परमरम्य-कैलासविहारी वृषभध्वज जय।
कृत्तिवास जय नीलकण्ठ जय जय मृत्युंजय।।
शुद्ध सच्चिदानन्द सदाशिव शक्तिनाथ जय।
जय भैरव, दशकण्ठवरद जय जय तेजोमय।। (विनायकराव भट्ट)

हे देवाधिदेव, शम्भो, विभो, सर्वेश, श्रीद, वामदेव, शंकर, काशीपति, पशुपति, गिरिजापति, कामारि, त्रिपुरारि, विश्वनाथ, महेश्वर, व्योमकेश (आकाश ही जिनके केश हैं), सर्वज्ञ, मृत्युंजय, मृडानीश, कृत्तिवास, चन्द्रचूड़, पंचवक्त्र, नीललोहित, धूर्जटि, कपर्दी, नीलकण्ठ, त्रिशूलपाणि, चन्द्रधर, भुजंगाजिनभूषण (नागराज को आभूषणरूप में धारण करने वाले), भस्माधार, चितापति, जटाम्बुभृत् (जटाओं में जल धारण करने वाले), स्थाणु, वृषभध्वज, नन्दीश्वर, कालीपति, प्रमथाधिप (प्रमथगणों के स्वामी), भूतभावन, कपाली, अन्धकरिपु, त्र्यम्बक, नटराज, पिनाकपाणि, त्रिलोचन, महीधर, संसारवैद्य (संसाररूपी रोग के चिकित्सक), करुणामय, वृषाकपे, दक्षयज्ञविध्वंसी, वेदान्तवैद्य, भगनेत्रहारी, व्यालप्रिय (सर्पों को अतिप्रिय), स्तुतिप्रिय, मोक्ष के अधिपति, समस्त विद्याओं व सम्पत्तियों के स्वामी, प्रणतजनों की रक्षा का भार धारण करने वाले, जगद्गुरु, परमात्मा, जगत् के आदिकारण, निराकार, प्रणव द्वारा जानने योग्य–आदि नामों से जाने वाले वरद शिव! कहां तो अविद्या और अल्पबुद्धि से युक्त मैं और कहां प्रकृति के गुणों की सीमा से परे गुणातीत, गुणाधार, गुणबीज, गुणात्मक, गुणीश, गुणियों के आदिकारण, समस्त गुणवानों के गुरु आप जगदीश्वर। संसार में ऐसा कोई तत्त्व (वस्तु) नहीं जो स्वयं साक्षात् आप न हों। ब्रह्मदेव की वाणी भी आपके गुणों को सर्वथा प्रकाशित करने में असमर्थ है, तब मेरा आपके नाम-गुण को प्रकाशित करने का यह प्रयास सर्वथा क्षमा-योग्य है। आपके वरद हस्त का अवलम्बन पाकर ही मूढ़मति मानव आपके बारे में कुछ लिखने का प्रयास कर सकता है।

यह सम्पूर्ण संसार भगवान शिव और उनकी शक्ति शिवा का ही लीला विलास है, इसलिए वे लीलानट भी कहलाते हैं। उनके अनन्त नाम हैं, अनन्त रूप हैं, अनन्त गुण हैं और अनन्त आनन्ददायिनी लीलाएं हैं। यहां उनके कुछ नामों का ही उल्लेख किया जा रहा है–

शिव, शम्भु शंकर और महादेव

‘शि’ का अर्थ है मंगल और ‘व’ कहते हैं दाता को, इसलिए जो मंगलदाता हैं वही शिव हैं। शिव, शम्भु व शंकर–ये तीन उनके मुख्य नाम हैं और तीनों का अर्थ है–कल्याण की जन्मभूमि, सम्पूर्ण रूप से कल्याणमय, मंगलमय और परम शान्तमय। ‘कल्याण’ शब्द का अर्थ है मुक्ति। अत: जो मनुष्य को मुक्ति प्रदान करें वह ‘शिव’ हैं। ‘शिव’ शब्द का एक अन्य अर्थ है कि जिसको सब चाहते हैं। सब चाहते हैं अखण्ड आनन्द को। अत: ‘शिव’ शब्द का अर्थ आनन्द हुआ। जहां आनन्द है वहीं परम शान्ति है अत: इस आनन्ददाता परम कल्याणरूप को ही ‘शिव’ कहते हैं।

ब्रह्माजी गौतम ऋषि से कहते हैं–‘शिव’ नाम रूपी मणि जिसके कण्ठ में सदा विराजमान रहती है, वह नीलकण्ठ का ही स्वरूप बन जाता है। वैसे तो शिवजी के सभी नाम मोक्षदायक हैं, किन्तु उन सबमें ‘शिव’ नाम सर्वश्रेष्ठ है, उसका माहात्म्य गायत्री के समान है।

‘शं’ आनन्द को कहते हैं और ‘कर’ से करनेवाला। अत: जो आनन्द करता है वही ‘शंकर’ है। ब्रह्मादि देवताओं व मूल प्रकृति द्वारा पूजित होने से ‘महादेव’ कहे जाते हैं। संसार में स्थित समस्त आत्माओं के ईश्वर होने से ‘महेश्वर’ कहलाते हैं। ब्रह्मवैवर्तपुराण में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं–‘महादेव, महादेव’ इस प्रकार की जो रट लगाता है, उसके पीछे-पीछे मैं नाम-श्रवण के लोभ से संतुष्ट हुआ घूमता हूँ।

कृत्तिवास

कृत्तिवास का अर्थ है गजचर्म (हाथी की खाल) का वस्त्र धारण करने वाले। एक बार भगवान शिव पार्वतीजी के साथ कैलास पर बैठे थे। तभी वहां महिषासुर का पुत्र गजासुर ब्रह्मा के वरदान से निर्भीक होकर शिव के गणों को त्रास देता हुआ भगवान शिव के समीप चला आया। उसे ब्रह्माजी का वरदान था कि कामदेव के वश में होने वाले किसी से भी उसकी मृत्यु नहीं हो सकेगी। किंतु शिवजी तो कामदेव के दर्प का नाश करने वाले ‘कन्दर्पदलन’ हैं अत: उन्होंने गजासुर को त्रिशूल पर टांगकर आकाश में लटका दिया। तब उसने वहीं से भगवान शिव की स्तुति की। शिवजी के प्रसन्न होने पर गजासुर ने उनसे प्रार्थना की–’हे दिगम्बर! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा करके मेरे शरीर के चर्म से अपना वस्त्र बना लें। यह चर्म हमेशा कोमल बना रहे, कभी मलीन न हो और इससे उत्तम गन्ध निकलती रहे। इसे धारण कर अाप ‘कृत्तिवास’ बन जाएं।’ शिवजी ने प्रसन्न होकर वैसा ही किया। गजासुर का चर्म स्वत: ही उसके शरीर से पृथक् हो गया। उसका शरीर लुप्त होकर शिवलिंग बन गया जो ‘कृतिवासेश्वर’ के नाम से जाना जाता है।

मृत्युंजय, महाकाल

‘मृत्युंजयो मृत्युमृत्यु: कालकालो यमान्तक:।’ (हिमालयकृतं शिवस्त्रोतम्)

अर्थात्–मृत्युंजय होने के कारण मृत्यु की भी मृत्यु, काल के भी काल, तथा यम के भी यम हैं।

भगवान शिव के मृत्युंजय नाम की सार्थकता यही है कि जिस वस्तु से जगत् की मृत्यु होती है, उसे वह जय कर लेते हैं, तथा उसे भी प्रिय मानकर ग्रहण करते हैं। कठोपनिषद् में कहा गया है–’समस्त विश्व प्रपंच जिसका ओदन (भात) है, मृत्यु जिसका उपसेचन (दूध, दही, दाल या कढ़ी) है, उसे कौन, कैसे, कहां जाने? जैसे प्राणी कढ़ी-भात मिलाकर खा लेता है, उसी तरह विश्व संहारक काल और समस्त प्रपंच को मिलाकर खाने वाला परमात्मा मृत्यु का भी मृत्यु है, अत: महामृत्युंजय भी वही है, काल का भी काल है, अत: कालकाल या महाकालेश्वर है। उसी के भय से सूर्य, चन्द्र, अग्नि, वायु, इन्द्र नियम से अपने-अपने काम में लगे हैं। उसी के भय से मृत्यु भी दौड़ रही है।’

markanday_shivपद्मपुराण की एक कथानुसार मुनि मृकण्डु ने अपनी पत्नी के साथ घोर तप करके भगवान शिव को प्रसन्न किया और उन्हीं के वरदान से मार्कण्डेय को पुत्र रूप में पाया। परन्तु भगवान शंकर ने उन्हें सोलह वर्ष की ही आयु दी। मार्कण्डेय का सोलहवां वर्ष आरम्भ होने पर पिता चिंतित रहने लगे। पिता को शोकमग्न देखकर मार्कण्डेय ने इसका कारण पूछा। सत्य जानने पर मार्कण्डेय ने कहा–’पिताजी! आप शोक न करें। मैं भगवान शंकर को प्रसन्न करके ऐसा प्रयत्न करुंगा कि मेरी मृत्यु ही न हो।’ मार्कण्डेयजी ने समुद्र तट पर शिवलिंग की स्थापना करके आराधना शुरु कर दी। समय पर ‘काल’ आ पहुंचा। मार्कण्डेयजी ने काल से कहा–’मैं शिवजी का मृत्युंजय-स्त्रोत से स्तवन कर रहा हूं, तब तक तुम ठहर जाओ।’ काल ने क्रोध में भरकर ज्योंही मार्कण्डेयजी को ग्रसना चाहा, भगवान शंकर शिवलिंग ले प्रकट हो गए। हुंकार भरकर मेघ के समान गर्जना करते हुए उन्होंने काल की छाती में लात मारी। मृत्युदेवता शिवजी के चरण प्रहार से दूर जा गिरे। तब मार्कण्डेयजी ने शिवजी की जो स्तुति की उसके कुछ अंश इस प्रकार हैं–

रुद्रं पशुपतिं स्थाणुं नीलकण्ठमुमापतिम्।
नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्यु: करिष्यति।।
कालकण्ठं कलामूर्तिं कालाग्निं कालनाशनम्।
नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्यु: करिष्यति।।

अर्थात्–जो दु:ख को दूर करने के कारण रुद्र कहलाते हैं, जीवरूपी पशुओं का पालन से पशुपति, स्थिर होने से स्थाणु, गले में नीला चिह्न धारण करने से नीलकण्ठ और भगवती उमा के स्वामी होने से उमापति नाम धारण करते हैं, उन भगवान शिव को मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मृत्यु मेरा क्या कर लेगी? जिनके गले में काला दाग है, जो कलामूर्ति, कालाग्निस्वरूप और काल के नाशक हैं, उन भगवान शिव को मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मृत्यु मेरा क्या कर लेगी?

भगवान शंकर ने यमराज से कहा–’मैंने ऋषि को अभयदान दिया है, तुम इन्हें नहीं ले जा सकते। इस प्रकार शंकरजी की कृपा से मार्कण्डेयजी ने मृत्यु पर विजय प्राप्त की। नारायणोपनिषद् में मृत्यु को जीतने वाले शिवजी का प्रसिद्ध मृत्युंजय-मन्त्र बतलाया गया है–

त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।

अर्थात्–तीन नेत्रों वाले, सुगन्धयुक्त एवं पुष्टि के वर्धक शंकर का हम पूजन करते हैं, वे शंकर हमको दु:खों से ऐसे छुड़ायें जैसे खरबूजा पककर बन्धन से अपने-आप छूट जाता है, किन्तु वे शंकर हमें मोक्ष से न छुड़ायें।

अर्धनारीश्वर

चाम्पेयगौरार्धशरीरकायै कर्पूरगौरार्धशरीरकाय।
धम्मिल्लकायै च जटाधराय नम: शिवायै च नम: शिवाय।।

अर्थात्–आधे शरीर में चम्पापुष्पों-सी गोरी पार्वतीजी हैं और आधे शरीर में कर्पूर के समान गोरे भगवान शंकरजी हैं। भगवान शंकर जटा धारण किए हैं और पार्वतीजी के सुन्दर केश हैं। ऐसी भगवती पार्वती और भगवान शंकर को प्रणाम है।

भगवान शिव का अर्धनारीश्वररूप जगत्पिता और दयामयी जगन्माता के आदि सम्बन्ध को दर्शाता है। सत्-चित् और आनन्द–ईश्वर के तीन रूप हैं। इनमें सत्स्वरूप उनका मातृस्वरूप है, चित्स्वरूप उनका पितृस्वरूप है और उनके आनन्दस्वरूप के दर्शन अर्धनारीश्वररूप में ही होते हैं। सृष्टि के समय परम पुरुष अपने ही वामांग से प्रकृति को निकालकर उसमें समस्त सृष्टि की उत्पत्ति करते हैं। स्त्री और पुरुष दोनों ही ईश्वर की प्रतिकृति हैं, स्त्री उनका सत्स्वरूप है और पुरुष चित्स्वरूप; परन्तु आनन्द के दर्शन तब होते हैं, जब ये दोनों पूर्णतया मिलकर एक हो जाते हैं। शिव गृहस्थों के ईश्वर और विवाहित दम्पत्तियों के उपास्य देव हैं क्योंकि शिव स्त्री और पुरुष की पूर्ण एकता की अभिव्यक्ति हैं।

पुराणों के अनुसार लोकपितामह ब्रह्माजी ने सनक-सनन्दन आदि मानसपुत्रों का इस इच्छा से सृजन किया कि वे सृष्टि को आगे बढ़ायें परन्तु उनकी प्रजा की वृद्धि में कोई रुचि नहीं थी। अत: ब्रह्माजी भगवान सदाशिव और उनकी परमा शक्ति का चिंतन करते हुए तप करने लगे। इस तप से प्रसन्न होकर भगवान सदाशिव अर्धनारीश्वर रूप में ब्रह्माजी के पास आए और प्रसन्न होकर अपने वामभाग से अपनी शक्ति रुद्राणी को प्रकट किया। वे ही भवानी, मृडानी, जगदम्बा व जगज्जननी हैं। ब्रह्माजी ने भगवती रुद्राणी की स्तुति करते हुए कहा–’हे देवि! आपके पहले नारी कुल का प्रादुर्भाव नहीं हुआ था, इसलिए आप ही सृष्टि की प्रथम नारीरूप, मातृरूप और शक्तिरूप हैं। आप अपने एक अंश से इस चराचर जगत् की वृद्धि हेतु मेरे पुत्र दक्ष की कन्या बन जायें।’

ब्रह्माजी की प्रार्थना पर देवी रुद्राणी ने अपनी भौंहों के मध्य भाग से अपने ही समान एक दिव्य नारी-शक्ति उत्पन्न की, जो भगवान शिव की आज्ञा से दक्ष प्रजापति की पुत्री ‘सती’ के नाम से जानी गयीं। देवी रुद्राणी पुन: महादेवजी के शरीर में प्रविष्ट हो गयीं। भगवान सदाशिव का अर्धनारीश्वर रूप यह संदेश देता है कि समस्त पुरुष भगवान सदाशिव के अंश और समस्त स्त्रियां भगवती शिवा की अंशभूता हैं, उन्हीं भगवान अर्धनारीश्वर से यह सम्पूर्ण चराचर जगत् व्याप्त है।

त्रिपुरारि

तारकासुर के वध के बाद उसके तीनों पुत्रों–तारकाक्ष, विद्युन्माली और कमलाक्ष–ने घोर तपस्या करके ब्रह्माजी से अजर-अमर होने का वरदान मांगा। ब्रह्माजी ने कहा–’जो पैदा हुआ है वह अवश्य मरता है। अत: कोई और वर मांग लो।’ तीनों असुरों ने कहा–हमारे पास रहने के लिए कोई स्थान नहीं है, अत: हमें तीन नगर दीजिए जिन्हें कोई भेद न सके। तारकाक्ष ने स्वर्णनिर्मित पुर की, कमलाक्ष ने चांदी के पुर की व विद्युन्माली ने लौहनिर्मित पुर की इच्छा प्रकट की और कहा कि शिवजी के अतिरिक्त और कोई हमें न मार सके। ब्रह्माजी तथास्तु कहकर चले गए। ये असुर स्वयं तो यज्ञ आदि करते थे किन्तु ऋषियों को यज्ञ, तप आदि नहीं करने देते थे। सभी देवताओं ने भगवान शंकर से प्रार्थना की, किन्तु शंकरजी ने कहा–’त्रिपुर के निवासी जबतक मेरी उपासना करते हैं, उनका संहार करना असम्भव है। भगवान विष्णु ही इसका कुछ समाधान निकाल सकते हैं।’

tripurariभगवान विष्णु ने एक नास्तिक मनुष्य प्रकट किया और उसे त्रिपुरवासियों को पथभ्रष्ट करने के लिए भेज दिया। उस नास्तिक मनुष्य ने त्रिपुर के ऊपर माया फैलाकर वहां के निवासियों को धर्मभ्रष्ट कर दिया। दैत्यों का अधर्म देखकर भगवान शिव ने देवताओं से कहा–’अब मैं उनका वध अवश्य करुंगा। मेरे लिए उपयुक्त रथ और अस्त्र प्रकट करो।’

विश्वकर्मा ने एक ऐसे दिव्य रथ की रचना की जिसमें पृथ्वी को रथ, सूर्य और चन्द्रमा को उस रथ के दोनों पहिए, ऋतुएं रथ की नेमि, संवत्सर उसके वेग और ब्रह्मा उस दिव्य रथ के सारथी बने। सुमेरु पर्वत को धनुष, श्रुति को त्रोटक, शेषनाग को प्रत्यंचा और आकाश को तूणीर बनाया गया। स्वयं कमलनयन भगवान विष्णु बाण बने। ब्रह्माण्ड की समस्त वस्तुओं का उस दिव्य रथ में उपयोग हुआ। महाभैरव रूपधारी भगवान शंकर भगवती उमा के साथ उस दिव्य रथ पर आरूढ़ हुए। भगवान शंकर ने गणेश पूजन कर देवताओं की सेना लेकर तीनों पुरियों पर आक्रमण कर दिया। तीनों पुर जल कर भस्म हो गए और भगवान शंकर ‘त्रिपुरारि’ कहलाए।

नृत्यप्रिय, नर्तक, नटराज

शिव आदि नट व परम नर्तक हैं, इसीलिए ‘नटराज’ कहलाते हैं। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ही उनकी नृत्यशाला है। संसार में अणु से लेकर बड़ी-से-बड़ी शक्ति में जो स्पन्दन दिखायी पड़ता है, वह उनके नृत्य एवं नाद का ही परिणाम है। उनका नृत्य जब प्रारम्भ होता है, तब उनके नृत्य-झंकार से सारा विश्व मुखर और गतिशील हो उठता है और जब नृत्य-विराम होता है, तब समस्त जगत शान्त और आत्मानन्द में निमग्न हो जाता है। नटराज का नृत्य ही सृष्टि, स्थिति, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह–इन पांच ईश्वरीय क्रियाओं का द्योतक है।

चतुर्भुज नटराज के एक हाथ में रजोगुण का प्रतीक डमरू है, जो समस्त जीव-जगत की सृष्टि करता है और उनके दूसरे हाथ में तमोगुण की प्रतीक अग्नि है, जिससे वे मानवीय आत्मा के बंधनों का संहार करते हैं। उनका एक चरण भूमि पर है जिससे वे माया, मोह और अविद्या को दबाये रहते हैं और दूसरे उठे हुए पैर से संकटों से त्रस्त प्राणियों को मुक्ति देते हैं। आकाश उनका शरीर है। दिशाएं उनकी भुजाएं हैं और भुजाओं पर लिपटा हुआ सर्प काल का प्रतीक है।  सूर्य, चन्द्र और अग्नि उनके तीनों नेत्र है। नटराज शिव के सर्वांग में भस्म का आलेपन है। शिवपुराण में कहा गया है कि भस्म से ही शंकरजी सृष्टि की रचना करते हैं। नटराज की कुछ प्रतिमाएं त्रिशूलधारी हैं। त्रिशूल त्रिभुवन के शूल, कष्ट, पीड़ा का नाशक है।

ऐसा कहा जाता है कि जगज्जननी गौरी को रत्नखचित सिंहासन पर बैठाकर भगवान शंकर प्रदोषकाल में डमरु बजाते हुए आनन्दातिरेक में मग्न होकर जगत को आह्लादित करने के लिए नृत्य करते हैं। उनके बद्ध केश, कपाल, सर्प, गंगा, चन्द्रमा और रत्नमाला–सब मिलकर विचित्र शोभा बिखेरते रहते हैं। नृत्य की समाप्ति पर नटराज द्वारा चौदह बार किए गए डमरू-निनाद से ही पाणिनी व्याकरण के प्रसिद्ध मूल चौदह सूत्र उत्पन्न हुए हैं।

नटराज शिव द्वारा प्रवर्तित नृत्य के अनेक प्रकार हैं, जिनमें ताण्डव सर्वप्रमुख है। पार्वतीजी के साथ विवाह के बाद शिव ने अपने शरीर में इसके दो भाग कर दिए हैं, एक है ‘ताण्डव’ और दूसरा है ‘लास्य’। ताण्डव शिव का नृत्य है–उद्धत और आकर्षक। लास्य पार्वती का नृत्य है–सुकुमार तथा मनोहर।

कहते हैं–शिव ने त्रिपुरदाह के बाद उल्लास-नृत्य किया था और इसका अनुकरण उनके शिष्य ‘तण्ड’ या ‘तण्डु’ मुनि ने किया।  तण्डु मुनि द्वारा प्रचारित यह नृत्य ‘ताण्डव’ नाम से प्रचलित हुआ। शिव के उल्लास-नृत्य में भाव नहीं थे। भगवान शिव इस उल्लास-नृत्य को करते समय अतिशय उन्मत्त हो उठे थे। पुष्पदन्ताचार्य ने ‘शिवमहिम्न:स्त्रोत’ में कहा है–उल्लास के अतिरेक में उनके उन्मुक्त नृत्य से नभमण्डल विक्षुब्ध हो गया था, दिशाएं चटपटा उठीं थीं, धरती धसकने लगी थी। शिवजी के तृतीय नेत्र से अग्नि के कण निकलने लगे। अत: लोकों के जल जाने के भय से वे अपनी दृष्टि को बंद करके निर्बाध नाचते ही गए। उन्हें संयत करना आवश्यक समझ भगवती पार्वती ने लास्य-नृत्य किया। ताण्डव-नृत्य भावशून्य था और लास्य-नृत्य रस और भाव से पूर्ण था। इसी ताण्डव एवं लास्य-नृत्य के समन्वय से सृष्टि का विस्तार हुआ।

शास्त्रों में उल्लेख है कि नटराज शिव द्वारा संध्याताण्डव के समय ब्रह्मा ताल देते हैं, सरस्वती वीणा बजाती हैं, इन्द्र बाँसुरी और विष्णु मृदंग बजाते हैं, लक्ष्मी गान करती है और सभी देवता नृत्य देखते हैं। इस नृत्य में मृदंग, भेरी, पटह, भाण्ड, डिंडिम, पणव, दर्दुर, गोमुख आदि वाद्यों का प्रयोग हुआ था।

भगवान शिव नृत्य करने से पूर्व जब अपने इष्टदेव को पुष्पांजलि समर्पित करते हैं तो वह पुष्पांजलि–इनसे बड़ा और कोई वन्दनीय नहीं है–यह सोचकर शिव के हाथों में लिपटे कंकणरूपी सर्पों की फुंफकार से बिखरकर भगवान शिव के चरणों का ही स्पर्श करती है।

संसार में पाप-ताप जब चरम सीमा पर पहुंच जाते है और जीव पीड़ा से हाहाकार करने लगता है, तब भगवान शंकर का नृत्य विवश होकर प्रलयंकारी रूप ग्रहण कर लेता है। परन्तु भगवान शंकर का यह नृत्य भी जगत् की रक्षा के लिए होता है।

दशकण्ठवरद

एक बार राक्षसराज दशानन कुबेर से छीने हुए पुष्पक विमान में बैठकर कैलास के ऊपर से जा रहा था। अचानक उसका विमान रुक गया। दशानन कैलास पर उतरा। वहां पर खड़े एक दुबले-पतले वानरमुख, त्रिशूलधारी पुरुष से उसने पूछा–यहां कौन रहता है? नन्दी ने उत्तर दिया–’देवाधिदेव महादेव।’ त्रिलोक-विजय के अभिमान में दशानन ने कहा–’क्या वे इतने शक्तिशाली हैं जो मेरे स्वागत के लिए भी नहीं आए? मैं उन्हें दण्ड दूंगा।’ ऐसा कहकर दशानन ने कैलास पर्वत को जड़ से उखाड़कर अपने कन्धे पर उठा लिया। पर्वत हिलने से सहमी पार्वतीजी को देखकर शिवजी ने अपने पैर के अंगूठे की नोंक से कैलास पर्वत को जरा-सा दबा दिया जिससे रावण पाताल में नीचे खिसकता चला गया और पीड़ा के मारे दीर्घकाल तक रुदन करते हुए शंकरजी की स्तुति करता रहा। दयावश पार्वतीजी ने शंकरजी से कहा–यह आपका भक्त है, इसे मुक्त कर दीजिए। भगवान शंकर ने अपने पैर का अंगूठा पर्वत से उठा लिया। दशानन ने कैलास पर्वत यथास्थान रख दिया और ताण्डव नृत्य करते हुए भगवान शिव की स्तुति करने लगा। ताण्डव नृत्य करते समय उसके पैरों के आघात से एक झील बन गई जो ‘राक्षस झील’ कहलाती है। इसके बाद वह कैलास पर यज्ञ करते हुए अपना एक-एक शीश काटकर चढ़ाने लगा। जैसे ही वह अपना अन्तिम शीश काटने को उद्यत हुआ, भगवान शंकर प्रसन्न होकर प्रकट हो गए और वरदानस्वरूप उसे शिव से ज्ञान, अजेयत्व और दसों शीश प्राप्त हो गए।

भगवान शंकर ने दशानन से कहा–‘तुम दीर्घकाल तक पर्वत के नीचे दबे रहने के कारण रोते रहे हो इसलिए भविष्य में तुम्हारा नाम रावण होगा।’

भूतपति, भूतनाथ या भूतेश्वर

‘भूत’ शब्द का अर्थ है पंचभूत अर्थात् पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। इसका दूसरा अर्थ है प्राणिसमूह अर्थात् समस्त सजीव सृष्टि। ‘भूतनाथ’ का अर्थ है कि भगवान शिव पंचभूत से लेकर चींटीपर्यन्त समस्त जीवों  चाहें वह लूले-लंगड़े हों अथवा सर्वसमर्थ–सभी के स्वामी हैं। जो भी प्राणी उनकी भक्ति करते हैं, वह उन्हें अपना लेते हैं।

पशुपति

अज्ञानावस्था में सभी पशु माने गए हैं। अत: ब्रह्मा से लेकर स्थावर-जंगमपर्यन्त जितने भी जीव हैं, सभी देवाधिदेव शूलपाणि शिव के पशु माने गए हैं। जीव मायापाश में बंधा रहता है और सुख-दु:खरूपी चारा खाता है। भगवान की लीलाओं का साधन जीव ही है। इसलिए जीव ‘पशु’ है और उसका पति (रक्षक) ‘ईश’ है, ब्रह्म है। भगवान शिव सबको ज्ञान देने वाले और अज्ञान से बचाने वाले हैं, इसलिए वे ‘पशुपति’ कहलाते हैं।

संसारवैद्य

नम: प्रसिद्धाय महौषधाय नमोऽस्तु ते व्याधिगणापहाय।
चराचरायाथ विचारदाय कुमारनाथाय नम: शिवाय।।

अर्थात्–आप सुप्रसिद्ध महौषधरूप हैं, आपको नमस्कार है। समस्त व्याधियों का विनाश करने वाले आपको नमस्कार है। आप चराचरस्वरूप, सबको विचार व निर्णय करने की शक्ति देने वाले हैं, कुमारनाथ नाम से प्रसिद्ध परमकल्याणरूप आपको नमस्कार है।

जिस प्रकार एक चिकित्सक विभिन्न औषधियों के द्वारा मनुष्यों के शारीरिक रोगों को दूर करता है उसी प्रकार भगवान शिव अपनी दयालुता से सांसारिक जीवों को भवरोग से छुड़ाते हैं। वेदों में ऐसा वर्णन है कि भगवान शिव अनेक प्रकार की अलौकिक व चमत्कृत औषधियों के ज्ञाता हैं। वे मनुष्यों के अतिरिक्त पशु-पक्षी और कीट-पतंगों के ही नहीं बल्कि स्थावर-जंगम सम्पूर्ण सृष्टि के प्राणियों की प्रत्येक व्याधि के ज्ञाता और उसे दूर करने वाले हैं। इसलिए उन्हें ‘संसारवैद्य’ भी कहते हैं।

रुद्र

भगवान शिव का एक नाम ‘रुद्र’ है। दु:ख और उसके समस्त कारणों के नाश करने से तथा संहार के समय क्रूर रूप धारण करने से शिव को ‘रुद्र’ कहते हैं। वेदों में उनके अनेक नामों में रुद्र नाम ही विशेष है। ‘रुद्र: परमेश्वर:, जगत्स्रष्टा रुद्र:’ आदि कहकर उन्हें परमात्मा माना है। शिवपुराण का आधे से अधिक भाग रुद्रसंहिता, शतरुद्रसंहिता और कोटिरुद्रसंहिता आदि नामों से भगवान रुद्र की ही महिमा का गान करता है। उपनिषद् तो एक स्वर से ही रुद्र को विश्वाधिपति तथा महेश्वर बताते हैं।

‘इन ब्रह्माण्डवर्ती भुवनों पर ब्रह्मारूप से शासन करता हुआ और उत्पन्न होने वाले प्रत्येक शरीर के मध्य में चेतनरूप से विराजमान तथा प्रलय के समय कोप में भरकर संहार करता हुआ एक अद्वितीय रुद्र ही अपनी अनन्तशक्ति उमा के साथ स्थित है, इससे पृथक् दूसरा कुछ भी नहीं।’ (श्वेताश्वतरोपनिषद् ४।१८)

भगवान रुद्र के अश्रुबिन्दुओं से उत्पन्न रुद्राक्ष सभी देवताओं को और रजत पितृगणों को अत्यन्त प्रिय है।

उपनिषदों में एकादश प्राणों को ‘रुद्र’ कहा गया है। परन्तु ये आध्यात्मिक रुद्र हैं। ये शरीर रूपी यन्त्र को चलाते रहते हैं। ये ठीक-ठीक चलें तो मनुष्य का सब शिव (कल्याण) है अन्यथा एक की भी गति बिगड़ी तो शरीर बेकार हो जाता है। जो इन एकादश प्राणों को संयमित आहार-विहार और योगाभ्यास द्वारा वश में रखता है, वही सुख पाता है। वे निकलने पर प्राणियों को रुलाते हैं, इसलिए ‘रुद्र’ कहे जाते हैं। अत: दस इन्द्रियां और मन ही एकादश रुद्र हैं।

पितामह

अयर्मा आदि पितरों के तथा इन्द्रादि देवों के पिता होने और ब्रह्मा के भी पूज्य होने से शिवजी ‘पितामह’ नाम से जाने जाते हैं।

मंगलमूर्ति महादेव अद्भुत, अक्षत, अविनाशी, अप्रमेय, अजन्मा, निर्मल, मायारहित, मंगल के निकेतन हैं। भगवान शिव के अनन्त नाम और उनकी महिमा कहां तक कही जाय? अनन्त का अंत कैसे जाना जाए? भगवान का नाम जीव के लिए परम अवलम्बन है, इससे बड़ा सहारा और कोई हो ही नहीं सकता। जिसने भगवन्नाम का आश्रय ले लिया वह माता की स्नेहमयी गोद की भांति भगवान की अनन्त गोद में जा बैठा। मनुष्य को संसार-सागर से पार उतारने के लिए शिव का नाम ही सुदृढ़ नौका है। ‘महाभारत’ में व्यासदेव ने कहा है–

नास्ति शर्वसमो देवो नास्ति शर्वसमा गति:।
नास्ति शर्वसमो दाने नास्ति शर्वसमो रणे।।

अर्थात्–शिवजी के समान संसार में कोई देवता नहीं। वे ही समस्त सांसारिक जीवों को सद्गति देते हैं। कल्याण और सुख देने में शिवजी से बढ़कर कोई दयालु नहीं। युद्ध करने में भी उनसे बढ़कर कोई पराक्रमी नहीं।

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