माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर ।। (कबीर)
अक्सर हम लोगों के मुख से यह सुनते हैं कि ‘भगवान हमारी सुनता ही नहीं’ या ‘मैं तो इतने सालों से पूजा-सेवा, मन्त्र-जप व व्रत आदि कर रहा हूँ; परन्तु मेरी साधना (पूजा-पाठ) सफल होती ही नहीं है ।’
सबसे पहले यह जानते हैं कि ‘साधना’ या उपासना’ कहते किसे हैं ?
साधना ‘कर’ और ‘देख’ का शास्त्र है
आम भाषा में किसी भी वस्तु की प्राप्ति के लिए जो क्रिया की जाती है, जो प्रयत्न या कर्म किया जाता है, उसे साधना कहते हैं । आध्यात्मिक अर्थ में भगवान के मार्ग में चलने के लिए जो भी अनुष्ठान किया जाता है, जो भी व्रत लिया जाता है या मन्त्र-जाप, ध्यान आदि किया जाता है, उसे ‘साधना’ या ‘पूजा-पाठ’ कहते हैं ।
साधना या पूजा-पाठ की शीघ्र सफलता के लिए करें ये उपाय
आजकल साधना के नाम पर लोग सिर्फ दिखावा ज्यादा कर, मांगों की लिस्ट भगवान के सामने रख देते हैं । यदि सही ढंग से शास्त्रों के अनुसार साधना की जाए तो सिद्धि निश्चित मिलती है । साधना या पूजा-पाठ की सफलता के लिए कुछ खास बातों का ध्यान रखना चाहिए—
▪️ आराध्य को पाने के लिए दीवानापन होना चाहिए—नदी का लक्ष्य है समुद्र और मानव-जीवन का लक्ष्य है भगवान । पहाड़ से जब झरना गिरता है और नदी बनकर बहता है तो वह किसी से नहीं पूछता कि समुद्र किधर है । जोश से मतवाली होकर वह दीवानी नदी कूदती-फांदती, छलांग भरती वन-पर्वत को लांघती हुई बस चल पड़ती है । क्यों ? किसलिए ? इसलिए कि वह अंत में अपने आपको समुद्र की गोद में सुला दे, लीन कर दे, मिटा दे । रास्ते में जो पत्थर उसका मार्ग रोके खड़े थे, उन्हें भी प्यार से गले लगाकर अपनी मस्ती में हजारों मील दूर जाकर अपने प्रियतम समुद्र से जा मिलती है ।
मनुष्य की आत्मा भी भाग्य के उतार-चढ़ाव, सुख-दु:ख और जीवन के ऐसे ही खट्टे-मीठे अनेक अनुभवों को पार करती हुई सत्, चित् आनन्द रूप उस परमात्मा में अपने को लीन कर देने के लिए व्याकुल है, बैचेन है । ईश्वर की प्राप्ति के लिए साधक में नदी की तरह का दीवानापन होना चाहिए । जब तक यह दीवानापन नहीं होगा कोई मन्त्र क्या करेगा ? और जब साधक में ऐसी मस्ती या दीवानापन होगा तो क्या मन्त्र और क्या किसी से पथ पूछना ? जिधर पांव ले जाएंगे वहीं प्रियतम प्यारा खड़ा मिलेगा । मुख से आराध्य का जो नाम निकलेगा वही मन्त्र होगा; बस शर्त यही है नाम लेते ही शरीर का रोम-रोम पुलक जाए और आंखों से अटूट जलधारा बह चले । मीरा ऐसी ही प्रेम-दीवानी थीं; इसलिए वे अपने गिरधर गोपाल में ही लीन हो गयीं ।
▪️ विश्वास—पूजा-पाठ की सफलता के लिए मनुष्य में ‘भगवान पर अटूट विश्वास’ व ‘अपने-आप में विश्वास का होना बहुत आवश्यक है । इसी बात को एक पौराणिक कथा द्वारा समझा जा सकता है—
एक बार देवर्षि नारद वीणा बजाते हुए भगवान के दर्शनों को जा रहे थे । रास्ते में उन्हें दो साधक मिले । देवर्षि को देखकर दोनों ने उनसे पूछा कि उन्हें भगवान की प्राप्ति कब होगी ? देवर्षि ने भगवान के पास जाकर इस बात की चर्चा की तो भगवान ने कहा कि एक साधक को तो दस वर्ष में दर्शन होंगे और दूसरे को उतने ही वर्ष लगेंगे, जितने उस इमली के पेड़ में पत्ते हैं, जिसके नीचे बैठा वह साधना कर रहा है । देवर्षि ने लौटकर दोनों साधकों को भगवान द्वारा कही गई बात बताई । जिस साधक को दस वर्ष में भगवान के दर्शन होने थे, वह बहुत निराश हुआ और साधना छोड़कर घर लौट गया ।
दूसरे साधक के पास जाकर देवर्षि ने डरते हुए उसे बताया कि ‘भाई ! अभी तो बहुत देर है । इस इमली के पेड़ में जितने पत्ते हैं, उतने वर्ष में तुम्हें श्रीहरि के दर्शन होंगे ।’ यह सुनकर उस साधक के आनन्द का पारावार नहीं रहा । वह आनन्द से नाचने लगा । ‘भगवान मिलेंगे न !’ यही सोचकर वह भगवान की कृपा में इतना डूब गया कि अपने-आप को भूल गया । उसकी साधना और तेज हो गयी और उसे शीघ्र ही भगवान मिल गए ।
साधक के मन में जब तक साधना के विषय में संदेह रहेगा, तब तक वह अपनी समस्त शक्तियों का उपयोग साधना में नहीं कर सकेगा ।
▪️ एकाग्रता—जब मनुष्य एकाग्रचित्त होकर अपनी साधना में लीन हो जाता है तो सिद्धि उसके पीछे-पीछे आकर जीवन में घुलमिल जाती हैं और उसे पता भी नहीं चलता ।
बेखुदी छा जाय ऐसी,
दिल से मिट जाए खुदी ।
उनके मिलने का तरीका
अपने खो जाने में है ।।
भक्त पुण्डलीक के पीछे स्वयं भगवान आकर खड़े हो गए । साधना में लगे पुण्डलीक ने नम्रता से कहा–’इस वक्त मैं मुड़कर भी नहीं देख सकता, सेवा में लगा हूँ । ‘जिधर देखता हूँ, उधर तू-ही-तू है ।’
▪️ आनन्द और प्रसन्नता—पूजा-उपासना की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि साधक के मन में उपासना करने के बाद स्फूर्ति, आनन्द और प्रसन्नता होनी चाहिए । ऐसा लगना चाहिए कि ‘वह सत्वगुण से उठकर आया है’ । यदि बात-बात में झल्लाहट हो, स्वभाव चिड़चिड़ा हो तो समझ लेना चाहिए कि साधना में मन ने सात्विकता ग्रहण नहीं की और वह परिश्रम बेकार हो गया ।
▪️ गुरुदीक्षा—साधना की सिद्धि गुरुदीक्षा से ही होती है । किसी भी देवता की साधना से पहले सद्गुरु से इनके मन्त्र, साधना और स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिए ।
▪️ संयमित आहार-विहार—गीता (६।१६) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं–‘अर्जुन ! योग (साधना) न तो बहुत भोजन करने वाले कर सकते हैं और न ही सदैव उपवास करके रहने वाले । वह बहुत सोने वालों के बस का नहीं और सदा जागते रहने वाले भी उसे अपनाने में असमर्थ हैं ।’
इसलिए साधना की सिद्धि के लिए मनुष्य को अपने जीवन को नियमित बनाना चाहिए । भोजन का त्याग किसी विशेष व्रत या बीमारी में ही करना चाहिए, साधना के लिए नहीं । आहार इतना और ऐसा ग्रहण करना चाहिए जो शरीर को पर्याप्त पोषण दे सके । ‘जैसा खायें अन्न वैसा ही हो मन’ वाली कहावत के अनुसार मनुष्य के मन पर उसके आहार का विशेष प्रभाव पड़ता है । मन की पवित्रता के लिए ‘सात्विक आहार’ ही ग्रहण करना चाहिए । वस्त्र और घूमने-फिरने आदि को न तो पूरी तरह छोड़ना है और व उनके संग्रह में ही व्यस्त रहना है । सोने और जागने में भी संयम होना चाहिए । रात भर जागरण करने से भी साधना नहीं हो सकती है ।
▪️ मन व इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखना ही ‘संयम’ कहलाता है । जैसे मश्क में एक छेद हो जाने पर सारा पानी बह जाता है, उसी प्रकार मनुष्य की दस इन्द्रियों में से किसी भी इन्द्रिय के भोगों में लगने पर मनुष्य की बुद्धि भी भोगों में बह जाती है और उसकी साधना, पूजा-पाठ निष्फल हो जाता है ।
▪️ गृहस्थ मनुष्य को ईमानदारी से कमाये हुए धन का ही पूजा में प्रयोग करना चाहिए ।
▪️ईश्वर की ओर चलने के लिए साधक के लिए यह आवश्यक है कि वह अहंकार से पीछा छुड़ावे । मैं, मेरा, तेरा-मेरा इन सब का साधना में कोई स्थान नहीं है । इसीलिए कहा गया है–
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाय ।
प्रेम गली अति सांकरी, तामें दो न समाय ।।
▪️साधना की सफलता के लिए साधक को सदैव कम, प्रिय और सत्य ही बोलना चाहिए । इसके अतिरिक्त नम्रता, मन-कर्म और वचन की पवित्रता, सत्य, अहिंसा सद् ग्रन्थों का पढ़ना, एकान्त सेवन, साधना को गुप्त रखना और ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण भी साधना की सफलता के लिए अत्यन्त आवश्यक हैं ।
▪️ साधक को साधुसंग और भक्त का संग जहां भी, जब भी मिले अवश्य करना चाहिए ।
▪️प्रह्लाद से भगवान ने जब कहा कि मनचाहा वरदान मांग लो तो उसने कहा कि ‘जो मुक्ति के लिए भक्ति करता है वह सौदागर है, मैं सौदागर नहीं हूँ । भक्ति तो मेरा स्वभाव है ।’
अंत में कबीर के शब्दों में कह सकते हैं–
ऊंचे पानी ना टिकै, नीचे ही ठहराय ।
नीचा होय सो भरि पिबै, ऊंचा प्यासा जाय ।।
सब तैं लघुताई भली, लघुता तें सब होय ।
जस दुतिया को चन्द्रमा, सीस नवै सब कोप ।।
विनम्रता और सरलता से ही भगवान मिलते हैं ।