bhagwan krishna with shri radha in Vrindavan painting style image

श्रीकृष्ण कंस द्वारा आमन्त्रित होकर जब अक्रूर जी के साथ मथुरा चले गये, तब बहुत समय बीत जाने पर भी वापिस न लौटे । श्रीकृष्ण मथुरा के राजा हैं । प्रिय सखा उद्धव जी की निजसेवा है । मथुरा में सर्वत्र ऐश्वर्य है । अनेक दास-दासियां हैं, छप्पन-भोग हैं; सब प्रकार का सुख है । परन्तु परमात्मा प्रेमाधीन हैं । वे प्रेम के अतिरिक्त अन्य साधनों से न रीझते हैं और न ही रह पाते हैं । श्रीकृष्ण जब द्वारकाधीश बन गए, तब भी वह व्रज को नहीं भूले । द्वारका में जब श्रीराधा और गोपियों की बात चलती तो श्रीकृष्ण को रोमांच हो आता, आंसू बहने लगते, वाणी गद्गद् हो जाती, कुछ बोल नहीं पाते । 

एक दिन श्रीकृष्ण ने अपने प्रिय सखा ज्ञानी उद्धव से कहा–‘हे उद्धव ! तुम शीघ्र ही व्रज जाओ, ब्रह्मज्ञान का संदेश सुनाकर व्रजवासियों का ताप हरो ।’

जैसे ही उद्धव जी ने व्रज की सीमा में प्रवेश किया, प्रेम की मधुर रसधार ने उन्हें अपने रंग में रंगना शुरु कर दिया । करील की कटीली झाड़ियों में उनका वस्त्र उलझ गया, मानो ये करील की कुंजें कह रही हों—

‘उद्धव ! इस प्रेमनगरी में जरा संभल कर जाना, कहीं व्रजबालाओं की विरहाग्नि में तुम्हारे ज्ञान की पोथी न जल जाए ।’

संभालो योग की पूंजी न हाथों से निकल जाये,
कहीं विरहाग्नि में ज्ञान की पोथी न जल जाये ।।

उद्धव जी को व्रज में आए दस मास हो गए । एक दिन मथुरा लौटने की अनुमति लेने के लिए उद्धव जी श्रीराधा के पास जाकर बोले–’श्रीकृष्ण-चरणों में यदि कुछ निवेदन करना हो तो इस दास को आदेश कीजिए ।’

श्रीराधा ने अत्यन्त कातर शब्दों में कहा–

उद्धव ! राधा-सी अभागिनी दु:खभागिनी पापिन कौन ?
जिसको छोड़, मधुपुरी जाकर माधव मधुर हो गये मौन ।
ऐसी प्रियवियोगिनी तरुणी मेरे सिवा न कोई और ।
प्रिय-बिछोह में शून्य दीखते जिसको सभी काल, सब ठौर ।।

’श्रीकृष्ण हमारे विरह में कातर हैं’–यह बात जिस प्रकार तुमने हमें कही है, उसी प्रकार ‘हम भी श्रीकृष्णविरह में कातर हैं’ यह बात उनसे कभी मत कहना; क्योंकि हमारा हृदय तो वज्र के समान है; इसी कारण यह बात सुनकर भी हमारा कलेजा फट नहीं गया । परन्तु श्रीकृष्ण का हृदय तो नवनीत के समान कोमल है । हमारी दुर्दशा की बात सुनकर उनके लिए प्राण रखना भी मुश्किल हो सकता है । हमारी बात उन्हें धीरे-धीरे दस-पांच दिन का अंतराल देकर सुनाना ।’

उद्धव जी ने श्रीराधा से कहा–‘आपके प्राणवल्लभ को एक बार व्रज में आने के लिए अनुरोध करुं क्या ?’ 

श्रीराधा ने अत्यन्त गम्भीर स्वर में कहा–’जब तक वे निश्चिन्त होकर न आ सके, तब तक उनका न आना ही ठीक है । हम केवल उन्हें पाकर ही सुखी नहीं होती, उनके मुख पर मुस्कान देखकर ही सुखी होती हैं । हे उद्धव ! मुझे ऐसा लगता है कि मथुरा में कृष्ण कोई दूसरे होंगे, मेरे कृष्ण तो मेरे साथ ही रहते हैं, मुझे छोड़ कर वे गए ही नहीं हैं । कल मैंने श्रीकृष्ण की बांसुरी सुनी है । कदम्ब के पेड़ पर मुझे उनका दर्शन हुआ है ।’

उधर मोहन बने राधा वियोगिन की जुदाई में,
इधर राधा बनी हैं स्याम, मोहन की जुदाई में ।।

उद्धव जी समझ गए कि जीव जब भगवान से अतिशय प्रेम करता है तब भगवान अपने माया के परदे को हटा कर स्वयं को प्रकट कर देते हैं । जीव जब संसार से प्रेम करता है तब वे अपनी माया से अपने को ढंके रखते हैं । यही बात भगवान ने गीता (७।२५) में भी कही है ।

श्रीराधा जी का दर्शन करके उद्धव जी का अभिमान दूर हुआ । वे श्रीराधा जी से मांगते हैं—‘श्रीकृष्ण-प्रेम दे दो, मेरा ज्ञान शुष्क है ।’

श्रीराधा द्वारा उद्धव को ज्ञानोपदेश 

श्रीराधा ने उद्धव को ज्ञानोपदेश करते हुए कहा—

▪️‘श्रीकृष्ण की भक्ति और उनकी दासता (शरणागति) सभी वरदानों में उत्तम वरदान है; क्योंकि श्रीकृष्ण की भक्ति पांच प्रकार की मुक्तियों—सायुज्य, सालोक्य, सारुप्य, सामीप्य और कैवल्य से भी श्रेष्ठ है और उनकी दासता ब्रह्मत्व (ब्रह्मा का पद), देवत्व, इन्द्रत्व (इंद्र की पदवी), अमरत्व और सिद्धियों की प्राप्ति से भी बढ़ कर है । समस्त पृथ्वी का दान, प्रदक्षिणा, सभी तीर्थों में स्नान, सभी देवताओं का पूजन, वेद-पाठ, जप-तप-दान, ब्राह्मण-भोजन, माता-पिता की भक्ति, गुरु सेवा, भयभीत की रक्षा करना आदि श्रीकृष्ण की दासता की सोलहवीं कला की भी समता नहीं कर सकते । जो कर्म कृष्णार्पण कर दिया जाता है और जिससे श्रीकृष्ण की प्रसन्नता बढ़ती है, वही सर्वोत्तम है । इसलिए तुम उन परब्रह्म परमात्मा, ईश्वर, अविनाशी, सर्वेश्वर, ज्योतिस्वरूप, परमानंदस्वरूप नंदनन्दन का भजन करो ।’

▪️श्रीराधा ने आगे कहा—‘उद्धव ! इस भूलोक में कौन किसका पति, कौन किसकी पत्नी या भाई-बंधु हैं ? अर्थात् कोई किसी का नहीं है; क्योंकि विपत्ति के समय श्रीकृष्ण के अतिरिक्त कोई किसी का बंधु या सहायक नहीं होता है । संत लोग रात-दिन श्रीकृष्ण का भजन करते हैं; क्योंकि श्रीकृष्ण जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा और रोग का विनाश करने वाले हैं । वही सर्वदु:खहारी परमेश्वर हैं ।

▪️भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमल की सेवाओं में, उनके गुणों के कीर्तन में, उनकी भक्ति, ध्यान और पूजा में मनुष्य का जो समय व्यतीत होता है; उसी में जीवन का सारा मंगल और आनंद है । श्रीकृष्ण का विस्मरण होने से ही हृदय में शोक-संताप और जीवन में विघ्न आते हैं ।

▪️परमात्मा श्रीकृष्ण का भजन ही काल पर विजय पाने का उपाय है । सूर्य सब प्राणियों की आयु को रात-दिन के व्याज से क्षीण करते रहते हैं अर्थात् सूर्योदय होने पर एक नया दिन होता है और मनुष्य की आयु का एक दिन कम हो जाता है । परंतु संतों और हरिभक्तों पर इसका कोई वश नहीं चलता । इस बात को समझाने के लिए श्रीराधा हरिभक्तों का उदाहरण देती हैं —

—ब्रह्मा के चारों मानस पुत्र—सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार जो रात-दिन श्रीहरि के ध्यान में रहते हैं; इस कारण उनकी आयु सदा स्थिर रहती है । वे पांच वर्ष के शिशुओं की तरह सदा बालरूप में ही रहते हैं और उसी रूप में वे एकादश रुद्रों, द्वादश आदित्यों और ज्ञानियों के भी गुरु के गुरु हैं । वे दिगम्बर हैं; परंतु श्रीकृष्ण के ध्यान से पवित्र हो गए हैं । जो मनुष्य इनका स्मरण करते हैं, उनके हृदय में भी हरि-भक्ति उत्पन्न हो जाती है और वे श्रीहरि की दास्य भक्ति के अधिकारी बन जाते हैं ।

—मृकण्डु ऋषि के अल्पायु पुत्र मार्कण्डेय ने श्रीहरि की सेवा से सात कल्पों तक की आयु प्राप्त की ।

—वोढु, पंचशिख, लोमश और आसुरि मुनि ने समस्त कर्मों का त्याग कर श्रीहरि के चरणकमलों के ध्यान और सेवा से सौ कल्पों की आयु प्राप्त की ।

—परशुराम, हनुमान, बलि, व्यास, अश्वत्थामा, विभीषण, कृपाचार्य और जाम्बवान—ये सभी श्रीहरि के ध्यान से चिरंजीवी हैं ।

—श्रीहरि से द्वेष करने वाले दैत्यराज हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रह्लाद हरि-भक्ति से चिरंजीवी हो गए ।

▪️भारतवर्ष में जन्म पाकर भी जो मनुष्य श्रीहरि की दास्य-भक्ति न करके विषयों में उलझे रहते हैं, वे महामूर्ख हैं । वे जानबूझ कर अमृत का त्याग करके विष पान करते हैं ।

श्रीराधा ने उद्धव जी को लक्ष्मीवान, विद्यावान तथा कीर्तिवान होने और समस्त सिद्धियों की प्राप्ति होने का वर दिया । साथ ही श्रीहरि के चरणकमलों की निश्चल दास्य-भक्ति और श्रेष्ठतम पार्षद-पद की प्राप्ति का भी वरदान दिया ।

श्रीराधा के ऐसे ज्ञान को सुन कर उद्धव बहुत आश्चर्यचकित हो गए । उन्होंने उनकी चरणरज लेकर शीश पर धारण कर ली भक्तिपूर्वक सिर झुका कर श्रीराधा जी की वंदना करते हुए कहा—

वन्दे राधापदाम्भोजं ब्रह्मादिसुरवन्दितम् ।
यत्कीर्ति कीर्तनेनैव पुनाति भुवनत्रयम् ।।
नमो गोलोकवासिन्यै राधिकायै नमो नम: ।
शतश्रृंगनिवासिन्यै चन्द्रवत्यै नमो नम: ।।

अर्थ—मैं श्रीराधा के उन चरणकमलों की वंदना करता हूँ, जो ब्रह्मा आदि देवताओं द्वारा वंदित हैं तथा जिनकी कीर्ति के कीर्तन से ही तीनों लोक पवित्र हो जाते हैं । गोकुल में वास करने वाली राधिका को बारंबार नमस्कार । शतश्रृंग पर निवास करने वाली चंद्रवती को नमस्कार-नमस्कार है ।