Bhagwan Shiv Lord Shiva Rudra Roop
Bhagwan Shiv Lord Shiva Rudra Roop

भगवान शिव नृत्य-विज्ञान के प्रवर्तक माने जाते हैं । ऐसा माना जाता है कि प्रदोष काल में भगवान शिव कैलाश पर्वत के रजत भवन में डमरु बजाते हुए अत्यन्त आनन्दमग्न होकर जगत को आह्लादित करने के लिए नृत्य करते हैं । सभी देवता इस समय भगवान शंकर की पूजा व स्तुति के लिए कैलाश शिखर पर पधारते हैं । सरस्वतीजी वीणा बजाकर, इन्द्र वंशी धारणकर, ब्रह्मा ताल देकर, महालक्ष्मीजी गाना गाकर, भगवान विष्णु मृदंग बजाकर भगवान शिव की सेवा करते हैं । यक्ष, नाग, गंधर्व, सिद्ध, विद्याधर व अप्सराएं भी प्रदोष काल में भगवान शिव की स्तुति में लीन हो जाते हैं ।

भगवान शिव सबका कल्याण करने वाले हैं, उन्होंने ‘नटराज’ स्वरूप (सुनर्तक नटावतार) क्यों ग्रहण किया ? इस सम्बन्ध में बहुत-सी कथाएं प्रचलित हैं—

शिवपुराण की कथा

शिवमहापुराण के अनुसार पार्वतीजी के कठिन तप से प्रसन्न होकर शिवजी उनके भाव की परीक्षा के लिए वहां गए और उनसे वर मांगने को कहा । पार्वतीजी ने कहा—‘आप देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिए मेरा पाणिग्रहण करें । आप भिक्षुक बन कर मेरे पिता के पास जाइए और अपना उत्तम यश प्रकट करते हुए मुझे उनसे मांगें ।’

पार्वतीजी के इस प्रकार कहने पर भगवान शिव ने कहा—‘ऐसा ही हो ।’

इसके बाद पार्वतीजी तप समाप्त करके अपनी सखियों के साथ पिता के घर चली गयीं और भगवान शिव कैलास चले गए ।

एक दिन हिमालय-पत्नी मेना अपनी कन्या पार्वती के साथ महल के आंगन में बैठी हुई थीं और राजा हिमालय गंगास्नान को गए थे, तभी भगवान शिव रक्त-वस्त्र धारण कर बायें हाथ में श्रृंग, दायें हाथ में डमरु और पीठ पर कन्था धारण करके मेना के आंगन में आए और मनोहर गान करते हुए नृत्य करने लगे । उन्हें नृत्य करते देखकर नगर के सभी लोग वहां एकत्रित हो गए । 

उनके नृत्य से प्रसन्न होकर मेना ने उन्हें रत्नों से भरा स्वर्णपात्र दिया परन्तु नर्तकरूपी शिव ने उसे लेने से मना कर दिया और पार्वतीजी को भिक्षा के रूप में मांगा । 

यह सुनकर मेना विस्मित हुईं और क्रोधित होकर भगवान शिव को महल से बाहर जाने के लिए कहने लगीं । उसी समय पर्वतराज हिमालय वहां आ गए और मेना से सारी बात जानकर उन्होंने भी नर्तक बने शिवजी को महल से बाहर जाने के लिए कहा ।

तभी भिक्षुक बने शिव ने पर्वतराज हिमालय को अपना प्रभाव दिखलाया । उन्हें वह नर्तक कभी विष्णुरूपधारी, फिर ब्रह्मारूप और थोड़ी देर बाद सूर्यरूप धारण किए दिखाई दिया; फिर वह परम तेजस्वी रुद्ररूप धारण कर पार्वतीजी के साथ मनोहर परिहास करते हुए दिखाई दिया ।

यह देखकर पर्वतराज हिमालय और मेना आश्चर्यचकित हो गए । भिक्षुक ने उनसे पार्वतीजी को ही भिक्षा में मांगा और अन्तर्ध्यान हो गए ।

तब राजा हिमालय और मेना को बोध हुआ कि ‘सर्वव्यापी शिव हमको ठग कर कैलास चले गए हैं । हमें अपनी कन्या उन्हें प्रदान कर देनी चाहिए ।’

इस प्रकार पार्वतीजी के अनुरोध को पूरा करने के लिए भगवान शिव का नर्तक नटराज अवतार हुआ ।

दक्षिण भारत में प्रचलित कथा

दक्षिण भारत की एक प्रसिद्ध कथा के अनुसार तारगम नामक एक निर्जन स्थान में कुछ अभिमानी ऋषि निवास करते थे । वे वहां रहने वाले लोगों को अपने स्वार्थ-सिद्धि के लिए परेशान किया करते थे । ऋषियों का अभिमान चूर करने के लिए वहां के लोगों ने भगवान शिव की आराधना की । 

इससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ऋषियों के पास गए, परन्तु अभिमानी ऋषियों ने भगवान शिव सम्मान नहीं किया । उलटे क्रोधावेश में आकर वाराह को उन पर आक्रमण करने का आदेश दे दिया । वह वाराह भयानक गुर्राहट करता हुआ भगवान शिव पर टूट पड़; परन्तु भगवान शिव ने एक अंगुलीमात्र से उसकी खाल उधेड़कर उसे वस्त्र की तरह धारण कर लिया । यह देखकर ऋषिगण आगबबूला हो उठे और एक भयंकर विषधर नाग को भगवान शिव पर फेंका । जैसे ही वह नाग उनके पास पहुंचा, शिवजी ने उसे अपने गले का कंठहार बना लिया । क्रोध और अभिमान में पागल हुए ऋषियों ने अपनी मन्त्रशक्ति से वहां एक राक्षस प्रकट किया । वह राक्षस भीषण गर्जना करता हुआ भगवान शंकर की ओर दौड़ा, किन्तु रुद्ररूप भगवान शिव ने उसे पकड़कर अपने पैरों तले रौंद डाला और उसके शव पर खड़े होकर नृत्य करने लगे । 

इस प्रकार भगवान शिव का ‘नटराज’ स्वरूप प्रकट हुआ ।

भगवान नटराज का स्वरूप

नटराज शिव जब नृत्य-भूमि पर उतरते हैं तब चतुर्भुज नटराज के एक दायें हाथ में रजोगुण का प्रतीक डमरू है, जो समस्त जीव-जगत की सृष्टि करता है और दूसरा दायां हाथ अभयमुद्रा में रहता है । उनके एक बायें हाथ में तमोगुण की प्रतीक अग्नि है, जिससे वे मानवीय आत्मा के बंधनों का संहार करते हैं । और दूसरा बायां हाथ संकेत मुद्रा में कुछ झुका हुआ रहता है । उनका एक चरण भूमि पर पेट के बल लेटे हुए पुरुष की पीठ पर रहता है है जिससे वे माया, मोह और अविद्या को दबाये रहते हैं और दूसरे उठे हुए पैर से संकटों से त्रस्त प्राणियों को मुक्ति देते हैं । आकाश उनका शरीर है । दिशाएं उनकी भुजाएं हैं और भुजाओं पर लिपटा हुआ सर्प काल का प्रतीक है । सूर्य, चन्द्र और अग्नि उनके तीनों नेत्र हैं । उनके तृतीय नेत्र के खुलने से ही काम भस्म हो गया था । नटराज शिव के सर्वांग में भस्म का आलेपन है । वे बायें कान में पुरुष के कर्णाभूषण और दायें कान में स्त्री के कर्णाभूषण पहनते हैं । नटराज की कुछ प्रतिमाएं त्रिशूलधारी हैं । त्रिशूल आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक दु:खों का सूचक है । 

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