श्रीवृंदावन धाम में विराजित ठाकुर बांकेबिहारी, जिनकी हर बात है निराली; जैसा उनका नाम निराला; वैसा ही उनका रूप-स्वरूप भी अत्यंत निराला है ।
स्वामी हरिदास जी श्रीराधा की प्रिय ललिता सखी के अवतार माने जाते हैं । वे 25 वर्ष की आयु में संवत् 1560 में वृन्दावन में निधिवन में आकर साधना करने लगे । जब श्रीहरिदास जी अपने प्यारे श्यामा-कुंजबिहारी को लाड़ लड़ाते, निकुंज में भाव-विभोर होकर संगीत की रागिनी छेड़ते और अपने इष्ट का गुणगान करते तो श्रीराधाकृष्ण उनकी गोद में आकर बैठ जाते थे ।
श्रीराधा की प्रिय सखी ललिता ने जब स्वामी हरिदास जी के रूप में जगत में अवतार लिया और निधिवन में रहने लगे, तब प्रिया-प्रियतम श्रीराधाकृष्ण के मन में आया कि हम भी निधिवन में प्रकट होकर रहें ।
संवत् 1562 मार्गशीर्ष मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को स्वामी हरिदास जी ने ऐसा गाया कि निधिवन में एक लता के नीचे से सहसा एक प्रकाशपुंज प्रकट हुआ और एक-दूसरे का हाथ थामे प्रिया-प्रियतम (श्रीराधाकृष्ण) प्रकट हो गए । सब कुछ जड़वत् हो गया, मानो समय की गति रुक गयी हो।
श्रीराधाकृष्ण की अद्भुत छवि को देखकर स्वामी जी ने कहा–‘क्या आपके अद्भुत रूप व सौंदर्य को संसार की नजरें सहन कर पाएंगी ? मैं संत हूं । मैं आपको तो लंगोटी पहना दूंगा, किन्तु श्रीराधारानी को नित्य नए श्रृंगार कहां से करवाऊंगा । इस जगत को दर्शन देने के लिए आप दोनों ‘एक देह’ हो जाएं ।’
स्वामी जी की विनती पर प्रिया-प्रियतम एक-दूसरे में समाहित होकर एक रूप हो गये । देखते-ही-देखते श्रीबिहारीजी श्रीजी और श्रीजी बिहारीजी हो गए । इस तरह प्रकट-अप्रकट का परदा हट गया और भक्तों को प्रेमरस देने के लिए वे ‘बांकेबिहारी’ बन गए ।
ठाकुर बांकेबिहारी जी के स्वरूप की विशेषता
बांका’ का अर्थ होता है—टेढ़ा, तिरछा, अनोखा और सुंदर और बिहारी का अर्थ है—प्रिया-प्रियतम की एक ही रूप-छवि । श्रीबांकेबिहारी जी के श्रीअंग में विराजती हैं श्रीराधा रानी ।
छाकुर श्रीबांकेबिहारी के स्वरूप की विशेषता दर्शाता एक सुंदर पद है—
टेढ़ौ ही मोर पखा सिर साजत
टेढ़ीहि चाल चलै वनवारी ।
टेढ़ि हि फैंट कसी कटि में
लटुआ लटकें लट घूँघर वारी ।
टेढ़ीहि लाठी कूँ हाथ लिए
टैढ़ौ खड़ौ मेरौ बाँकेबिहारी ।
अर्थात्—बिहारी जी के सिर पर पाग में मोरपंख टेढ़ा (एक तरफ झुका हुआ) होता है । ठाकुर छैल-छबीले हैं, तो श्रीराधारानी के पीछे-पीछे टेढ़ी ही चाल (इतराते हुए) चलते हैं । कमर में फेंटा भी टेढ़ा बांधते हैं; क्योंकि फेंटे में बांसुरी खोंसते हैं सो फेंटा भी टेढ़ा रहता है । मुख पर काली-काली घुंघराली अलकें भी टेढ़ी-मेढ़ी शोभायमान रहती हैं । बिहारी जी की लाठी भी टेढ़ी-मेढ़ी है और वह उसे हाथ में लेकर भी टेढ़े खड़े रहते हैं ।
ठाकुर जब हाथ में मुरली लेकर और शरीर में तीन टेढ़ बना कर बड़ी बंकिमा के साथ खड़े हो जाते हैं तो फिर इस स्वरूप को देख कर सारा सौंदर्य का सागर भी सूखने लगता है । बूढ़े-बूढ़े ज्ञानी-ध्यानी भी मोहित हो जाते हैं । कामदेव भी अपने आपको पराजित महसूस करता हुआ और यह सोचता हुआ भागता फिरता है कि इनके सामने रहेंगे तो जल जाएंगे, जी नहीं पायेंगे ।
ऐसा सौंदर्य-माधुर्य है ठाकुर बांकेबिहारी के स्वरूप में, इसलिए इनका नाम ‘बांकेबिहारी’ हुआ ।
मेरे बांके बिहारी लाल,
तू इतना ना करिओ श्रृंगार ।
नज़र तोहे लग जाएगी ।।
तेरी सुरतिया पे मन मोरा अटका ।
प्यारा लागे तेरा पीला पटका ।।
तेरी टेढ़ी मेढ़ी चाल, तू इतना ना करिओ श्रृंगार ।
नज़र तोहे लग जाएगी ॥