surdas ji bhagwan krishna

किसी भी व्यक्ति के मन में शुभ संकल्प केवल उसकी भक्ति भावना से ही नहीं आता; वरन् उसके व उसके पूर्वजों की भक्ति, कर्म और संकल्पों के सम्मिलित प्रयासों के फलस्वरूप उसके मन में उदय होता है । मनुष्य के मन में शुभ संकल्प के उदय के लिए उसका ईश्वर में अटूट विश्वास आवश्यक है । जिसका ईश्वर में विश्वास नहीं, वह शुभ संकल्प नहीं कर सकता है ।

संकल्पों का कायदा यह है कि कई संकल्प पूरे होते हैं और कई पूरे नहीं होते हैं । संकल्पों का पूरा होना या न होना हमारे अधीन नहीं है, यह भगवान के विधान के अधीन है । अगर संकल्पों की पूर्ति मनुष्य के अधीन होती तो कोई संकल्प अधूरा रहता ही नहीं । भगवान का एक विधान है, उस विधान से ही ये पूरे होते हैं । मनुष्य का काम उस विधान का आदर करना है ।

जो मनुष्य दिन-रात अशुभ संकल्प करते रहते हैं; वे स्वयं तो दु:खी रहते ही हैं, जगत को भी अपने स्वभाव के कारण अशुभ भावों का दान देकर कम या अधिक दु:खी करते हैं । शुभ संकल्प करने वाले पुरुष स्वयं तो सुखी होते ही हैं और संसार के प्राणियों को भी सुखी करते हैं । 

शुभ संकल्प की शक्ति

‘मन में जैसा संकल्प होता है, वैसा ही परिणाम भी होता है ।’ अर्थात् मनुष्य जैसा संकल्प करने लगता है, वैसा ही वह आचरण करता है और जैसा आचरण करता है फिर वह वैसा ही बन जाता है । अच्छे संकल्प को पूरा करने के लिए किए जाने वाले सद्कर्मों से प्राणी सम्राट, विराट, इन्द्र, महेन्द्र और ब्रह्मा आदि तक बन सकता है । यदि मनुष्य का संकल्प संसार के कल्याण के लिए होता है, तो उसको पूरा कराने में अलौकिक दिव्य शक्तियां भी सहायता करती हैं ।

सूरदास जी का सवा लाख पदों की रचना का संकल्प प्रभु श्रीनाथ जी ने पूरा कराया 

उद्धव जी के अवतार माने जाने वाले सूरदास जी की उपासना सख्य-भाव की थी । श्रीनाथ जी के प्रति उनकी अपूर्व भक्ति थी । उन्होंने महाप्रभु वल्लभाचार्यजी की आज्ञा से श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध की कथा को पदों में गाया । सूरदास जी के एक शुभ संकल्प ने उन्हें तो परमात्मा के चरणों में स्थान दिला दिया; साथ ही ‘सूर सागर’ जैसे ग्रंथ की रचना कर सांसारिक प्राणियों का भी कल्याण किया ।

सूरदास जी ने अपने जीवन में भगवान की लीला के सवा लाख पदों की रचना का संकल्प लिया था । वे एक लाख पदों की रचना कर चुके थे । कहते हैं, इनके साथ एक लेखक बराबर रहता था । इनके मुख से जो पद निकलते थे, उन्हें वह लिखता जाता था । कई बार जब लेखक उनके साथ नहीं होता था, तब स्वयं भगवान श्रीनाथ जी उनके लेखक का काम करते थे ।

एक दिन सूरदास जी ने अनुभव किया कि जो बात मेरे मुंह से निकलती है, उसे लेखक पहले ही लिख देता है । यह कार्य भगवान के सिवाय दूसरा कोई नहीं कर सकता है । बस ऐसा सोच कर उन्होंने लेखक की बांह पकड़ ली; परंतु भगवान ने हाथ छुड़ा लिया और अंतर्ध्यान हो गए ।

उसी समय सूरदास जी के मुख से यह दोहा निकला—

बाँह छुड़ाए जात हौ, निबल जानिकै मोहि ।
हिरदै ते जब जाहुगे, मरद बदौंगी तोहि ।।

सूरदास जी को पता चल गया कि प्रभु गोवर्धननाथ उन्हें अपनी नित्य लीला (गोलोक धाम) में बुला रहे हैं । अब उनका सवा लाख पदों की रचना का संकल्प कैसे पूरा हो ? इसी बात से वे चिंतित थे ।

तब प्रभु श्रीनाथ जी ने आकर स्वयं उनसे कहा—‘सूरदास जी ! आपके पदों की संख्या सवा लाख हो चुकी है ।’

सूरदास जी ने कहा—‘प्रभु ! वह कैसे संभव है ? मैंने तो अभी एक लाख पदों की ही रचना की है ।’

प्रभु श्रीनाथ जी बोले—‘25 हजार पदों की मैंने रचना कर दी है, अब सवा लाख पद हो गए हैं । विश्वास न हो तो गणना करा लीजिए । मेरे द्वारा रचे पदों में ‘सूर-स्याम’ की छाप है ।’

जब पदों की गणना की गई तो सचमुच पदों की संख्या सवा लाख निकली । भगवान ने अंधे महाकवि के संकल्प की लाज रखी ।

‘सूर-स्याम’ की छाप वाला एक पद 

सरन गएँ को को न उबारयौ ।
जब जब भीर परी संतनि कौं, चक्र सुदरसन तहाँ सँभारयौ ।।
भयौ प्रसाद जु अंबरीष कौं, दुरवासा कौ क्रोध निवारयौ ।
ग्वालनि हेत धरयौ गोवर्धन, प्रकट इंद्र कौ गर्व प्रहारयौ ।।
कृपा करी प्रह्लाद भक्त पर, खंभ फारि हिरनाकुस मारयौ ।
नरहरि रूप धरयौ करुनाकर, छिनक माहिं उर नखनि विदारयौ ।।
ग्राह ग्रसत गज कौं जल बूड़त, नाम लेत याकौ दुख टारयौ ।
सूर स्याम बिनु और करै को, रंगभूमि मैं कंस पछारयौ ।।

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