भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में दिया और वह भी तब, जब युद्ध की घोषणा हो चुकी थी, दोनों पक्षों की सेनाएं आमने-सामने आ गईं थीं । रणभेरी बज चुकी थी । क्यों ?
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश किसी ऋषि-मुनियों और विद्वानों की सभा या गुरुकुल में नहीं दिया, बल्कि उस युग के सबसे बड़े युद्ध ‘महाभारत’ की रणभूमि में किया । युद्ध अनिश्चितता का प्रतीक है, जिसमें दोनों पक्षों के प्राण और प्रतिष्ठा दाँव पर लगते हैं । युद्ध के ऐसे अनिश्चित वातावरण में मनुष्य को शोक, मोह व भय रूपी मानसिक दुर्बलता व अवसाद से बाहर निकालने के लिए एक उच्चकोटि के ज्ञान-दर्शन की आवश्यकता होती है; इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का ज्ञान वहीं दिया, जहां उसकी सबसे अधिक आवश्यकता थी ।
श्रीकृष्ण जगद्गुरु हैं । गीता के उपदेश द्वारा श्रीकृष्ण ने अर्जुन को मन से मजबूत बना दिया । महाभारत के युद्ध में अर्जुन के सामने कई बार ऐसे क्षण आए भी । अभिमन्यु की मृत्यु के समाचार से जब अर्जुन शोक और विषाद से भर गए, तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को स्मरण कराया—
‘’यह युद्ध है, यह अपना मूल्य लेगा ही । युद्ध में सब कुछ संभव है ।’
यह गीता के ज्ञान का ही परिणाम था कि अर्जुन दूसरे दिन एक महान लक्ष्य के संकल्प के साथ युद्धभूमि में आते हैं ।
महाभारत का युद्ध द्वापर के अंत में लड़ा गया था और कलियुग आने वाला था । भगवान श्रीकृष्ण जानते थे कि कलियुग में मानव मानसिक रूप से बहुत दुर्बल होगा क्योंकि धर्म के तीन पैर—सत्य, तप और दान का कलियुग में लोप हो जाएगा । मनुष्य के पास सत्य, तप और दान का बल कम होगा । मनुष्य शोक और मोह से ग्रस्त होकर ऊहापोह की स्थिति—‘क्या करें, क्या न करें’ में भ्रमित रहेगा । उस समय गीता का ज्ञान ही जीवन-संग्राम में मनुष्य का पथ-प्रदर्शक होगा ।
जीवन-संग्राम में मनुष्य का सबसे बड़ा पथ-प्रदर्शक है गीता का ज्ञान
आज मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन ही एक संग्राम है । मानव जीवन में छोटे-छोटे युद्ध (धन का अभाव, पारिवारिक कलह, बीमारी, बच्चों की अच्छी परवरिश, शिक्षा व विवाह आदि की चिंता, ऋण-भार आदि) नित्य ही चलते रहते हैं । जीवन का गणित ही कुछ ऐसा है कि जीवन सदा एक-सा नहीं रहता है । यहां जय-पराजय, लाभ-हानि, सुख-दु:ख का क्रम चलता ही रहता है । समय और परिस्थिति के थपेड़े हमें डांवाडोल करते ही रहते हैं । इस युद्ध में मनुष्य बुरी तरह से टूट कर आत्महत्या जैसे गलत कदम भी उठा लेता है ।
गीता का ज्ञान मनुष्य यदि हृदय में उतार ले, तो फिर हर परिस्थिति का वह अर्जुन की तरह डट कर सामना कर सकता है—
▪️‘सुखदु:खे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ’ अर्थात् सुख-दु:ख, लाभ-हानि, जय-पराजय—हर परिस्थिति में सम रह कर जीवन युद्ध लड़ो, समता का दृष्टिकोण अपना कर कर्तव्य पालन करो ।
▪️‘जो पैदा हुआ है, वह मरेगा अवश्य ।’ अत: मृत्यु के प्रति हमें स्वागत की दृष्टि विकसित कर लेनी चाहिए ।’
यह जीवन-दर्शन भगवान श्रीकृष्ण ने अपने जीवन में जीकर भी दिखाया । जन्म से पूर्व ही मृत्यु उनका पीछा कर रही थी । कौन-से उपाय कंस ने श्रीकृष्ण को मरवाने के लिए नही किए ? परंतु हर बार मृत्यु उनसे हार गई । जब वे इस धराधाम को छोड़कर गए, तब भी संसार को यह सिखा दिया कि मृत्यु का स्वागत किस तरह करना चाहिए ?
महाभारत युद्ध में बड़े-बड़े ब्रह्मास्त्रों और दिव्य अस्त्रों की काट अर्जुन को बताने वाले श्रीकृष्ण मृत्यु के वरण के लिए एक वृक्ष के नीचे जाकर लेट गए और पूरी प्रसन्नता और तटस्थता के साथ जरा व्याध के तीर का स्वागत किया और अपनी संसार-लीला को समेट लिया ।
ऐसा अद्भुत श्रीकृष्ण का चरित्र और वैसा ही उनका अलौकिक गीता का ज्ञान; जो सच्चे मन से हृदयंगम करने पर मनुष्य को जीवन-संग्राम में पग-पग पर राह दिखाता है और कर्तव्य-बोध कराता है । 🌹