कैसे शुरु हुई होली मनाने की परम्परा ?
होली का त्यौहार मनाने व होलिका दहन करने के सम्बन्ध में कई मत हैं–
▪️भविष्यपुराण की कथा के अनुसार प्राचीन काल में रघु नाम के शूरवीर राजा थे । उनके राज्य में ढोंढा नाम की राक्षसी ने भगवान शंकर को प्रसन्न कर वर प्राप्त कर लिया कि ‘देवता, दैत्य, मनुष्य उसे न मार सकें, किसी अस्त्र से, दिन में न रात्रि में उसका वध न हो ।’ भगवान शंकर ने वर देते समय यह भी कह दिया कि ‘उन्मत्त (मतवाले) बालकों से ढोंढा डरेगी ।’ वह राक्षसी बच्चों को पीड़ा देने लगी ।
राजा रघु ने वसिष्ठ ऋषि से ढोंढा से बचने का उपाय पूछा । वसिष्ठ ऋषि ने ढोंढा राक्षसी से पीछा छुड़ाने के उपाय बताते हुए कहा—फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को सभी लोगों को निडर रह कर नाचना, गाना व हंसना चाहिए, प्रसन्न रहना चाहिए । इस दिन सब लोगों को अभयदान देना चाहिए, जिसे सम्पूर्ण प्रजा उल्लासपूर्वक हँसे । होली के उत्सव में बच्चे लकड़ियों के बने हुए तलवार लेकर वीर सैनिकों की तरह दौड़ते हुए निकल पड़ें और आनन्द मनाएं । बच्चे गाँव के बाहर से सूखी लकड़ी, उपले, सूखी पत्तियों को एक स्थान पर अधिक-से-अधिक इकट्ठा करें फिर विधि-विधान से पूजन करें, उसमें अग्नि जलायें और खूब ताली बजाकर हंसें । जोर-जोर से बोलने व अग्नि जलाने से ढोंढा राक्षसी डर कर भाग जाती है और उसकी पीड़ा से मुक्ति मिल जाती है व सारे अनिष्ट दूर हो जाते हैं ।
राजा रघु ने पूरे राज्य में लोगों से इसी प्रकार उत्सव मनाने को कहा जिससे उस राक्षसी का विनाश हो गया । यही उत्सव कालांतर में होलिकोत्सव बन गया । बच्चों के हाथों में दी जाने वाली लकड़ी की तलवारों ने अब पिचकारी का रूप ले लिया है । उसी परम्परा से बच्चे पिचकारी लेकर हंसते-दौड़ते हुए आनन्द मनाते हैं ।
▪️एक मान्यता के अनुसार हिरण्यकशिपु की बहन होलिका वरदान के प्रभाव से नित्यप्रति अग्नि-स्नान करती थी पर जलती नहीं थी । हिरण्यकशिपु ने अपनी बहिन से प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि-स्नान करने को कहा । उसने सोचा ऐसा करने से प्रह्लाद जल जायेगा और होलिका बच जायेगी । किन्तु ईश्वर की कृपा से भक्त प्रह्लाद जीवित बच गये और होलिका जल गयी । तभी से इस त्यौहार को मनाने और होली जलाने की प्रथा चल पड़ी ।
▪️एक अन्य मान्यता के अनुसार भगवान शंकर ने अपनी क्रोधाग्नि से कामदेव को भस्म कर दिया था, तभी से इस त्यौहार का प्रचलन हुआ ।
कैसे करें होली का पूजन ?
माघ की पूर्णिमा पर होली का डांडा रोप दिया जाता है । इसके लिए नगर से बाहर वन में जाकर शाखा सहित वृक्ष लाते हैं और उसको गन्धादि से पूज कर पश्चिम दिशा में खड़ा कर देते हैं । इसी को ‘होली’, ‘होलीदंड’, ‘होली का दांडा’, ‘डांडा’ या ‘प्रहलाद’ कहते हैं । इस अवसर पर लकड़ियां तथा कंडों आदि का ढेर लगाकर होलिका पूजन किया जाता है ।
— यदि आपके घर में होली जलती हो तो घर में और यदि घर के बाहर जलाते हों तो बाहर जाकर होली की पूजा करें ।
पूजन सामग्री — पूजन के लिए एक थाल में गूलरी की माला, चौमुखा दीपक, जल का लोटा, पिसी हल्दी या रोली, बताशे, नारियल, फूल, गुलाल, गुड़ की ढेली, कच्चे सूत की कुकड़ी, आठ पूरी, हलवा या आटा, दक्षिणा, गेहूं, जौ, चना की बालियां, एक कच्चा पापड़ रख लें ।
— घर के पास जहां होली जलती हो वहां जाकर पहले ठण्डी होली का पूजन करें । गूलरी की माला होली पर चढ़ा दें । कच्चा सूत होली के चारों ओर लपेट कर बचा घर ले आवें ।
— थोड़ा जल डाल दें और दीपक जला दें ।
— पूरी, हलवा या आटा व दक्षिणा वहां ब्राह्मण को दे दें ।
— जब होली जले तब बालियां और पापड़ होली की ज्वाला में भून लें ।
— होली की तीन परिक्रमा करें व जल का अर्घ्य दें ।
— भुने हुए ‘होलों’ को घर आकर प्रसाद रूप में ग्रहण करें ।
— यदि घर में होली जलाते हों तो पहले साफ जगह पर ईंटों या मिट्टी से चौकोर वेदीनुमा बना लें और आटे का चौक पूर कर थोड़ा गुलाल छिड़क दें । उसमें प्रह्लाद के प्रतीक रूप एक डण्डा गाढ़ दें और चारों तरफ गूलरी की माला व उपले लगा दें । जब पूजन का समय हो तब मोहल्ले की होली में से थोड़ी सी अग्नि लाकर घर की होली जलाएं । अग्नि लगाते ही डण्डा को निकाल लें क्योंकि वह भक्त प्रह्लाद का रूप माना जाता है । सभी लोग होली का पूजन करें, परिक्रमा लगाएं जल छोड़कर अर्घ्य दें व बालियां और पापड़ होली की ज्वाला में भून लें ।
— होली पूजन के बाद पूजन की थाली से सभी लोग टीका लगाएं । बड़ों के पांव छूकर आशीर्वाद लें ।
— दूसरे दिन होली की भस्म को अपने मस्तक पर लगाने से सभी दोषों की शान्ति होती है ।
होलिका दहन करने से सारे अनिष्ट दूर हो जाते हैं । ऐसा माना जाता है कि फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा के दिन जो मनुष्य सच्चे मन से हिंडोले में झूलते हुए बालकृष्ण के दर्शन करता है, वह निश्चय ही वैकुण्ठ में वास करता है ।
होली की ज्वाला में गेहूं, जौ व चने की बालियां क्यों भूनते हैं ?
फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा नवीन धान्य (जौ, गेहूं, चने) को यज्ञ रूपी भगवान को समर्पित करने का दिन है । इस पर्व को ‘नवान्नेष्टि यज्ञ पर्व’ (नयी फसल के अनाज को सेवन करने के लिए किया गया यज्ञ) भी कहा जाता है । होली के अवसर पर नवीन धान्य (जौ, गेहं, चने) की खेतियां पक कर तैयार हो जाती हैं । हिन्दू धर्म में खेत से आए नवीन अन्न को यज्ञ में हवन करके प्रसाद लेने की परम्परा है । उस अन्न को ‘होला’ कहते हैं । अत: फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को उपले आदि एकत्र कर उसमें यज्ञ की तरह अग्नि स्थापित की जाती है जिसे ‘होलिका जलाना’ कहते हैं । फिर रोली, मिठाई से पूजन करके हवन के चरू के रूप में जौ, गेहूँ, चने की बालियों को आहुति के रूप में होली की ज्वाला में सेकते हैं । होली की तीन परिक्रमा करते हैं और सिकीं हुई बालियों को घर लाकर प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है । इस तरह होली के रूप में ‘नवान्नेष्टि यज्ञ’ सम्पन्न होता है । इस तरह नवीन अन्न का यज्ञ करने से मनुष्य हृष्ट-पुष्ट व बलवान बनता है ।
इस विधि से फाल्गुनोत्सव मनाने से मनुष्य की सभी आधि-व्याधि का नाश हो जाता है और वह पुत्र, पौत्र व धन-धान्य से सम्पन्न रहता है ।