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मनुष्य के बार-बार जन्म-मरण का क्या कारण है ?
प्रत्येक जीव इंद्रियों का स्वामी है; परंतु जब जीव इंद्रियों का दास बन जाता है तो जीवन कलुषित हो जाता है और बार-बार जन्म-मरण के बंधन में पड़ता है । वासना ही पुनर्जन्म का कारण है । जिस मनुष्य की जहां वासना होती है, उसी के अनुरूप ही अंतसमय में चिंतन होता है और उस चिंतन के अनुसार ही मनुष्य की गति—ऊंच-नीच योनियों में जन्म होता है । अत: वासना को ही नष्ट करना चाहिए । वासना पर विजय पाना ही सुखी होने का उपाय है ।
शुभ-अशुभ कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है
कर्मों की गति बड़ी गहन होती है । कर्म की गति जानने में देवता भी समर्थ नहीं हैं, मानव की तो बात ही क्या है ? काल के पाश में बंधे हुए समस्त जीवों को अपने द्वारा किये गये शुभ अथवा अशुभ कर्मों का फल निश्चित रूप से भोगना ही पड़ता है । मनुष्य कर्म-जंजाल में फंसकर मृत्यु को प्राप्त होता है और फिर कर्मफल के भोग के लिए पुनर्जन्म धारण करता है ।
शंख की उत्पत्ति कथा तथा शंख-ध्वनि की महिमा
समुद्र-मंथन के समय समुद्र से जो १४ रत्न निकले, उनमें एक शंख भी है । इसलिए इसे ‘समुद्रतनय’ भी कहते हैं । शंख में साक्षात् भगवान श्रीहरि का निवास है और वे इसे सदैव अपने हाथ में धारण करते हैं । मंगलकारी होने व शक्तिपुंज होने से अन्य देवी-देवता जैसे सूर्य, देवी और वेदमाता गायत्री भी इसे अपने हाथ में धारण करती हैं; इसीलिए शंख का दर्शन सब प्रकार से मंगल प्रदान करने वाला माना जाता है ।
भगवान श्रीकृष्ण का गोप-गोपियों को वैकुण्ठ का दर्शन कराना
ब्रज में आकर गोप-गोपियों ने भी चैन की सांस लेते हुए कहा—‘वैकुण्ठ में जाकर हम क्या करेंगे ? वहां यमुना, गोवर्धन पर्वत, वंशीवट, निकुंज, वृंदावन, नन्दबाबा-यशोदा और उनकी गाय—कुछ भी तो नहीं हैं । वहां ब्रज की मंद सुगंधित बयार भी नहीं बहती, न ही मोर-हंस कूजते हैं । वहां कन्हैया की वंशीधुन भी नहीं सुनाई देती । ब्रज और नन्दबाबा के पुत्र को छोड़कर हमारी बला ही वैकुण्ठ में बसे ।
अवधूत दत्तात्रेय जी के 24 गुरु और उनकी शिक्षाएं
अवधूत दत्तात्रेय जी ने अपने जीवन-यापन के क्रम में पंचभूतों और छोटे-छोटे जीवों की स्वाभाविक क्रियाओं को बहुत ध्यान से देखा और उनमें उन्हें जो कुछ भी अच्छा लगा, उसे उन्होंने गुरु मान कर अपने जीवन में उतार लिया । इस प्रसंग का वर्णन श्रीमद्भागवत के एकादश स्कन्ध में किया गया है ।
कुरुक्षेत्र को ‘धर्मक्षेत्र’ क्यों कहा जाता है ?
श्रीमद्भगवद्गीता का आरम्भ ही ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ इन शब्दों से होता है । कुरुक्षेत्र जहां कौरवों और पांडवों का महाभारत का युद्ध हुआ और जहां भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी दिव्य वाणी से गीता रूपी अमृत संसार को दिया, उसे धर्मक्षेत्र या पुण्यक्षेत्र क्यों कहा जाता है ? इसके कई कारण हैं ।
रोम रोम से श्रीकृष्ण नाम
भगवान के नाम में विलक्षण शक्ति है । जिस प्रकार किसी व्यक्ति का नाम लेने पर वही आता है; ठीक उसी तरह ‘श्रीकृष्ण’ नाम का उच्चारण करने पर वह तीर की तरह लक्ष्यभेद करता हुआ सीधे भगवान के हृदय पर प्रभाव करता है; जिसके फलस्वरूप मनुष्य श्रीकृष्ण कृपा का भाजन बनता है । जहाँ कहीं और कभी भी शुद्ध हृदय से ‘कृष्ण’ नाम का उच्चारण होता है; वहाँ-वहाँ स्वयं कृष्ण अपने को व्यक्त करते हैं ।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश युद्धभूमि में क्यों दिया ?
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश किसी ऋषि-मुनियों और विद्वानों की सभा या गुरुकुल में नहीं दिया, बल्कि उस युग के सबसे बड़े युद्ध ‘महाभारत’ की रणभूमि में दिया । युद्ध अनिश्चितता का प्रतीक है, जिसमें दोनों पक्षों के प्राण और प्रतिष्ठा दाँव पर लगते हैं । युद्ध के ऐसे अनिश्चित वातावरण में मनुष्य को शोक, मोह व भय रूपी मानसिक दुर्बलता व अवसाद से बाहर निकालने के लिए एक उच्चकोटि के ज्ञान-दर्शन की आवश्यकता होती है; इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का ज्ञान वहीं दिया, जहां उसकी सबसे अधिक आवश्यकता थी ।
भगवान को पुत्र बनाने के लिए मनुष्य में कैसी योग्यता होनी...
नंद और यशोदा को भगवान श्रीकृष्ण के माता-पिता बनने का सौभाग्य क्यों प्राप्त हुआ ? इसके पीछे उनके पूर्व जन्म के एक पुण्यकर्म की कथा ।
आली री मोहे लागे वृंदावन नीको
वृंदावन, मथुरा और द्वारका भगवान के नित्य लीला धाम हैं; परन्तु पद्म पुराण के अनुसार वृंदावन ही भगवान का सबसे प्रिय धाम है । भगवान श्रीकृष्ण ही वृंदावन के अधीश्वर हैं । वे ब्रज के राजा हैं और ब्रजवासियों के प्राणवल्लभ हैं । उनकी चरण-रज का स्पर्श होने के कारण वृंदावन पृथ्वी पर नित्य धाम के नाम से प्रसिद्ध है ।