भाद्रप्रद मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी ‘ऋषि पंचमी’ कहलाती है । इस दिन सप्तर्षियों का विशेष पूजन-आराधन किया जाता है ।
कौन है सप्तर्षि ?
सप्तर्षियों का प्रादुर्भाव ब्रह्माजी के मानस संकल्प से उनके अनेक अंगों से हुआ । सृष्टि के विस्तार के लिए ब्रह्माजी ने दस मानस-पुत्रों—मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ, दक्ष तथा नारद को उत्पन्न किया । इनमें—
- नारद जी ब्रह्मा जी की गोद से,
- दक्ष अंगूठे से,
- वसिष्ठ प्राण से,
- भृगु त्वचा से,
- क्रतु हाथ से,
- पुलह नाभि से,
- पुलस्त्य कानों से,
- अंगिरा मुख से,
- अत्रि नेत्रों से और
- मरीचि मन से उत्पन्न हुए ।
ये ही ऋषि अलग-अलग मन्वन्तरों में नाम-भेद से सप्तर्षियों के रूप में अवतरित होते हैं । कश्यप, अत्रि, भरद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि, तथा वसिष्ठ—ये वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तर के सप्तर्षि हैं
पुराणों में ऋषियों की इस सृष्टि को ‘ऋषिसर्ग’ या ‘मानस सृष्टि’ या ‘सांकल्पिक सृष्टि’ कहा गया है ।
श्रीमद्भागवत के अनुसार सप्तर्षि भगवान श्रीहरि के अंशावतार अथवा कलावतार हैं; इसलिए ब्रह्मतेज और करोड़ों सूर्य की आभा से संपन्न हैं । गृहस्थ होते हुए भी ये मुनि-वृत्ति से रहते हैं ।
आकाश में सप्तर्षिमण्डल समस्त लोकों की मंगलकामना करते हुए भगवान विष्णु के परम पद ध्रुव लोक की प्रदक्षिणा किया करता है ।
। महर्षि वसिष्ठ के साथ ही उनकी पत्नी अरुंधती जी भी सप्तर्षिमण्डल में स्थित रहती हैं । अरुंधती जी के पातिव्रत्य की अपार महिमा है, इसी के बल पर वे सदा वसिष्ठ जी के साथ रहती हैं । सप्तर्षियों के साथ अरुंधती जी का भी पूजन होता है । इनकी आराधना अखण्ड सौभाग्य और सुखद दाम्पत्य जीवन के लिए की जाती है ।
अरुंधती जी सहित सप्तर्षियों की आराधना का मंत्र है—
‘अरुन्धतीसहितसप्तर्षिभ्यो नम:’
इस नाम-मंत्र से एक साथ सप्तर्षियों का पूजन किया जा सकता है ।
सप्तर्षियों की महिमा
▪️प्रात:काल जागने पर सप्तर्षियों के नाम स्मरण कर उनसे मंगलकामना करने की बड़ी महिमा है । वामन पुराण में इससे सम्बधित श्लोक इस प्रकार है—
भृगुर्वसिष्ठ: क्रतुरंगिराश्च
मनु: पुलस्त्य: पुलहश्च गौतम:।
रैभ्यो मरीचिश्च्यवनश्च दक्ष:
कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ।।
▪️ सृष्टि के विस्तार और उसकी रक्षा में इन सप्तर्षियों का महत्वपूर्ण योगदान है । महाप्रलय में ये वनस्पतियों और औषधियों को बीज रूप में धारण कर सूक्ष्मतम स्वरूप में विद्यमान रहते हैं । यदि ये सृष्टि के चैतन्य को सार रूप में धारण कर प्रलय काल में सुरक्षित न रखते तो नयी सृष्टि पुन: होना कठिन होता ।
▪️ सप्तर्षि एक रूप में नक्षत्र लोक में सप्तर्षिमण्डल में स्थित रहते हैं और दूसरे रूप में भूलोक में स्थित रह कर लोगों में ज्ञान, भक्ति, सदाचार, सत्य, परोपकार, अहिंसा तथा क्षमा जैसे सात्विक भावों को अपनाने के लिए प्रेरित करते हैं ।
▪️ चार युगों—सत्य, त्रेता, द्वापर और कलियुग के बीतने पर वेदों का विप्लव होता है, तब सप्तर्षि अवतरित होकर वेदों का उद्धार करते हैं । इन्होंने वेद-मंत्रों का दर्शन किया है इसलिए ये वेदमंत्रों के द्रष्टा कहे जाते हैं ।
▪️ वेद के अनेक मंत्रों में सप्तर्षियों की प्रार्थना के जो मंत्र हैं, उनमें कहा गया है कि ये सात ऋषि प्राण, त्वचा, चक्षु, श्रवण (कान), रसना (जीभ), घ्राण (नाक) तथा मन रूप से शरीर में स्थित रह कर इसका संचालन करते हैं ।
▪️ सप्तर्षिमण्डल में रह कर ये सात ऋषि जीवों के शुभ-अशुभ कर्मों के साक्षी रहते हैं ।
▪️ भगवान के अवतार की लीला में भी ये ऋषि उनकी सहायता करते हैं । जैसे रामावतार में महर्षि वसिष्ठ, गौतम, अत्रि आदि ऋषि उनकी लीला में सहयोगी रहे ।