भाव का भूखा हूँ मैं और भाव ही एक सार है।
भाव से मुझको भजे तो भव से बेड़ा पार है।।
भाव बिन सब कुछ भी दे डालो तो मैं लेता नहीं।
भाव से एक फूल भी दे तो मुझे स्वीकार है।।
भाव जिस जन में नहीं उसकी मुझे चिन्ता नहीं।
भाव पूर्ण टेर ही करती मुझे लाचार है।।
दुखियों की पीड़ा को दूर करना ही भगवान की वास्तविक सेवा
प्रत्येक जीव में भगवान बस रहे हैं, ऐसा मानकर सभी प्राणियों को सम्मान देना और सुख पहुंचाना चाहिए। जो दूसरों को दु:ख देकर भगवान की पूजा करता है, भगवान उस पूजा को स्वीकार नहीं करते हैं। भगवान की असली सेवा-पूजा वही व्यक्ति करता है जो दूसरों के दु:ख से दु:खी और दूसरों के सुख से सुखी होता है—‘पर दुख दुख सुख सुख देखे पर।’ (मानस ७।३८।१)
केवल अपने सुख के लिए जो वस्तुओं का संग्रह करता है उसे सदैव सुख की कमी रहती है। जो त्याग करके दूसरों को सुखी करता है उसको कभी सुख की कमी रहती ही नहीं है; क्योंकि भगवान भी अपनी पूरी शक्ति लगाकर उसको सुखी बनाते हैं।
भगवान का पेट कब भरता है ?
तीनि लोक नवखंड में सदा होत जेवनार।
कै सबरी कै बिदुर घर तृप्त हुए दुइ बार।।
अर्थात्—यद्यपि संसार में सदैव ही भगवान के निमित्त भंडारे, ब्रह्मभोज आदि चलते रहते हैं परन्तु भगवान केवल दो बार ही शबरी और विदुरजी के घर कंद-मूल खाकर पूर्ण तृप्त हुए थे।
प्राचीनकाल में एक परम शिवभक्त राजा था। एक दिन उसके मन में इच्छा हुई कि सोमवार के दिन अपने आराध्य भगवान शिव का हौद (वह भाग जहां जलहरी सहित पिण्डी स्थित होती है) दूध से लबालब भर दिया जाए। जलहरी का हौद काफी चौड़ा और गहरा था। राजा की आज्ञा से पूरे नगर में डुग्गी पिटवा दी गयी कि—
‘सोमवार के दिन सारे ग्वाले शहर का पूरा दूध लेकर शंकरजी के मन्दिर आ जाएं, भगवान का हौद भरना है; जो इसका उल्लंघन करेगा, वह कठोर दण्ड का भागी होगा।’
भाव बिन सब कुछ भी दे डालो तो मैं लेता नहीं
राजा की आज्ञा सुनकर सारे ग्वाले बहुत परेशान हुए। किसी ने भी अपने बच्चों को दूध नहीं पिलाया और न ही गाय के बछड़ों को दूध पीने दिया। दुधमुंहे बच्चे भूख से व्याकुल होने लगे। सभी ग्वाले सारा दूध इकट्ठा कर मन्दिर पहुंचे और भगवान शंकर के हौद में दूध छोड़ दिया। किन्तु आश्चर्य! इतने दूध से भी हौद पूरा न भर सका। यह देखकर राजा बड़ी चिन्ता में पड़ गया।
भाव से एक फूल भी दे तो मुझे स्वीकार है
तभी एक बुढ़िया एक लुटिया भर दूध लेकर आयी और बड़े भक्तिभाव से भगवान पर दूध चढ़ाते हुए बोली—‘शहर भर के दूध के आगे मेरे लुटिया भर दूध की क्या बिसात! फिर भी भगवन्, मुझ बुढ़िया की श्रद्धा भरी ये दो बूंदें स्वीकार करो।’
जैसे ही बुढ़िया दूध चढ़ाकर मन्दिर से निकली, भगवान का हौद एकाएक दूध से भर गया। वहां उपस्थित सभी लोग आश्चर्य में पड़ गए। राजा के पास खबर पहुंची तो उसके भी आश्चर्य का ठिकाना न रहा।
अगले सोमवार को राजा ने फिर भगवान शिव का हौद दूध से भरने की आज्ञा दी। पूरे नगर का दूध भगवान शंकर के हौद में छोड़ा गया; परन्तु फिर से हौद खाली रह गया। पहले की तरह बुढ़िया आई और उसने अपनी लुटिया का दूध हौद में छोड़ा और हौद भर गया। राजकर्मचारियों ने जाकर राजा को सारा वृतान्त सुनाया। राजा के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उसने स्वयं वहां उपस्थित रहकर इस घटना के रहस्य का पता लगाने का निश्चय किया।
तीसरे सोमवार को राजा की उपस्थिति में नगर भर का दूध भगवान के हौद में डाला गया, पर हौद खाली रहा। इसी बीच वह बुढ़िया आयी और उसके लुटिया भर दूध चढ़ाते ही हौद दूध से भर गया। पूजा करके बुढ़िया अपने घर को चल दी। राजा उसका पीछा करने लगा। कुछ दूर जाने पर राजा ने बुढ़िया का हाथ पकड़ लिया। बुढ़िया भय से थर-थर कांपने लगीं। राजा ने उसे अभय देते हुए कहा—‘माई! मेरी एक जिज्ञासा शान्त करो। तुम्हारे पास ऐसा कौन-सा जादू-टोना या मन्त्र है जिससे तुम्हारे लुटिया भर दूध चढ़ाते ही शंकरजी का हौद एकाएक भर जाता है।’
भाव पूर्ण टेर ही करती मुझे लाचार है
गीता (१२।४) में कहा गया है—‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता:’ जिन्हें सबके हित की चिन्ता रहती है, उन्हें भगवान प्राप्त हो जाते हैं।
बुढ़िया ने कहा—‘मैं जादू-टोना, मन्त्र-तन्त्र कुछ भी नहीं जानती, न ही करती हूँ। घर के बाल-बच्चों, ग्वालबालों सभी को दूध पिलाकर तृप्त कर बचे दूध में से एक लुटिया दूध लेकर आती हूँ, भगवान को चढ़ाते ही वे प्रसन्न हो जाते हैं। भाव से उन्हें अर्पण करते ही वे उसे ग्रहण करते हैं और हौद भर जाता है। किन्तु तुम दण्ड का भय दिखाकर जबरन नगर के सारे बालबच्चों, बूढ़ों व ग्वालबालों का पेट काटकर उन्हें भूख से तड़पता छोड़कर सारा दूध अपने कब्जे में करते हो और फिर उसे भगवान को चढ़ाते हो तो उनकी आह से भगवान उसे ग्रहण नहीं करते और उतने सारे दूध से भी भगवान का पेट नहीं भरता और हौद खाली रह जाता है।’
यजुर्वेद (१।११) में कहा गया है—‘हे मनुष्य! तुम्हें प्राणियों की सेवा के लिए पैदा किया गया है, दु:ख देने के लिए नहीं।’
राजा को अपनी भूल समझ में आ गई और आगे से उसने किसी को भी कष्ट पहुंचाने वाली हरकतें न करने की कसम खाली।
प्रजासुखे सुखी राजा तदु:खे यश्च दु:खित:।
स कीर्तियुक्तो लोकेऽस्मिन् प्रेत्य स्वर्गे महीयते।। (विष्णुधर्मशास्त्र अध्याय ३)
अर्थात्—जो राजा प्रजा के सुख से सुखी और प्रजा के दु:ख से दु:खी होता है, प्रजा का अच्छे से पालन-पोषण व रक्षण करता है, उसी को लोक में कीर्ति प्राप्त होती है। प्रजा का दु:ख ही राजा के लिए सबसे बड़ा दु:ख होता है।
पूजनकर्म करते समय रखें इस बात का ध्यान
‘मेरे पास जो कुछ है, वह सब उस परमात्मा का ही है, मुझे तो केवल निमित्त बनकर उनकी दी हुई शक्ति से उनका पूजन करना है’—इस भाव से जो कुछ किया जाए वह सब-का-सब परमात्मा का पूजन हो जाता है। इसके विपरीत मनुष्य जिन वस्तुओं को अपना मानकर भगवान का पूजन करता है, वे (अपवित्र भावना के कारण) पूजन से वंचित रह जाती हैं।’ (गीता १८।४६)
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्तिद् दु:खभाग्भवेत्।।
सब सुखी हो जाएं, सबके जीवन में आनन्द-मंगल हो, कभी किसी को कोई कष्ट न हो—जब इस तरह का भाव हो, वही मनुष्य कहलाने का हकदार है।
यही पशु प्रवृत्ति है कि आप ही आप चरे।
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।। (राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त)