या है ? काल के पाश में बंधे हुए समस्त जीवों को अपने द्वारा किये गये शुभ अथवा अशुभ कर्मों का फल निश्चित रूप से भोगना ही पड़ता है । मनुष्य कर्म-जंजाल में फंसकर मृत्यु को प्राप्त होता है और फिर कर्मफल के भोग के लिए पुनर्जन्म धारण करता है ।
कुरुक्षेत्र को ‘धर्मक्षेत्र’ क्यों कहा जाता है ?
श्रीमद्भगवद्गीता का आरम्भ ही ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ इन शब्दों से होता है । कुरुक्षेत्र जहां कौरवों और पांडवों का महाभारत का युद्ध हुआ और जहां भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी दिव्य वाणी से गीता रूपी अमृत संसार को दिया, उसे धर्मक्षेत्र या पुण्यक्षेत्र क्यों कहा जाता है ? इसके कई कारण हैं ।
भगवान श्रीकृष्ण द्वारा युधिष्ठिर को आत्म-तत्त्व का उपदेश
प्रलयकाल में समस्त जगत का संहार करके उसे अपने उदर में स्थापित कर दिव्य योग का आश्रय ले मैं एकार्णव के जल में शयन करता हूँ । एक हजार युगों तक रहने वाली ब्रह्मा की रात पूर्ण होने तक महार्णव में शयन करके उसके बाद जड़-चेतन प्राणियों की सृष्टि करता हूँ । किंतु मेरी माया से मोहित होने के कारण जीव मुझे नहीं जान पाते हैं । कहीं भी कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है, जिसमें मेरा निवास न हो । भूत, भविष्य जो कुछ है, वह सब मैं ही हूँ । सभी मुझसे ही उत्पन्न होते हैं; फिर भी मेरी माया से मोहित होने के कारण मुझे नहीं जान पाते हैं ।
स्त्रियां अपने मन में कोई बात क्यों नहीं छिपा पाती हैं...
एक प्रसिद्ध कहावत है कि ‘स्त्रियों के पेट में कोई बात नहीं पचती है ।’ यह केवल कहावत नहीं है वरन् सच्चाई है जिसका वर्णन महाभारत के शान्तिपर्व में है ।
वैशाखमास में सत्तू दान की महिमा
युधिष्ठिर को राजसूय यज्ञ का वह पुण्य क्यों नहीं मिला जो एक ब्राह्मण परिवार ने भूखे अतिथि को केवल सत्तू के दान से प्राप्त किया ।
सौ हाथों से कमाओ और हजार हाथों से दान करो
क्यों द्रौपदी का भोजनपात्र कभी नहीं होता था खाली