समुद्र-मंथन से प्रकट होने वाले रत्नों में एक ‘पांचजन्य शंख’ भी है । इसे भगवान विष्णु ने अपने पास रख लिया था । कृष्णावतार में भगवान श्रीकृष्ण अपने चतुर्भुज रूप में शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण करते हैं । उनके शंख का नाम ‘पांचजन्य’ है, जिसे उन्होंने महाभारत युद्ध के आरम्भ में कुरुक्षेत्र के मैदान में बजाया था । इस शंख को ‘विजय का प्रतीक’ माना गया है । श्रीकृष्ण और अर्जुन ने जब भीष्म पितामह सहित कौरव सेना के द्वारा बजाये हुए शंखों और रणवाद्यों की ध्वनि सुनी, तब इन्होंने भी युद्ध आरम्भ की घोषणा के लिए अपने-अपने शंख बजाए ।
गीता (१।१५) में कहा गया है—
पांचजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनंजय: ।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशंखं भीमकर्मा वृकोदर: ।।
अर्थात्—श्रीकृष्ण ने पांचजन्य नामक, अर्जुन ने देवदत्त नामक और भीमसेन ने बहुत बड़े आकार का पौण्ड्र नामक महाशंख बजाया ।
महाभारत युद्ध में श्रीकृष्ण अपने पांचजन्य शंख की ध्वनि से जहां पांडव सेना में उत्साह का संचार करते थे; वहीं इस शंख की ध्वनि सिंह की गर्जना से भी भयानक होने के कारण कौरवों की सेना में इससे भय व्याप्त हो जाता था।
पांचजन्य शंख
भगवान श्रीकृष्ण के करकमल में सुशोभित पांचजन्य शंख का बांसुरी की तरह बहुत ही महत्व है; क्योंकि उसे भगवान श्रीकृष्ण के मुख से लग कर उनके अधरामृत का पान करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है ।
एक दिन शंखराज पांचजन्य मन-ही-मन अभिमान करते हुए कह रहे थे—
‘मेरी कान्ति राजहंस के समान श्वेत है,
मुझे साक्षात् श्रीहरि ने अपने हाथों में ग्रहण किया है,
मैं दक्षिणावर्ती शंख हूँ,
युद्ध में विजय प्राप्त होने पर श्रीकृष्ण मुझे बजाया करते हैं,
भगवान श्रीकृष्ण का जो अधरामृत क्षीरसागर की कन्या लक्ष्मी जी के लिए भी दुर्लभ है, उसे मैं दिन-रात पीता रहता हूँ, अत: मैं सबसे श्रेष्ठ हूँ ।’
पांचजन्य शंख को इस तरह अभिमान करते देख कर लक्ष्मी जी को क्रोध आ गया और उन्होंने उसे शाप देते हुए कहा—‘दुर्मति ! तू दैत्य हो जा ।’
वही शंखराज समुद्र में पांचजन्य नामक दैत्य हुआ था, जो वैर भाव से भजन करते हुए श्रीहरि को प्राप्त हुआ । उसकी ज्योति श्रीकृष्ण में लीन हो गई और अब उसकी अस्थियों का वह शंख श्रीकृष्ण के हाथ में शोभा पाता है ।
भागवत पुराण के अनुसार श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाईयों ने गुरु सान्दीपनि के आश्रम में रहकर 64 दिनों के अल्प समय में सम्पूर्ण शास्त्रों की शिक्षा प्राप्त की । शिक्षा पूरी करने के पश्चात श्रीकृष्ण और बलराम ने गुरु सान्दीपनि से गुरुदक्षिणा माँगने की प्रार्थना की ।
अगस्त्य मुनि की तरह अनेक विद्याओं के समुद्र को एक ही सांस में सोख लेने की श्रीकृष्ण की अद्भुत शक्ति देखकर गुरु जी भी ताड़ गए और उन्होंने कस कर गुरु दक्षिणा मांगने का विचार किया ।
ऋषि ने अपनी पत्नी को श्रीकृष्ण से कुछ मांगने को कहा । गुरुपत्नी ने श्रीकृष्ण से गुरुदक्षिणा के रूप में अकाल-मृत्यु को प्राप्त हुए अपने पुत्र को वापिस ला देने की बात कही । सारी सृष्टि के रचयिता विष्णुरूपी भगवान श्रीकृष्ण अपनी गुरुमाता के दुःख को कैसे देख सकते थे ? उन्होंने गुरुपुत्र को पुनर्जीवन का वरदान दिया ।
दोनों भाई प्रभास क्षेत्र में गये । उन्हें पता चला कि शंखासुर नामक राक्षस गुरुपुत्र को ले गया है, जो समुद्र के नीचे पवित्र शंख में रहता है, जिसे ‘पांचजन्य’ कहते हैं । शंखासुर पंचजन सागर का एक दैत्य था ।
श्रीकृष्ण समुद्र तट पर जाकर गुरु पुत्र की तलाश में समुद्र में उतरे ।
तब समुद्र ने कहा–‘गुरु पुत्र यहां नहीं है, उसे शंखासुर नामक दैत्य खा गया होगा ।’
इसके बाद श्रीकृष्ण ने शंखासुर का वध किया तो वहां भी गुरु पुत्र नहीं मिले । उसका खोल (शंख) शेष रह गया । यहीं से शंख की उत्पत्ति हुई ।
शंखासुर के शरीर का शंख लेकर श्रीकृष्ण और बलराम यमराज के पास पहुँचे और उसे बजाने लगे । यमलोक में शंख बजाने पर अनेक गण उत्पन्न हो गए । यम ने दोनों भाइओं की पूजा करते हुए कहा–’हे सर्वव्यापी भगवान, अपनी लीला के कारण आप मानवस्वरूप में हैं । मैं आप दोनों के लिए क्या कर सकता हूँ ?’
श्रीकृष्ण ने यमराज से कहा–’मेरे गुरु-पुत्र को मुझे सौंप दीजिये, जो अपने कर्मों के कारण यहाँ लाया गया था ।’ यमराज ने गुरुपुत्र को श्रीकृष्ण को लौटा दिया ।
इस प्रकार श्रीकृष्ण ने अपने गुरु को उनका जीवित पुत्र सौंपा और अपनी गुरुदक्षिणा पूर्ण की । भगवान श्रीकृष्ण ने शंखासुर को मार कर उसे शंख रूप से स्वीकार किया, वही ‘पांचजन्य शंख’ कहलाया ।
भगवान श्रीकृष्ण के पूजन के समय उनके पांचजन्य शंख की भी इस मंत्र से प्रार्थना करनी चाहिए—
‘पांचजन्य शंख ! तुम पूर्वकाल में समुद्र से उत्पन्न हुए हो और भगवान विष्णु ने तुम्हें अपने हाथ में धारण किया तथा सम्पूर्ण देवताओं ने मिल कर तुम्हें संवारा है । तुम्हें नमस्कार है । तुम्हारी गंभीर ध्वनि से मेघ डर जाते हैं, देवता और असुर थर्रा उठते हैं, तुम्हारी उज्ज्वल आभा दस हजार चंद्रमाओं से भी अधिक है । पांचजन्य तुम्हें नमस्कार है ।’