bhagwan shri krishna with bansuri flute

परमात्मा के प्रत्येक अवतार में उनके स्वरूप का एक विशिष्ट श्रृंगार होता है । जैसे भगवान शंकर मुण्डमाला, सर्पों के आभूषण, त्रिशूल और डमरु धारण करते हैं । भगवान श्रीराम नीलकांति व धनुष-बाण से सुशोभित रहते हैं । वैसे ही भगवान श्रीकृष्ण की व्रज लीला में उनका श्रृंगार अति विशिष्ट था । व्रज में वे ‘नटवर नागर नंदकिशोर’ अर्थात् ‘नटवर वेष’ में रहे । 

मोर मुकुट कटि काछनी, कर मुरली उर माल ।
यह वानिक मो मन बसौ सदा बिहारीलाल ।। (कवि बिहारी)

श्रीअंग में कर्पूर-चंदन का लेप लगाए, कपोलों पर गेरु से सुन्दर पत्ररचना किए हुए, कानों तक फैले विशाल नेत्रों वाले, मकराकृत कुण्डल, नाक में नथबेसरटोड़ी पर झिलमिल हीरा पहने व मुख पर मधुर मुसकान लिए श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण छोटे से कहे जाते हैं; पर उनका तनिक-सा दृष्टिपात करते ही समस्त लोकों की सृष्टि हो जाती है; इनका तनिक-सा सुयश सुनने से ही प्राणी परमपद को पा जाता है; तनिक-सा प्रसन्न होते ही ये उसे अपने-आप को दे देते हैं; तथा तनिक-सा देखकर ही मन को मोह लेते हैं ।

छोटो सो कन्हैया एक मुरली मधुर छोटी,
छोटे सखा संग छोटी मयूर पाग सिर की ।।
छोटी सी लकुटी हाथ छोटे वत्स (बछड़े) लिये साथ,
छोटी कटि छोटी पट छोटे पीतांबर की ।।
छोटे से कुंडल कान मुनिमन छूटे ध्यान,
छोटी-छोटी गोपी सब आंई घरघर तें ।। (नंददास)

इस लेख में जानते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण के श्रृंगार की क्या विशिष्टता है ?

बेनी या चोटी

भगवान बालकृष्ण को अपने बालों से बहुत प्यार था । वे बार-बार माता यशोदा से पूछते—

मैया कबहुं बढ़ैगी चोटी ।
किती बेर मोहि दूध पियत भइ यह अजहूं है छोटी ॥
तू जो कहति बल की बेनी ज्यों ह्वै है लांबी मोटी ।
काढ़त गुहत न्हवावत जैहै नागिन-सी भुई लोटी ॥
काचो दूध पियावति पचि पचि देति न माखन रोटी ।
सूरदास त्रिभुवन मनमोहन हरि हलधर की जोटी ॥

बाल स्वभाववश प्राय: श्रीकृष्ण दूध पीने में आनाकानी किया करते थे । एक दिन माता यशोदा ने प्रलोभन दिया कि कन्हैया ! तू नित्य कच्चा दूध पिया कर, इससे तेरी चोटी दाऊ जैसी मोटी व लंबी हो जाएगी । मैया के कहने पर कन्हैया दूध पीने लगे । 

कुछ समय बीतने पर एक दिन कन्हैया बोले—‘अरी मैया ! मेरी यह चोटी कब बढ़ेगी ? दूध पीते हुए मुझे कितना समय हो गया; लेकिन अब तक भी यह वैसी ही छोटी है । तू मुझे नित्य नहलाकर बालों को कंघी से संवारती है, चोटी गूंथती है, जिससे चोटी बढ़कर नागिन जैसी लंबी हो जाए । कच्चा दूध भी इसीलिए पिलाती है । इस चोटी के ही कारण तू मुझे माखन व रोटी भी नहीं देती ।’ 

श्रीकृष्ण को चोटी अति प्रिय होने से श्रृंगार में उन्हें बेनी धारण कराई जाती है ।

पाग

‘पाग’ शब्द का अर्थ है पगड़ी । पुष्टि सम्प्रदाय में प्रेम का बहुत महत्व है; इसलिए पगड़ी को ‘पाग’ कहा गया है । यशोदा माता कन्हैया को सुरंगी पाग पहना कर उस पर रत्नजड़ित सिरपेंच लगाती थीं । पाग पर टेढ़ी मोरचंद्रिका की शोभा देख कर मन्मथ (कामदेव) भी लजा जाता था ।

लटपटी पाग बनी सिर आज ।
टेढी धरी चंद्रिका सुन्दर भई मन्मथ मन लाज ।।

यही कारण है कि श्रीकृष्ण को पाग धारण कराकर उस पर मोरचंद्रिका लगाई जाती है ।

मोरपिच्छ या मोरचंद्रिका

हों इन मोरन को बलिहारी ।।
जिनकी सुभग चंद्रिका माथे धरत गोवर्धनधारी ।

भगवान श्रीकृष्ण के श्रृंगार की विशिष्टता है—उनका मस्तक पर मोरपंख का मुकुट धारण करना । श्रीकृष्ण को मोर बहुत पसन्द है । वे बहुत सुंदर ‘मयूर-नृत्य’ भी करते हैं । श्रीकृष्ण राधा रानी के मोर के साथ नाचते हैं । नाचते-नाचते मोर का पिच्छ गिर पड़ता है । श्रीकृष्ण उसे उठा लेते हैं और यह कहते हुए कि अरे, इसने तो हमको पुरस्कार दिया है, उसको सिर पर धारण कर लेते हैं; इसलिए उनका एक नाम ‘बर्हापीड़’ हैं ।

मोर में अनेक गुण हैं–वह दूसरों के दु:ख से दु:खी और सुख से सुखी होता है । अधिक गर्मी पड़े और सब कुछ सूख जाये तो मोर को मरण-तुल्य दु:ख होता है । आकाश में बादल गड़गड़ाने पर वह अत्यन्त आनन्द के साथ नाचता है और उसकी आँख से आनन्दाश्रु प्रवाहित हो उठते हैं, जिसे मोरनी पी जाती है और उससे गर्भधारण कर लेती है । जो जीव कामसुख का त्याग करता है, उसे श्रीकृष्ण अपने मस्तक पर स्थान देते हैं । 

वंशी

बलिहारी या बंसकुल सजनी बंसी सी सुकुमारी ।।
सुंदर कर सोहे मोहन ते नेकहु होत न न्यारी ।

पतली-सी वंशी को बड़े प्रेम से दिन-रात अपने साथ कन्हैया कभी हाथों में तो कभी कमरबंध में खोंस के रखते हैं; इसीलिए बंशीधर, वेणुगोपाल और मुरलीधर कहलाते हैं । बांस के कुल में जन्म लेने, अत्यंत कठोर होने, गर्मी, सर्दी, बरसात सह कर, चीरे जाने पर भी वंशी मीठी तान ही सुनाती है; इसीलिये श्रीकृष्ण को बांसुरी अति प्रिय है । 

मुरली हरि को नाच नचावत ।
एते पर यह बांस बसुरियां नंदनंदन को भावत ।।

वंशी में अनेक गुण हैं—प्रथम तो इसके हृदय में छेद हैं, शरीर भी छूछा (पोला) है, अर्थात् यह अपने अन्दर कुछ भी छल-कपट छिपाकर नहीं रखती ।  सभी जानते हैं कि यह श्रीकृष्ण के अधर-रस का पान करती है और अपनी ध्वनि से सबके मन की गति को पंगु बना देती है । जब श्रीकृष्ण वंशी में फूँक देते हैं, तब वंशी के छिद्रों के मार्ग से अपने होठों की माधुर्यराशि को भी अंदर डाल देते हैं । वही माधुर्य नादरूप में परिणित होकर समस्त जगत में व्याप्त हो जाता है । इस वंशी के मादक स्वरों के बन्धन में बंधकर देवता, मनुष्य और तपस्वी संत भी अपनी ज्ञान-भक्ति को भूल जाते हैं । श्रीकृष्ण विरह में व्याकुल किसी ने खूब  कहा है—

लालन एक विनय सुनिए, तुम मोरी गलिन में आइयो न ।
आयो तो करुणा करिके हंसि टेर सुनाइयो गाइयो न ।।
आइयो तो अधरौ धरिकै, यह मुरली मंद बजाइयो न ।
सरसाइयो न हिय प्रेम व्यथा, यदि आइयो तो पुनि जाइयो न ।।

गुँजामाला

श्रीकृष्ण के श्रृंगार की एक और प्रमुख वस्तु है—गुँजामाला, जिसे वे गले में धारण करते हैं । यह माला उन्हें बहुत प्रिय है । 

बलिहारी गुंजा की जात पर महाभाग्य की सारी ।।
सदा हृदय रहत स्याम के छिनहू टरट न टारी ।।

गुंजा या रत्ती (Coral Bead) लता जाति की एक वनस्पति है । गुंजा के फूल सेम की तरह होते हैं, जिसमें से गुंजा के दाने निकलते हैं ।

ब्रह्माण्ड का आकार गुँजा जैसा है । श्रीकृष्ण अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड के नायक हैं । उन्होंने ब्रह्मा जी को बताया कि ‘तुम तो एक ही ब्रह्माण्ड के ब्रह्मा हो, ऐसे-ऐसे अनेक ब्रह्माण्ड मेरे श्रीअंग में विलास करते हैं ।’ इसीलिये ब्रह्माण्डनायक होने के कारण उन्होंने गले में गुँजामाला धारण की है ।

वैजयन्ती या वनमाला–भगवान श्रीकृष्ण पांच वर्ण के पुष्पों की वनमाला गले में पहनते है; जिसमें शोभा, सौन्दर्य और माधुर्य की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी जी छिपी रहती हैं ।

राजत री वनमाल गरै हरि आवत वन तैं ।
फूलनि सौं लाल पाग, लटकि रही बाम भाग,
सो छवि लखि सानुराग, टरति न मन तैं ।।

श्रीकृष्ण गले में वनमाला व सिर पर लाल पाग पहने जब वन से लौटते तो उनकी यह छवि देखने के बाद यह ब्रजबालाओं के मन से हटती ही नहीं थी । 

पीताम्बर

श्रीराधा का शरीर स्वर्णमयी आभा लिये हुये है; इसीलिए श्रीकृष्ण ने उनके समान वस्त्र धारण किये हैं । इसका एक अर्थ यह भी है कि भगवान पृथ्वी के उद्धार के लिये अवतरित हुये हैं; अत: उन्होंने पृथ्वी के पीले रंग के वस्त्र धारण किये हैं ।

कर्णिकार या कनेर पुष्प

भगवान श्रीकृष्ण ‘वनमाली’ कहे जाते हैं । ब्रज लीला में जब वे गाय चराने वन में जाते थे, तब दोपहर में जब गौएं विश्राम करतीं, तब गोप-गोपियां मिल कर उनका वन के विभिन्न प्रकार के फूलों से श्रृंगार करते । अमलतास के लम्बे लम्बे लटकते हुये फूलों को ‘कर्णिकार’ या ‘करवीर’ का पुष्प कहते हैं । भगवान श्रीकृष्ण इस गंधहीन पुष्प को अपने कान में लगाकर रखते थे ।

पत्ररचना

गोप-गोपियां गेरु, खड़िया आदि प्राकृतिक वस्तुओं से श्रीकृष्ण के सुंदर मुख पर ‘पत्ररचना’ कर उनको सजाया करते थीं; इसीलिए आज भी व्रज के मंदिरों में श्रीकृष्ण के मुख पर पत्ररचना की जाती है ।

असंख्य सूर्यों से बढ़कर तेज, असंख्य चन्द्रमाओं से बढ़कर शीतलता, असंख्य समुद्रों से बढ़कर गाम्भीर्य, असंख्य कुबेरों से बढ़कर ऐश्वर्य, असंख्य कामदेवों से बढ़कर सौन्दर्य, असंख्य पृथ्वियों से बढ़कर क्षमाशीलता व असंख्य प्रियतमों से बढ़कर माधुर्य है जिनका, इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण सबके प्यारे और सबसे न्यारे हैं ।