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गरुड़, सुदर्शन चक्र और श्रीकृष्ण की पटरानियों का गर्व-हरण
जहां-जहां अभिमान है, वहां-वहां भगवान की विस्मृति हो जाती है । इसलिए भक्ति का पहला लक्षण है दैन्य अर्थात् अपने को सर्वथा अभावग्रस्त, अकिंचन पाना । भगवान ऐसे ही अकिंचन भक्त के कंधे पर हाथ रखे रहते हैं । भगवान अहंकार को शीघ्र ही मिटाकर भक्त का हृदय निर्मल कर देते हैं ।
सूरदास जी के शुभ संकल्प की शक्ति
उद्धव जी के अवतार माने जाने वाले सूरदास जी की उपासना सख्य-भाव की थी । श्रीनाथ जी के प्रति उनकी अपूर्व भक्ति थी । उन्होंने वल्लभाचार्यजी की आज्ञा से श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध की कथा को पदों में गाया । सूरदास जी का सवा लाख पद रचना का संकल्प श्रीनाथजी ने पूरा कराया
सबसे बड़ा मूर्ख कौन ?
अंतकाल में जब बोलने की भी शक्ति नहीं होगी, प्राण-पखेरु इस देह रूपी पिंजरे को छोड़ कर उड़ गया होगा, तब सभी लोग कहेंगे—‘राम नाम सत्य है’; परंतु जब तक शरीर में शक्ति है, देह में आत्मा है, तब तक ‘रामनाम’ लेने की सीख कोई नहीं देता । यही इस संसार की सबसे बड़ी मूर्खता है ।
मनुष्य के बार-बार जन्म-मरण का क्या कारण है ?
प्रत्येक जीव इंद्रियों का स्वामी है; परंतु जब जीव इंद्रियों का दास बन जाता है तो जीवन कलुषित हो जाता है और बार-बार जन्म-मरण के बंधन में पड़ता है । वासना ही पुनर्जन्म का कारण है । जिस मनुष्य की जहां वासना होती है, उसी के अनुरूप ही अंतसमय में चिंतन होता है और उस चिंतन के अनुसार ही मनुष्य की गति—ऊंच-नीच योनियों में जन्म होता है । अत: वासना को ही नष्ट करना चाहिए । वासना पर विजय पाना ही सुखी होने का उपाय है ।
भगवान को पुत्र बनाने के लिए मनुष्य में कैसी योग्यता होनी...
नंद और यशोदा को भगवान श्रीकृष्ण के माता-पिता बनने का सौभाग्य क्यों प्राप्त हुआ ? इसके पीछे उनके पूर्व जन्म के एक पुण्यकर्म की कथा ।
भगवान श्रीकृष्ण और श्वपच भक्त वाल्मीकि
एक बार राजा युधिष्ठिर ने यज्ञ किया जिसमें चारों दिशाओं से ऋषि-मुनि पधारे । भगवान श्रीकृष्ण ने एक शंख स्थापित करते हुए कहा कि यज्ञ के विधिवत् पूर्ण हो जाने पर यह शंख बिना बजाये ही बजेगा । यदि नहीं बजे तो समझिये कि यज्ञ में अभी कोई त्रुटि है और यज्ञ पूरा नहीं हुआ है । पूर्णाहुति, तर्पण, ब्राह्मणभोज, दान-दक्षिणा—सभी कार्य संपन्न हो गए, परंतु शंख नहीं बजा । सभी लोग चिंतित होकर शंख न बजने का कारण जानने के लिए भगवान श्रीकृष्ण के पास आए ।
भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण की संत पीपाजी पर कृपा
परमात्मा प्रेम चाहते हैं । प्रेम में पागल बने बिना वे मिल नहीं सकते । भक्त भगवान को पाने के लिए जितना व्याकुल होता है, भगवान भी उन्हें अपनी शरण में लेने के लिए उससे कम व्याकुल नहीं होते हैं । जिन भक्तों का जीवन प्रभुमय हो, रोम-रोम में भगवान का प्रेम बहता हो, वे भक्त प्रेममय प्रभु की करुणामयी और कृपामयी गोद में बैठने और उनका साक्षात्कार करने के अधिकारी बनते हैं ।
नित्य-नियम के पालन से भी परमात्मा की प्राप्ति संभव
भगवान ने जोगा को उठाकर अपने हृदय से लगा लिया । भगवान का स्पर्श होते ही जोगा की समस्त पीड़ा, सारे घाव हवा हो गए । नित्य-नियम का इतना कठोर पालन करने वाले जोगा को भगवान श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण ने सदा के लिए अपना बना लिया और वे उनमें एकाकार हो गए ।
सच्चा ज्ञान : अष्टावक्र और राजा जनक संवाद
राजा जनक को ‘ज्ञान’ देकर अष्टावक्रजी चले गए और उस ज्ञान को धारण कर राजा जनक ‘देही’ से ‘विदेही’ बन गए । राजा जनक और ऋषि अष्टावक्र के बीच का संवाद ‘अष्टावक्र गीता’ के नाम से जाना जाता है ।
जीवन में एक नियम लेना जरुरी है
जिस प्रकार नदी का लक्ष्य होता है समुद्र; उसी तरह मानव जीवन का लक्ष्य है भगवान । जीवन में सब कुछ प्राप्त कर लेने पर भी मनुष्य अपने अंदर एक अनजाने अभाव का अनुभव करता है । वह ‘कुछ’ खोज रहा है, ‘कुछ’ चाह रहा है, वह ‘किसी’ को देखना-मिलना चाहता है; परन्तु जानता नहीं कि वह ‘कोई’ कौन है, कहां है, कैसा है ? भगवान की प्राप्ति ही संसार की सबसे बड़ी उपलब्धि है । इसके लिए जीवन में कोई एक नियम लेना जरुरी है । एक रोचक कथा ।